चुनावी मौसम सबको अपने आगोश में ले लेता है.
प्रशासनिक अमला अपनी तरह से कार्य करने में जुट जाता है, राजनैतिक दल अपनी तरह से
गतिविधियाँ बढ़ा देते हैं. राजनैतिक दल जहाँ लुभावने वादों और तमाम तरह के सपने
दिखाकर मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की रणनीति बनाते हैं वहीं प्रशासनिक अमला
मतदाताओं को अधिक से अधिक मतदान करने के लिए जागरूक करने लगता है. उसकी तरफ से मतदाता
जागरूकता कार्यक्रमों के संचालन की भरमार होने लगती है. कभी गोष्ठी, कभी जुलूस,
कभी रैली, कभी नुक्कड़ नाटक आदि. इन सबके लिए राष्ट्रीय, प्रादेशिक स्तर से जनपद, ग्रामीण स्तर तक प्रशासन मुस्तैदी से मतदाता जागरूकता कार्यक्रम चलाने में
जुट जाता है और उसके साथ सम्बंधित क्षेत्र के कुछ नागरिक भी जुट जाते हैं. इनमें कुछ
तो ऐसे हैं जो शौकवश इन कार्यक्रमों में दिख जाते हैं अन्यथा की स्थिति में बहुतायत
में वे लोग हैं जो किसी न किसी रूप में प्रशासन के दबाव में हैं, प्रशासन से लाभान्वित होते रहते हैं, प्रशासन से लाभ
लेने की जुगाड़ में रहते हैं अथवा प्रशासन की गुड बुक में आने की जद्दोजहद करते रहते
हैं. ज्यादातर देखने में आ रहा है कि मतदाता जागरूकता कार्यक्रमों में रैली के लिए,
गोष्ठी के लिए अथवा किसी कार्यक्रम के लिए माध्यमिक विद्यालयों को,
महाविद्यालयों को प्रशासन द्वारा पकड़ सा लिया जाता है, उनके विद्यार्थियों के रूप में संख्याबल बना लिया जाता है. पोस्टर, तथा अन्य प्रचार-सामग्री साथ में
मीडिया की उपस्थिति फिर फोटो सेशन, कुछ भाषणबाज़ी और निपट गया
मतदाता जागरूकता कार्यक्रम. इस बार जिला प्रशासन अन्य तरीके अपनाने के साथ मानव श्रृंखला
बनाये जाने पर भी जोर दे रहा है. शहर भर में सड़क के किनारे खड़े सरकारी कर्मी,
विद्यालयों, महाविद्यालयों के विद्यार्थी, समाजसेवी आदि मतदाता जागरूकता अभियान
सम्बन्धी नारे लगाते अपनी उपस्थिति दिखाने में लगे हुए हैं.
आखिर ऐसे अभियानों का, कार्यक्रमों का और गोष्ठियों आदि का औचित्य
क्या है? सिर्फ मतदाता को जागरूक बनाकर, अधिक से अधिक मतदान करवा कर क्या सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है?
कहीं न कहीं नागरिकों की सक्रियता के चलते, चंद
महाविद्यालयों, विद्यालयों के विद्यार्थियों के संख्याबल से,
प्रशासनिक मातहतों के ज़रिये प्रशासन अधिक मतदान पर चुनाव आयोग के सामने
अपनी पीठ खुद ठोंक लेता है. इसके अलावा कुछ और परिवर्तन होता नहीं दीखता है. बदलाव
की जिस पहल की बात की जा रही है, वो देखने को नहीं मिलती है;
मतदाताओं को उसकी शक्ति, उसके अधिकारों का जो झुनझुना
पकड़ाया जाता है उसमें स्थायित्व नहीं दीखता है. आखिर जब तक चयन के लिए सही लोग सामने
नहीं आयेंगे, तब तक अधिक मतदान से क्या मिलने वाला है?
