कक्षा दो में पढने वाले, १०-११ वर्ष के बच्चे द्वारा खुद
को बाथरूम में बंद करके आग लगाके आत्महत्या कर ली जाए तो इसे मात्र एक हृदयविदारक
घटना ही न समझा जाए. आज के परिप्रेक्ष्य में इस घटना के कई सन्दर्भ निकाले जा सकते
हैं. इस तरह की घटनाएँ हमारे आसपास बहुसंख्यक रूप से हो रही हैं, जिनमें छोटे-छोटे
बच्चे अपने जीवन को अकारण ही समाप्त करते दिख रहे हैं. इन घटनाओं के पीछे के
कारणों को देखने पर ऐसा कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता जिसके कारण आत्महत्या जैसा कदम
उठाया जाए.
इन घटनाओं के मूल में जाने के पहले ही सम्बंधित पीड़ित
परिवार का, आस-पड़ोस वालों का विश्लेषण करना शुरू कर दिया जाता है. परिवार की,
माता-पिता की, स्कूल की, शिक्षकों की, दोस्तों की गलतियों के सहारे आत्महत्या के
निष्कर्ष खोजे जाने लगते हैं. देखा जाए तो ऐसी घटनाएँ बाल-मनोविज्ञान के दायरे में
आती हैं. इस बात को समझना और जानना बहुत ही आवश्यक है कि आखिर एक बच्चे के द्वारा
आज माता-पिता की डांट, स्कूल में शिक्षकों के द्वारा दण्डित किया जाना, मित्रों
द्वारा आपसी हंसी-मजाक को इतनी गंभीरता से क्यों लिया जा रहा है कि उसे अपनी
जीवनलीला समाप्त करने जैसा कदम उठाना पड़ा. इन तमाम बातों को समझने के बजाय
संस्कृति, सभ्यता, संस्कार की बात करनी शुरू कर दी जाती है. इन शब्दों को लेकर आज
विद्रूपता का आलम ये है कि इन्हें पुरातनकालीन, फूहड़ता की निशानी समझकर बच्चों के
सामने प्रस्तुत ही नहीं किया जा रहा है. बच्चों को ये किसी भी रूप में नहीं समझाया
जा रहा है कि माता-पिता, शिक्षकों द्वारा उनको किसी भी गलत काम के लिए रोकटोक उनकी
स्वतंत्रता को बाधित करना नहीं है बल्कि उनके सर्वांगीण विकास के लिए एक सशक्त कदम
है.
इसके अलावा आज की जीवनशैली, जिसमें सिर्फ और सिर्फ ‘मैं’
के लिए स्थान रह गया है, भी बच्चों के अन्दर हताशा, निराशा, आक्रोश पैदा कर रही
है. सबके बीच रहकर भी बच्चा स्वयं को नितांत अकेला महसूस करता है. खेलने के लिए
पार्कों के स्थान पर बनती बहुमंजिला इमारतें, खुलते चमक-दमक से भरे मॉल दिखाई दे
रहे हैं. बच्चों के आपस में मिलजुल कर खेलने का स्थान वीडिओ गेम, कंप्यूटर, मोबाइल
पर गेम आदि ने ले लिया है. हँसते-खेलते, धमाचौकड़ी करते, उठापटक करते बच्चों के
स्थान पर प्रौढ़ बच्चे दिखाई देने लगे हैं, जिनका दिमाग चौबीस घंटे अधिक से अधिक
अंक पाने की भूलभुलैया में भटकता रहता है. माता-पिता या घर-परिवार के बड़े बच्चों
के साथ खेलने के बजाय सोशल मीडिया में आभासी क्रांति करते घूम रहे हैं. बच्चों की
खुशियों के स्थान पर अपनी लाइक-कमेन्ट की चिंता में मगन हैं. बच्चों में धैर्य,
आत्मविश्वास, संस्कार स्थापित करने के स्थान पर वे अपने बैंक-बैलेंस को बढ़ाने में
लगे हैं. बच्चों के साथ सहयोग की भावना दर्शाने के स्थान पर पति-पत्नी का आपस में
बदजुबानी करना प्रदर्शित किया जा रहा है.......ऐसा नहीं कि ये सभी घरों की समस्या
है पर बहुतायत घरों-परिवारों में आज ये समस्या देखने को मिल रही है.
ऐसे माहौल में जबकि बच्चे को अपनी परेशानी, अपनी निराशा,
अपनी हताशा, अपनी समस्या के निपटारे के लिए कोई रास्ता नहीं दीखता है, कोई अपना
नहीं दीखता है तब वह घनघोर रूप से एकाकी महसूस करता हुआ खुद को जीवन समाप्ति की
तरफ ले जाता है. आखिर अपने एकाकी पलों में उसका दोस्त, उसका सहारा या तो टीवी होता
है या फिर इंटरनेट...और इन माध्यमों से कितनी सार्थक सोच, कितनी सार्थक विचारधारा,
कितनी सार्थक संस्कृति हमारे घरों में प्रवेश कर रही है अथवा कर चुकी है, कहने
की-बताने की आवश्यकता नहीं. अपने बच्चों के बीच बिना बैठे, उनके साथ बिना खेले,
उनके मनोभावों को बिना बांटे हम बच्चों को बचाने में लगभग असफल ही रहेंगे. अच्छा
हो कि दूसरों का कुछ बेवजह का शेयर करने के साथ अपना समय हम अपने बच्चों के साथ
शेयर करें जिससे हम उनके हँसते-खेलते बचपन में अपना बचपन देख सकें....अपने बच्चों
का जीवन सुरक्षित रख सकें.
आज की ब्लॉग बुलेटिन गुड ईवनिंग लीजिये पेश है आज शाम की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पोस्ट | सादर
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
फेसबुक पर आपके स्टेटस पर इस घटना के बारे मे जान बहुत अजीब लगा ...
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट मे आपने काफी हद तक मामले को छुआ है ! एक सार्थक पोस्ट !