ये संभवतः अपने आपमें हास्यास्पद प्रतीत हो कि इक्कीसवीं सदी में विचरण करता मानव
आज भी कबीलाई संस्कृति में निवास कर रहा है. आवश्यक नहीं कि कबीलाई संस्कृति में
निवास करने के लिए जंगलों, गुफाओं, कन्दारों, पेड़ों आदि पर रहा जाए. ये भी आवश्यक
नहीं कि इस संस्कृति का होने के लिए नग्नावस्था में विचरण किया जाये या फिर पशुओं
की खाल, घास-पत्तियों के द्वारा अपने शरीर को ढँका जाए. दरअसल कबीलाई संस्कृति
अपने आपमें एक प्रकार की सामाजिक स्थिति थी, जिसे तत्कालीन समाज में मान्यता
प्राप्त थी. संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेना, धनलोलुपता में अपने ही सगे रिश्ते-नातों का
खून बहा देना, राह चलती महिलाओं के साथ दुराचार करना, बच्चियों तक को अपनी हवस का
शिकार बना लेना, अपनी ही सगी बेटियों-बहनों से शारीरिक सम्बन्ध बनाने लगना, आपस
में विश्वासघात कर बैठना, दोस्ती को दुश्मनी में बदल देना, इंसान होकर भी इंसानों
का शोषण करना, उनको गुलाम बनाना, उनके साथ अमानुषिक कृत्य करना, अमानवीयता दिखाना
आदि-आदि ऐसा कुछ है जो इंसान के कबीलाई मानसिकता रखने को सिद्ध करता है. अपने आसपास
धर्म, मजहब, क्षेत्र, भाषा, बोली आदि के छोटे-छोटे दल बना रखे हैं. इन छोटे-छोटे दलों के द्वारा वह कभी धर्म
के नाम पर हंगामा खड़ा करता है तो कभी क्षेत्र के नाम पर उत्पात मचाता है. कभी उसके
लिए बोली विवाद का विषयवस्तु बन जाती है तो कभी वह इंसानी गतिविधि को ही आक्रामकता
के दायरे में समेट लेता है. इंसानी
गतिविधियों को, उसके क्रियाकलापों को देखने के बाद लगता नहीं है कि ये उसी देश के
वासी हैं जहाँ गंगा-जमुनी संस्कृति का बखान अनेकानेक महामनाओं ने किया है.
मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती जैसे गीतों को गाने वाले इस देश
में ऐसे-ऐसे लोग जन्म ले रहे हैं जो किसी आतंकी को महज इसलिए शहीद बताने में लगे
हैं क्योंकि वो एक मजहब विशेष से सम्बंधित था. मेरा रंग दे बसंती चोला गाते-गाते
फांसी के फंदे को चूम लेने वाले भगत सिंह के सामने उस व्यक्ति को खड़ा किया जा रहा
है जिसने खुलेआम देश की बर्बादी के नारे लगाने वालों का साथ दिया. क्या विद्रूपता
है कि एक विद्यार्थी को जबरन दलित बता कर उसकी आत्महत्या पर राजनीति की जाती है
वहीं सैकड़ों किसानों की आत्महत्याओं पर किसी के द्वारा संवेदना प्रकट नहीं होती,
किसी के पुरस्कारों की वापसी नहीं होती है. जिस देश में भारतमाता की जय के नारे पर
राजनीति होने लगे, जहाँ सूर्य नमस्कार पर राजनीति की जाने लगे, जहाँ योग को मजहब
विरोधी बताया जाने के पीछे राजनैतिक साजिश दिखे, जहाँ तिरंगा लहराने पर पुलिस
लाठियाँ भाँजे, जहाँ देश विरोधी नारे लगाने वालों के समर्थन में बुद्धिजीवी सड़कों
पर उतरने लगे, जहाँ राजनैतिक विरोध दर्शाने के लिए किसी आतंकी लड़की को बेटी बनाने की
होड़ दिखाई देने लगे वहाँ सोचा जा सकता है कि स्थितियाँ कितनी विस्फोटक, कितनी
विध्वंसक, कितनी अराजक होती जा रही हैं.
