08 फ़रवरी 2025

नकारात्मक कार्य-शैली का नतीजा आप की हार

सत्ताईस बरसों तक विपक्षी गलियारे में टहलते रहने के बाद भाजपा को दिल्ली विधानसभा का सत्ता सुख प्राप्त हो गया. 70 सीटों वाली दिल्ली में भाजपा ने 48 सीटों के साथ बहुमत हासिल किया जबकि पिछले बारह सालों से सरकार चला रही आम आदमी पार्टी 22 सीटों में ही सिमट गई. आम आदमी पार्टी का इतनी कम सीटों में सिमट जाना संख्यात्मक रूप से इस कारण आश्चर्यजनक लग रहा है कि अपने पहले चुनाव में ही आम आदमी पार्टी द्वारा चमत्कारिक रूप से 28 सीटें जीत कर अपनी पहचान को साबित किया था. अन्ना आन्दोलन की लहर, लोकपाल बिल बनाये जाने का मुद्दा, भ्रष्टाचार विरोधी छवि के साथ पहले चुनाव के चमत्कारिक प्रदर्शन को अद्भुत प्रदर्शन में बदलते हुए 2015 एवं 2020 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने क्रमशः 67 एवं 62 सीटों पर विजय हासिल की थी. केन्द्रीय राजनीति में बेहतर प्रदर्शन करने वाली भाजपा को इन दोनों विधानसभा चुनावों में क्रमशः 03 एवं 08 सीटों से संतोष करना पड़ा था, वहीं कांग्रेस इन दोनों चुनावों में अपना खाता ही नहीं खोल सकी. आश्चर्य की बात है कि तत्कालीन लोकसभा चुनावों में भाजपा ने दिल्ली की सभी सात सीटों पर विजय हासिल की थी किन्तु विधानसभा में उसका प्रदर्शन एकदम लचर रहा.

 

आम आदमी पार्टी के पहले चुनाव की सफलता को अन्ना आन्दोलन लहर की सहानुभूति का परिणाम मानने वालों को भले ही चुनाव परिणामों की संख्यात्मकता ने गलत साबित किया हो मगर आम आदमी पार्टी खुद को सही साबित करने में विफल ही रही. यही कारण रहा कि दो बार प्रचंड बहुमत से आम आदमी पार्टी को दिल्ली की सत्ता प्रदान किये जाने के बाद भी अंततः इस बार दिल्ली के मतदाताओं ने उससे किनारा करना ही उचित समझा. वर्तमान 2025 विधानसभा चुनाव परिणामों को आम आदमी पार्टी के समर्थक भले ही सत्ता विरोधी लहर (एंटी इनकम्बेंसी) कह कर खुद को सांत्वना देने का प्रयास करें मगर सत्यता यही है कि पिछले बारह बरसों के अपने कार्यकाल में आम आदमी पार्टी द्वारा अपनी उसी विचारधारा, अपने उन्हीं सिद्धांतों से लगातार दूरी बनाई जाती रही, जिनके सहारे वह सत्ता में आई थी. अपने कार्यों, अपने विचारों, अपनी कार्य-शैली आदि के चलते आम आदमी पार्टी ने और स्वयं अरविन्द केजरीवाल ने जिस तरह से नकारात्मक माहौल बना रखा था, उससे दिल्ली के मतदाताओं में निराशा उत्पन्न हो चुकी थी. यही कारण रहा कि दिल्ली के मतदाताओं ने भाजपा पर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्य-शैली पर भरोसा करते हुए इस बार विधानसभा भाजपा को सौंप दी. दिल्ली के मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए अरविन्द केजरीवाल को भी हराया, मनीष सिसौदिया के साथ-साथ सत्येंद्र जैन और सौरभ भारद्वाज को भी बाहर का रास्ता दिखाया. एक दशक से अधिक समय की कार्य प्रणाली, व्यवहार को देखने के बाद मतदाताओं को न मुफ्त की रेवड़ियाँ पसंद आईं और न ही कट्टर ईमानदार वाली कथित छवि ने प्रभावित किया.

 



आम आदमी पार्टी की हार के पीछे भले ही भाजपा की अपनी तैयारी, रणनीति, मोदी का चेहरा समेत अनेक कारक समाहित माने जा सकते हैं, किन्तु आम आदमी पार्टी और उनके शीर्ष नेताओं के कारनामे भी उसकी हार के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं. यह उसका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जो दल भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन से जन्मा हो, जिस राजनैतिक दल के खिलाफ पूरा आन्दोलन छेड़े रहा हो सत्ता में आने के लिए उसी से हाथ मिला लिए. कांग्रेस की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ सैकड़ों पृष्ठों के जो सबूत सार्वजनिक मंच से दिखाए जाते थे, वे अचानक ही गायब हो गए. भ्रष्टाचार विरोध के द्वारा सत्ता में आने के बाद आम आदमी पार्टी के नेता भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने लगे. खुद को कट्टर ईमानदार कहने वाले अरविन्द केजरीवाल भी इससे बच न सके. उनके सहित मनीष सिसौदिया, सत्येंद्र जैन को भ्रष्टाचार के मामलों में जेल जाना पड़ा.