चुनाव आयोग जिस तरह से अधिक मतदान के लिए, निष्पक्ष
मतदान के लिए, मतदाता जागरूकता के लिए कमर कसे रहता है,
उसी तरह राजनैतिक दलों के लिए भी उसे मुस्तैद होना पड़ेगा.
आखिर अधिक से अधिक मतदान करना ज्यादा उपयुक्त है या फिर
सही व्यक्ति को मतदान करने की आवाज़ उठाना ज्यादा उपयुक्त है? आज जिस तरह
से धर्म-मजहब के आधार पर, जातिगत आधार पर, क्षेत्रगत आधार पर मतदान होने लगा है उससे अधिक से अधिक मतदान का औचित्य समझ
नहीं आता है. मतदाता को शक्तिशाली, सत्ता बदलने वाला भले ही बताया
जाता हो किन्तु उसके अधिकार, उसकी शक्ति बस उसी समय तक काम करती
है जबकि वो मतदान करने के लिए बटन दबाता है. उसके बाद उसके हाथ में न तो अपने प्रतिनिधि
को वापस बुलाने का अधिकार होता है और न ही उसके स्थान पर किसी और को सदन में भेजने
का. ठगा सा खड़ा रहकर बस वो अगले चुनाव का इंतज़ार करता है. जागरूक होकर मतदाता जब मतदान
स्थल पहुँचता है तो उसे वही भ्रष्ट, अपराधी, सुस्त, कामचोर प्रवृत्ति के प्रत्याशी दिखाई देते हैं.
ऐसे में उसके जागने का क्या अर्थ निकला? ऐसे में नोटा जैसा विकल्प
भी उसके किसी काम का नहीं होता. शातिर प्रत्याशी ऐसे में और आगे निकल जाता है. अब मतदाताओं
के जागने की नहीं, मतदाताओं को जागरूक करने की नहीं वरन राजनैतिक
दलों को, राजनीतिज्ञों को जागरूक करने की आवश्यकता है. उनको इसके
लिए जागरूक करने की जरूरत है कि वे निष्पक्ष छवि के लोगों को, जनप्रिय लोगों को, ईमानदार लोगों को चुनाव मैदान में
उतारें. उनको इसके लिए जागरूक करना होगा कि वे दल-बदलुओं को टिकट न दें; इसके लिए भी जागरूक करना होगा कि शराब, धन-बल,
बाहू-बल से वोट खरीदना बंद किया जाये; उनको इसके
लिए भी जागरूक करना चाहिए कि कम से कम धन-खर्च में इस लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को संपन्न
कराएँ. क्या कोई रास्ता है अथवा मतदाताओं को जागरूक करने का ढोल पीटा जाता रहेगा;
मतदाता जागरूकता अभियान निपटाया जाता रहेगा और जागरूक मतदाता उसी तरह
से कई चोरों में एक चोर को, अनेक भ्रष्टों में एक भ्रष्ट को,
तमाम अपराधियों में एक अपराधी को चुनता रहेगा.
जागरूक होकर मतदाता जब मतदान स्थल पहुँचता है तो उसे वही भ्रष्ट, अपराधी, सुस्त, कामचोर प्रवृत्ति के प्रत्याशी दिखाई देते हैं. ऐसे में उसके जागने का क्या अर्थ निकला? ऐसे में नोटा जैसा विकल्प भी उसके किसी काम का नहीं होता. शातिर प्रत्याशी ऐसे में और आगे निकल जाता है. अब मतदाताओं के जागने की नहीं, मतदाताओं को जागरूक करने की नहीं वरन राजनैतिक दलों को, राजनीतिज्ञों को जागरूक करने की आवश्यकता है. उनको इसके लिए जागरूक करने की जरूरत है कि वे निष्पक्ष छवि के लोगों को, जनप्रिय लोगों को, ईमानदार लोगों को चुनाव मैदान में उतारें.
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