09 नवंबर 2015

अंधकार मिटाने में असफल आतिशबाजी

दशहरे पर रावण का पुतला जलाने के साथ आतिशबाजी चलाने की जो शुरुआत होती वो दीपावली गुजर जाने के बाद भी लगभग एक सप्ताह तक चलती रहती. आश्चर्य होता है आज के बच्चों को ये सुनकर कि हम बचपने में बीस-पच्चीस दिनों तक दीपमालिके पर्व का आनंद पूरे उल्लास से मनाते रहते थे. दशहरा का आना अपने आपमें सूचक होता था कि अब रौशनी का, आतिशबाजी का, पटाखों का पर्व आ गया है. छोटे-छोटे हाथों में नन्ही सी पिस्तौल और उसमें आगे बढ़ती पटाखे की रील का अपना ही अजब जादू था. तब हमारे शहर में आतिशबाजी विक्रय हेतु अलग से स्थान निर्धारित नहीं किया गया था. छोटा सा शहर, कम आबादी, छोटा सा बाज़ार और उसी बाज़ार में सजी हुई आतिशबाजी की दुकानें. दिन के तेज उजाले में भी इन दुकानों की अपनी साज-सज्जा, बिजली के बल्बों की झालर बालमन को लुभाती थी. अनार, फुलझड़ी, राकेट, बम आदि के रंग-बिरंगे डिब्बे अपनी ओर आकर्षित करते. स्कूल से घर वापसी में रुक-रुक कर इन दुकानों को निहारना, मन ही मन में तय करना कि इस बार पिताजी से किस आतिशबाजी को मंगवाने की जुगत लगाना है आज भी रोमांचित कर जाता है.
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रोज रात को सोते समय एक दिन कम होने की ख़ुशी होती और अगली सुबह इस बात की प्रसन्नता कि आज लौटते में कोई नई आतिशबाजी, कोई नए पटाखे को दीपावली के लिए चुना जायेगा. दिन गिनते-गिनते, आतिशबाजी चुनते-चुनते दीपावली पर्व की आहट सुनाई देने लगती. धनतेरस को सजा हुआ बाज़ार, बर्तनों की, इलेक्ट्रॉनिक सामानों की इक्का-दुक्का दुकानों की सजावट पूरे बाज़ार को खुशनुमा बना देती. आज की तरह बाइक्स का तेज़ रफ़्तार दौड़ना नहीं होता था, लोगों की भीड़ में आज की तरह की अंधाधुंध स्थिति नहीं थी और वो एक-दूसरे से धक्कामुक्की करती नहीं दिखती थी, बाज़ार में टहलते-घूमते लोगों में अनजानापन नहीं था सबके बीच अपनत्व सा दिखाई देता था, कोई गले मिल बधाइयों का आधान-प्रदान करते मिल जाता, बाज़ार में कोई बड़े-बुजुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने में शर्म महसूस नहीं करता था, कोई स्नेह से सिर पर हाथ फेरता हुआ सुखी जीवन का आशीष देकर आगे बढ़ जाता. धनतेरस पर दिखावे के लिए खरीददारी न होकर बस शगुन के नाते हलकी-फुलकी खरीददारी परिवार के बड़े लोगों द्वारा कर ली जाती और हम बच्चे जगमगाती दुकानों को देखते-निहारते दीपावली पर पटाखे फोड़ने की योजना बनाने में लग जाते. लईया, खीलें, गट्टे, मिट्टी के दिए, पटाखे आकर हम बच्चों के उत्साह को और बढ़ा जाते. परिवार के अन्य सदस्यों का आना त्यौहार के उत्साह को चार चाँद लगा देता.
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अंततः दीपावली की अंधियारी रात आती है जिसका अंधकार मिटाने को मिट्टी के दिए छतों की चहारदीवारी पर सज जाते. किसी-किसी घर पर बिजली के बल्बों की रौशनी कौंधती दिखती. गणेश-लक्ष्मी पूजन के साथ हम बच्चों का धमाल शुरू हो जाता. आतिशबाजी की, दीयों की, मोमबत्तियों की, पटाखों की रौशनी और शोर में अमावस का अँधेरा कहीं दूर छिप जाता. पटाखे छोड़ने की उमंग देर रात तक आसमान को छूती रहती, बिना किसी दवाब के, बिना प्रशासनिक आदेश के पटाखों का शोर स्वतः स्फूर्त रूप से थम जाता और रात सर्दी के आगोश में सोने चली जाती और हम बच्चे भी अपनी-अपनी रजाइयों में सिमटने लगते. नींद से बोझिल होती आँखें बार-बार बंद होने को झुकती मगर दिमाग में सुबह उठकर अधचले पटाखों को बटोरने की योजना बन रही होती. कहाँ-कहाँ कौन सा पटाखा नहीं फूट सका था, छत पर चली पटाखों की कौन सी लड़ी अधूरी ही चल सकी थी, नमी के चलते किस फुलझड़ी ने अपने आधे ही रंग बिखेरे थे इन सबका हिसाब-किताब लगाते-लगाते कब नींद आ जाती और कब सुबह की हलकी ठंडक में हम बच्चे छत पर अधचले पटाखों को खोज रहे होते पता ही नहीं चलता.

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अब नितांत औपचारिकताओं में त्यौहार सिमटा दिए गए हैं. संबंधों में, रिश्तों में पहले की तरह गर्माहट नहीं दिखाई देती है, बाज़ारों में अपनत्व कम कटुता ज्यादा देखने को मिलने लगी है, सामान की खरीददारी करने वाली निगाहों से ज्यादा देहयष्टि को घूरने वाली नजरें ज्यादा हो गईं हैं, कदम-कदम पर अपनों से ज्यादा  खाकी वर्दी वाले डंडा लिए दिखाई देते हैं, बाज़ार की जगह सिकुड़कर इतनी छोटी हो जाती है कि जगह होने के बाद भी जबरन धक्का-मुक्की किये जाने का एहसास होता है. विदेशी सामानों के बीच आज भी कई-कई छोटे बच्चे-बच्चियाँ साँचे में ढले गणेश-लक्ष्मी, मिट्टी के दिए, रुई, मोमबत्तियाँ आदि बेचते दिखते हैं मगर मशीनों से निर्मित चमकते-दमकते गणेश-लक्ष्मी की भव्य मूर्तियों के आगे स्टाइलिश दीयों के आगे, डिजाइनर मोमबत्तियों के सामने, अजब-गजब रूप से चमक बिखेरती झालरों के सामने इनका अंधकार ज्यों का त्यों रहता है. हर एक पटाखे के फूटने के साथ, हर एक दिया रौशनी बिखेरने के साथ, हर बार और अकेले त्यौहार मनाने के साथ एहसास होता है कि मंहगाई सामानों में ही नहीं आई है संबंधों में, रिश्तों में भी आई है; अंधकार सिर्फ अमावस की रात को ही घना नहीं हुआ है बल्कि अपनत्व में, स्नेह में भी घनीभूत होकर छा गया है. काले आसमान में रौशनी बिखेरती आतिशबाजी, घर की छत पर चमक बिखेर कर शांत हो जाते दिए, मकान की दीवारों से लिपटी विदेशी झालरें अपनी क्षणभंगुर चमक से एक पल को तो अंधकार दूर कर देती हैं किन्तु समाज में लगातार बढ़ते जाते अंधकार को दूर नहीं कर पा रही हैं.  
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