25 जनवरी 2020

संविधान, स्वतंत्रता, गणतंत्र को समझ न सके हैं अभी हम

राष्ट्रीय दिवसों से सम्बंधित आयोजन किसी भी व्यक्ति के अन्दर देशभक्ति की भावना का संचार करने में सक्षम होते हैं. गणतंत्र दिवस हो अथवा स्वाधीनता दिवस, सभी में बच्चों से लेकर वृद्धजनों तक उत्साह दिखाई देता है. हर तरफ देशभक्ति की बयार बहती नजर आती है. एक तरह का जूनून सबके ऊपर नशे की तरह चढ़ा होता है. समाज का कोना-कोना देशभक्ति से ओतप्रोत समझ आने लगता है. क्या समाज, क्या घर, क्या कार्यालय, क्या आभासी दुनिया, क्या सोशल मीडिया सभी जगह देशभक्ति के विचारों का गुणगान होता रहता है. एक सामान्य नागरिक भी खुद को तिरंगे में सराबोर कर देता है. गणतंत्र की बातें, संविधान की रक्षा, उसके अनुपालन की बातें लोगों के मुँह से गली, मोहल्ले, चौराहे पर सुनाई देने लगती हैं. इसके बाद भी कहीं न कहीं अंतस इसका आनंद पूर्णतः ले नहीं पाता है. कहीं न कहीं वह ऐसे आयोजनों को महज एक दिन की औपचारिकता मानकर खारिज करना चाहता है. 


संभव है कि बहुत से देशभक्ति में सजे-धजे लोगों को ये बात हजम न हो मगर आज का अंतिम सत्य यही है. एक पल को तिरंगे को सलामी देने के ठीक पहले, उसके फहराने-लहराने पर मर-मिटने की सौगंध खाने के ठीक पहले विचार करिए कि आज देश की सड़कों पर, देश की राजधानी की सड़कों पर, राजधानी के शाहीन बाग़ में अथवा अन्य राज्यों के मुख्य-मुख्य स्थलों पर जो हो रहा है, चल रहा है उसे गणतांत्रिक व्यवस्था के सशक्तिकरण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है? यह व्यवस्था की नहीं वरन नीति-नियंताओं की, व्यवस्था बनाने वालों की, सत्ता-निर्धारकों की असफलता ही कही जाएगी कि आज़ादी के एक लम्बे अरसे के गुजार देने के बाद, गणतंत्र को स्वीकार कर देने के सात दशकों के बाद भी एक सामान्य नागरिक सही और गलत को परिभाषित कर पाने में अक्षम है. वह इसके लिए अभी भी अपने कथित अगुआ प्रतिनिधि का मुँह ताकता है. ऐसा क्यों? क्या कभी ये सवाल किसी ने खुद से किया है? क्या कभी कोई भी सवाल किसी ने नीति-निर्धारकों से, सत्ताधीशों से पूछने की हिम्मत जुटाई है?

ऐसा न हो पाने का ही दुष्परिणाम आज देश भुगत रहा है. चंद फिरकापरस्त ताकतें उस कानून की मुखालफत करने पर आमादा हैं, देश में आग लगवाने को आतुर हैं जो किसी भी दृष्टि से असंवैधानिक नहीं है. ये गणतांत्रिक असफलता ही है कि एक आम नागरिक अपना बुद्धि, विवेक, कौशल लगाने के बजाय किसी और के हाथ की कठपुतली बना हुआ है. सोचने की आवश्यकता है कि एक ऐसे कानून का विरोध, जिसका इस देश के नागरिकों की नागरिकता से कोई लेना-देना नहीं है, देश के उन सम्बंधित नागरिकों की किस मानसिकता का परिचय देता है. ये हास्यास्पद ही नहीं वरन विचारणीय स्थिति है कि एक तरफ हम खुद को विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश कहते हैं, खुद को विश्व गुरु की राह का अगुआ कहते हैं तब ऐसे बिंदु पर समाज को बंधक बनाने की कोशिश की जा रही है जो किसी भी तरह से असंवैधानिक नहीं है.

यही स्थिति है कि हम पर, हमारे देश पर, हमारी प्रक्रिया पर, लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर, गणतांत्रिक स्थिति पर सवाल उठाये जाने लगते हैं. सवाल कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्या महज एक दिन के लिए ही संवैधानिक महत्त्व है? क्या महज एक दिन ही गणतंत्र की स्वीकार्यता होती है? क्या बस इसी एक दिन के लिए गणतंत्र को, संविधान को आदर दिया जाता है? क्यों इस एक दिन की लोकतान्त्रिक शैली अपनाये जाने के बाद हम नागरिकों के व्यवहार में तानाशाही दिखाई देने लगती है? क्यों इसी एक दिन संविधान को सर्वोच्च मानने के बाद उसमें खामियां दिखाई देने लगती हैं? क्यों एक दिन के गणतंत्र के बाद फिर इसी गणतांत्रिक व्यवस्था को दोयम दर्जे का बताया जाने लगता है? जिन संवैधानिक मूल्यों की लगातार चर्चा होती है, जिन संवैधानिक अधिकारों की बात की जाती है, जिन संवैधानिक दायित्वों पर प्रकाश डाला जाता है वे क्यों यह दिन समाप्त होते ही पुरातन बातें हो जाती हैं?

