सड़क की भीड़-भाड़ के बीच रिक्शा आहिस्ते-आहिस्ते आगे बढ़ता जा रहा है. रिक्शे पर कोई सवारी नहीं, उसे चलाने वाला कोई बड़ी उम्र का व्यक्ति नहीं वरन दो छोटे-छोटे मासूम से बच्चे हैं. उनकी उम्र बमुश्किल १२-१३ वर्ष की रही होगी. वे रिक्शा चला क्या रहे थे, एक प्रकार से उसे धकेल सा रहे थे, खींच सा रहे थे. अपनी उम्र और शारीरिक आकार से कहीं बड़ा रिक्शा लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ते उन बच्चों को देखकर किसी को आश्चर्य भी नहीं होता है. सब निस्पृह भाव से अपने-अपने कामों में लगे हुए हैं. सब अपने-अपने गंतव्य की ओर चले जा रहे हैं. न केवल सड़क पर अपनी-अपनी गतिविधियाँ करने वाले वरन सड़क के किनारे दुकान लगाये लोग, रेहड़ी, हथठेला लगाये लोग भी अपनी-अपनी गतिविधियों में निमग्न हैं. जिस तरह ये सब लोग उन दोनों लड़कों की तरफ से अनजान बने हुए हैं, उसी तरह से वे दोनों बच्चे बाकी सबकी गतिविधियों पर किसी तरह का ध्यान नहीं दे रहे हैं. बहुत ही धीमी गति से, रुक-रुक कर आगे बढ़ते बच्चे अपने रिक्शे में सवारी की जगह दो बड़े-बड़े बोरे रखे हुए हैं. सड़क किनारे, दुकानों के सामने कूड़े के ढेर को देखकर, सड़क पर बिखरी पड़ी कबाड़ सामग्री देखकर उसमें से अपने मतलब का सामान उठा-उठाकर उसे अपने बोरे में भरते जाते. कबाड़ उठाना, उसमें से अपने मतलब का सामान छाँटना, उसे बोरे में भरना और फिर आगे बढ़ जाना. नितांत मशीनी प्रक्रिया से सबकुछ क्रमबद्ध रूप से चलता जा रहा है. उन बच्चों के चेहरे पर न कोई हावभाव, आँखों में न कोई चमक, होंठों पर कोई मुस्कान भी नहीं. नितांत प्रौढ़ता ओढ़े वे दोनों बच्चे अपने जीवन को संचारी भाव देने के लिए धनोपार्जन हेतु सड़क पर, सड़क किनारे बिखरे पड़े कबाड़ को उठाते, समेटते जा रहे हैं.
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ये नजारा किसी एक दिन नहीं, लगभग रोज ही दिखाई देता है. ये दृश्य किसी के शहर की कहानी नहीं वरन लगभग सभी शहरों की है. आधुनिकता से, तकनीक से, प्रौद्योगिकी से लबालब भरे समाज में आर्थिक असमानता की ये एक बानगी भर है. एक वर्ग वो है जहाँ जानवरों को सम्पूर्ण सुख-सुविधाएँ मुहैया हो जाती हैं. उनके खाने-पीने-रहने-घूमने की स्थितियाँ उन्नत रूप में विकसित हैं. उनकी देखभाल के लिए कई-कई नौकर-चाकर हाथ बाँधे चौबीसों घंटे तत्पर, मुस्तैद दिखाई देते हैं. इसके उलट एक वर्ग इसी समाज में ऐसा है जिसके पास मूलभूत सुविधाओं की घनघोर कमी है. उसके खाने-पीने-रहने की स्थितियाँ बद से बदतर हैं. ऐसे वर्ग के बच्चों के लिए न तो खेलने का समय है और न ही खेलने के साधन. पढ़ने की न तो सुविधा है और न ही पढ़ने लायक स्थितियाँ. खेलने, पढ़ने, शरारतें करने की उम्र में ऐसे बच्चे अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए कहीं कबाड़ बीनते नजर आते हैं, कहीं किसी होटल-ढाबे में काम करने दिखते हैं, कहीं भिक्षावृत्ति में लिप्त पाए जाते हैं.
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सड़क पर रेंगते-रेंगते चलता उन दोनों बच्चों का रिक्शा एक मंदिर के बाहर बने बरामदे के किनारे रुक जाता है. उनके पीछे-पीछे चलते-चलते हमारे कदम भी ठहर जाते हैं. कुछ बात की जाये या नहीं? कुछ मदद की जाये या नहीं? सोचते-सोचते उन बच्चों के पास पहुँच गए, जो अब वहीं किनारे लगे नल के पानी से मुँह धोते हुए, पानी पीते हुए आपस में हलकी-फुलकी सी चुहलबाजी करने लगते हैं. पिछले कई मिनटों की प्रौढ़ता उनके चेहरे से अब गायब दिखती है. उनके नल से हटते ही जो जानकारी ली, उससे उनकी दयनीय दशा का भान हुआ. उनकी पारिवारिक स्थिति के साथ-साथ उनके जैसे लगभग एक दर्जन बच्चों का ऐसे ही कबाड़ बीनने में लगे होने के बारे में पता चला. भयंकर गरीबी से जूझते उन परिवारों के स्त्री-पुरुषों के पास इस साल कोई काम नहीं. सूखे ने खेतों में मिलते काम को भी समाप्त कर दिया. किसी तरह का कोई तकनीकी हुनर न होने के कारण वे सब ऐसे ही अनुपयोगी कार्यों में लगे हुए हैं. दो-दो, तीन-तीन लोगों की दिन भर की मेहनत के बाद शाम को दस-दस, पंद्रह-पंद्रह रुपयों का जुगाड़ हो जाता है. जिससे फाकाकशी को कुछ हद तक टाल लिया जाता है.
बगल से तेज गति से निकलती मँहगी सी कार देखकर हमारी भी आँखें फटी रह जाती इससे पहले उड़ती धूल ने हम सबकी आँखें बंद करवा दी. लगा, कुछ ऐसा ही शासन-प्रशासन तंत्र में हो रहा है. अंतरिक्ष को जाती तकनीक की, धनिकों तक पहुँचते विकास की, बाज़ार से बढ़ती चकाचौंध की, छुटभैये नेताओं के हूटरों की, सत्ताधारियों की लाल-नीली बत्तियों की, बाहुबलियों की धमक की उड़ती धूल ने सभी की आँखें बंद करवा दी हैं.
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(चित्र लेखक द्वारा निकाला गया है) इस ब्लॉग की ये 975वीं पोस्ट....
आपने लिखा...
जवाब देंहटाएंकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 12/04/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 270 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।