आज भी समाज का एक बहुत बड़ा तबका इन सबसे ऊपर उठकर आपसी समन्वय से, सौहार्द्र
से, सहयोग से, प्रेम-स्नेह से साथ रहना चाहता है. एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च आदि की राजनीति में नहीं पड़ना चाहता है. एक बहुत
बड़ा वर्ग ऐसा है जिसके लिए भाईचारा, सामाजिक सौहार्द्र ही सबसे बड़ी पूजा है, सबसे
बड़ी इबादत है. इसके साथ ही समाज में एक ऐसा वर्ग है जिसका उद्देश्य देश के अमन-चैन
में खलल पैदा करना है. ऐसे लोगों की मानसिकता लोगों को धर्म, मजहब, जाति, क्षेत्र
के खाँचे में बाँटकर समाज का विघटन करवाना है. इन तमाम सारी संदिग्ध भूमिकाओं के
बीच खुद इंसान की भूमिका को भी संदेह से मुक्त नहीं किया जा सकता है. इसका कारण
महज इतना है कि यदि हम इंसान ही आपस में विवाद पैदा करने के लिए, वैमनष्यता फ़ैलाने
के लिए, आपसी खून बहाने के लिए आगे नहीं आयेंगे तो उन फिरकापरस्त ताकतों के किये
धरे कुछ होने वाला नहीं है.
आज आम धारणा है कि किसी भी घटनाक्रम के लिए राजनेताओं को, राजनीति को,
राजनैतिक दलों को सीधे-सीधे आरोपित कर दिया जाता है. ऐसा करने हम सभी लोग
अपनी-अपनी भूमिकाओं को छिपा लेना चाहते हैं. अपने-अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ने का
काम करने लगते हैं. सवाल उठता है कि आखिर तरक्की पसंद इंसान क्यों लोगों के भड़काने
में आ जाता है? क्यों उसके द्वारा धर्म-मजहब की राजनीति की जाने लगती है? क्यों वह
खुद को फिरकापरस्त ताकतों के बनाये हुए खाँचों में खुद को फिट करने लगता है? क्यों
नहीं सब मिलकर ऐसी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देते हैं? क्यों नहीं सब मिलजुलकर
एक-दूसरे की रक्षा करने को आगे आते हैं? क्यों नहीं सभी शिक्षित इंसान निरक्षर
इंसानों को सही-गलत की जानकरी देने सामने आते हैं? स्पष्ट है कि हम सारे इंसानों
के भीतर बैठा एक कबीला ऐसे समय में जाग जाता है. उसके अन्दर निवास करता हिंसक
जानवर ऐसे माहौल में अपने आपको सशक्त महसूस करने लगता है. उसके अंदर की लहू पीने
की प्यास और तेजी से भड़कने लगती है. चाँद, मंगल, अंतरिक्ष तक का सफ़र करने के बाद
भी इंसान अपने भीतर विराजमान कबीले को, उसमें निवास करते जानवर को मार नहीं पाया
है. यही कारण है कि मौका मिलते ही वह अपने मूल रूप में सामने आ जाता है, अपनों को
मिटाने लगता है, अपनों का खून बहाने लगता है, रिश्तों का सर्वनाश करने लगता है. यहाँ
समझने की आवश्यकता है कि नितांत स्वार्थमयी सोच के कारण यदि उसने अपने आपको
कठपुतली बनने से नहीं रोका तो समाज में चारों तरफ धमाके सुनाई देंगे, लहू के दरिया
बहते दिखाई देंगे, नौनिहाल रोते-बिलखते मिलेंगे. आने वाले सुखद समय के लिए,
सामाजिक सौहार्द्र के लिए, स्नेहिल वातावरण के लिए हम सबको, हम इंसानों को आज ही
जागना होगा. कल तो बहुत देर हो चुकी होगी.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "बस काम तमाम हो गया - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति ।
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