 

नई तरह की साफ-सुथरी, ईमानदार और वैकल्पिक राजनीति का वादा करने वाले केजरीवाल ने तो सिद्धांतों की, ईमानदारी की उस समय धज्जियाँ उड़ाकर रख दीं जबकि उनको जेल जाना पड़ा. बात-बात पर नैतिकता की दुहाई देने वाले अरविन्द केजरीवाल द्वारा जेल जाने के बाद भी इस्तीफा नहीं दिया गया. इसके बजाय उनके द्वारा जेल से ही सरकार चलाने की ऐसी जिद दिखाई गई जो भारतीय राजनीति में अचम्भित करने वाली घटना थी. भ्रष्टाचार विरोध, नैतिकता की बात करने वाले केजरीवाल ने सत्ता सुख के लिए अनेक राज्यों में उन्हीं दलों, नेताओं के साथ हाथ मिलाया जिनके दामन में भ्रष्टाचार, दंगों, घोटालों आदि के दाग लगे हैं. व्यवस्था परिवर्तन करने, राजनीति का ढंग बदलने की बात करने वाले केजरीवाल और उनके साथी लगातार न केवल भ्रष्टाचार में लिप्त होते चले गए बल्कि काम-काज के मामलों में भी असफल सिद्ध हुए. सरकारी विद्यालयों, चिकित्सालयों, मोहल्ला क्लीनिक, सड़कें, यमुना साफ़-सफाई, बिजली, पानी आदि के मामलों में आम आदमी पार्टी लगातार असफल ही रही. विडम्बना यह रही कि तमाम सारी नाकामियों के बाद भी केजरीवाल द्वारा इनका जिम्मेदार स्वयं को, अपने नेताओं को, अपनी पार्टी को न मानकर दूसरों पर दोषारोपण किया जाता रहा. अलग तरह की राजनीति के नाम पर बिना किसी सबूत के, बिना किसी आधार के बाकी सभी पार्टियों और उनके नेताओं को चोर-बेईमान बताया जाने लगा. इसकी हद तो उस समय हुई जबकि वर्तमान चुनाव से ठीक पहले उन्होंने सीधे-सीधे हरियाणा की भाजपा सरकार पर यमुना के पानी में जहर मिलाने, नागरिकों के नरसंहार की साजिश रचने का अत्यंत गम्भीर आरोप लगा दिया. यह कदम केजरीवाल की गैर-जिम्मेदार राजनीति की सारी सीमाओं का लाँघना था.

 

फिलहाल तो आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं के कारनामों की लम्बी सूची है, उनके कांड भी लम्बे-चौड़े हैं, अमानतुल्लाह खान, ताहिर हुसैन पर दंगों के आरोप तय हो चुके हैं, इस वास्तविकता को न केवल आम आदमी पार्टी के नेताओं ने समझा बल्कि दिल्ली के मतदाताओं ने भी समझा. यही कारण रहा कि दिल्ली में चुनावी मौसम के ठीक बीच में आम आदमी पार्टी के सात विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए. यहाँ पार्टी छोड़ने की परम्परा भी पार्टी के सत्ता में आने के साथ ही शुरू हो गई थी. शांति भूषण, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, मयंक गांधी, कुमार विश्वास, कैलाश गहलोत आदि ऐसे नाम हैं जो केजरीवाल की कार्यप्रणाली, उनकी मनमानी से असहमति के चलते पार्टी से बाहर हो गए. इन सब बातों का भी असर चुनाव परिणाम पर पड़ा. मतदाताओं में यह धारणा बन चुकी थी कि अब पार्टी में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है.

 

दिल्ली चुनाव में हार के बाद आम आदमी पार्टी के भविष्य पर सवाल उठना बेवजह भी नहीं. क्षेत्रफल की दृष्टि से भले ही दिल्ली छोटा राज्य हो मगर देश की राजधानी होने के कारण वह राजनीति के केन्द्र में रहता है. देश की राजनीति की तरह ही यहाँ की राजनीति भी विचारधारा और पार्टी के मजबूत शीर्षक्रम पर आधारित है. स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति आम आदमी पार्टी के पास नहीं है. आम आदमी पार्टी भले ही स्वयं को कट्टर ईमानदारी, अलग तरह की राजनीति करने वाली, व्यवस्था परिवर्तन करने वाली विचारधारा का पोषण करने वाली बताती रही हो मगर सत्यता यही है कि उसकी कोई विचारधारा नहीं है. उसका जन्म किसी विचारधारा के कारण नहीं बल्कि सत्ता में आने के उद्देश्य से ही हुआ है. आम आदमी पार्टी का गठन करते समय केजरीवाल के स्वयं ही कहा था कि मजबूरी में हम लोगों को राजनीति में उतरना पड़ा. हमें राजनीति नहीं आती है. हम इस देश के आम आदमी हैं जो भ्रष्टाचार और महँगाई से दुखी हैं, उन्हें वैकल्पिक राजनीति देने के लिए आए हैं. ऐसे में पार्टी के लिए बिना किसी ठोस विचारधारा के उसके विधायकों का वैचारिक दृष्टिकोण से एकजुट बने रहना भी एक चुनौती होगी. दिल्ली की सत्ता में रहते हुए केजरीवाल को अपने विधायकों को सँभाले रखना मुश्किल हो रहा था, अब विपक्ष में रहते हुए उनको साधे रखना आसान नहीं होगा. विचारधारा शून्यता के साथ-साथ शराब घोटाले और शीशमहल जैसे मुद्दों ने पार्टी की कट्टर ईमानदारी छवि पर भी दाग लगाया है. केजरीवाल, सिसौदिया का हारना अन्य प्रदेशों की इकाइयों पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा. ऐसे में यदि आम आदमी पार्टी को, केजरीवाल को राजनीति का लम्बा रास्ता तय करना है तो उनको दूसरों पर दोषारोपण करने के स्थान पर अपने गिरेबान में झाँकना होगा. अपने कारनामों पर, अपनी कार्य-शैली पर चिंतन करना होगा. कट्टर ईमानदार, अजेय बने रहने के अहंकारी दम्भ से बाहर निकलना होगा.  


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