आज जबकि विरोध का कारण एक व्यक्ति, एक दल, एक विचारधारा हो तब ये आवश्यक हो जाता है कि असलियत है क्या. अब ऐसे समय में जबकि कतिपय वोटबैंक के कारण, कतिपय तुष्टिकरण के कारण समाज को बरगलाया जाने लगा है, उसे हिंसात्मक, विध्वंसक गतिविधियों में लगाया जाने लगा है तब आवश्यक है कि देश की भावी पीढ़ी को लोकतंत्र का, गणतंत्र का, स्वाधीनता का उचित अर्थ और सन्दर्भ ज्ञात हो. गणतंत्र को अथवा संविधान को समझना इसलिए और भी आवश्यक हो गया है क्योंकि देश के एक-एक व्यक्ति अब राजनैतिक पूर्वाग्रहों से घिर गया है. उसकी अपनी सोच, मानसिकता पर किसी न किसी वाद का, किसी न किसी विचारधारा का कब्ज़ा सा समझ आने लगा है. ऐसा महसूस होता है जैसे सोचने-समझने की क्षमता को कहीं तिलांजलि देकर वह किसी न किसी विचारधारा की कठपुतली बना हुआ है. क्या करना है, क्यों करना है, कैसे करना है के बारे में कोई विचार किये बिना वह स्वार्थपूर्ति में संलिप्त है. अपने मनोनुकूल विचारधारा को पोषित करने में लिप्त है.


यह स्थिति वर्तमान समाज के लिए खतरनाक बनी हुई है. ऐसे में व्यक्ति स्वेच्छा से सोच-विचार करने के बजाय अपनी पुष्ट विचारधारा के अनुसार संचालित होता है. उसी के अनुसार खुद को आगे बढ़ाता हुआ कार्य करता है. इस बिंदु पर आकर वह खुद को और अपनी विचारधारा को ही एकमात्र सत्य स्वीकारता हुआ शेष सभी को ख़ारिज करता जाता है. यह स्थिति जहाँ एक तरफ तानाशाही को जन्म देती है वहीं मानसिक विकृति भी पैदा करती है, जो समाज के लिए किसी भी कीमत पर सुखद नहीं है. ऐसा आज लगातार हो रहा है. खुद को, खुद की विचारधारा को स्थापित करने के लिए व्यक्ति किसी भी हद तक जाने को बेताब सा है. इसी बेताबी, तीव्रता ने व्यक्ति व्यक्ति के मध्य आपस में तनाव को जन्म दिया है. आपसी कटुता, वैमनष्यता को बढ़ावा दिया है. अपराध, हिंसा, दुराचार, अराजकता के मूल में यही वैमनष्यता है, यही विभेद है.

इस तरह की सोच दूसरों पर कब्ज़ा करने की भावना का विकास करती है. इस बारे में प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से अध्ययन करते हुए बहुतायत लोगों को उनके विचारों, उनकी मानसिकता के अनुसार ही वातावरण का निर्माण करने की कोशिश की जा रही है. सामाजिकता को किनारे रखते हुए तथ्यों को, आँकड़ों को भी विचारधारा के अनुसार प्रदर्शित करने का कार्य किया जा रहा है. इसके लिए कभी धर्म को, मजहब को साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, कभी जाति को इसका आधार बनाया जाता है तो कभी क्षेत्र की भावना को उछालते हुए वैमनष्यता को बढ़ाया जाता है. ऐसा करने वाली ताकतें और उन ताकतों के हाथों में खेलते लोग भूल जाते हैं कि ऐसा कोई भी कदम उठाने की अनुमति न तो हमारा संविधान देता है और न ही ऐसा करना गणतांत्रिक दृष्टि से उचित है. इसके बाद भी समूचे समाज में ऐसा होते दिख रहा है. संसद द्वारा किये जा रहे संविधान संशोधनों को भले ही किसी वर्ग, क्षेत्र, राज्य आदि के हितार्थ किया जाता रहा हो मगर समाज में संविधान संशोधनों की अपनी ही परिभाषाएं निकाली जाती हैं. संविधान के अपने ही स्वरूप दिखाए जाते हैं. गणतंत्र को अपने हिसाब से परिभाषित किया जा रहा है.

समझने वाली बात है कि गणतंत्र या फिर आज़ादी महज एक दिन का समारोह नहीं, एक दिन का आयोजन मात्र नहीं. गणतंत्र हमारे देश के, हम नागरिकों के जीने का आधार है. यह महज एक दिन का वो कृत्य नहीं जो तिरंगे के फहराने के साथ शुरू किया जाता है और उसके शाम को ससम्मान उतारने के बाद समाप्त हो जाता है. किसी दिन विशेष के साथ-साथ प्रत्येक दिन सम्पूर्ण देश के लिए गणतंत्र दिवस होना चाहिए, स्वतंत्रता दिवस होना चाहिए. ऐसा न होने का ही परिणाम है कि यहाँ दूसरों के लोकतान्त्रिक मूल्यों का हनन किया जा रहा है. दूसरों की आज़ादी में जबरन दखलंदाजी की जा रही है. गणतंत्र दिवस या फिर स्वतंत्रता दिवस मनाये जाने के पहले, अपने को तिरंगे या फिर भारत माता की जय के द्वारा देशभक्त बताने से पहले संविधान का, गणतंत्र का अर्थ समझना होगा. इनके मूल्यों को समझना होगा. इनके महत्त्व को समझना होगा. यदि ऐसा नहीं किया जा सकता है तो ऐसे किसी भी दिन विशेष का आयोजन खुद के प्रचार-प्रसार का तरीका भर है और कुछ नहीं.

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