वर्ष 2012 ने जाते-जाते देश को हिला देने वाली दो घटनाओं से परिचित करवा दिया। दिल्ली
में हुई गैंग रेप की बर्बर घटना और उस घटना के बाद देशव्यापी-विशेष रूप से दिल्ली
के युवाओं का स्वस्फूर्त रूप से बलात्कार की घटनाओं के विरोध में सड़कों पर उतर आना
अपने आपमें वे दो घटनायें हैं जिनको आसानी से भुलाया नहीं जाना चाहिए। इसके बाद भी
इन दोनों घटनाओं की तरह का एक कड़वा सत्य यह भी है कि बहुत समय नहीं,
कुछेक हफ्ते गुजरने के बाद ही इन दोनों घटनाओं को
मन-मष्तिष्क से निकाल दिया जायेगा। एक पल को मान लिया जाये कि युवाओं के आक्रोश के
चलते,
भारी जनदबाव के चलते सरकार ने कानून में व्यापक फेरबदल कर
दिया तो उसके बाद क्या भीड़ के रूप में जुटे इन युवाओं की जिम्मेवारी अथवा इन
युवाओं के जज्बे को सलाम ठोंकते लोगों का दायित्व समाप्त हो जायेगा?
क्या कानून और उसमें मान्य फाँसी की सजा ही दुराचारियों के
मन में भय पैदा कर पायेगी? महिलाओं के साथ होते दुराचार को रोकने में सक्षम हो पायेगी?
ये और इनके जैसे बहुत से सवाल हैं जो हमारे आसपास तब तक
उमड़ते-घुमड़ते रहेंगे, जबतक कि हम स्वयं जागरूक होकर अपने-अपने दायित्व-बोध को
समझने का प्रयास नहीं करेंगे।
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पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए बिना विचार किया जाये तो आज जो युवा सड़कों पर अपना
जोश दिखाकर कानून में बदलाव की माँग कर रहे हैं, तमाम लड़कियों के लिए इंसाफ की माँग कर रहे हैं,
उनमें से अधिसंख्यक युवा अपने-अपने मनपसंद जोड़ों के साथ
नववर्ष का जश्न मनाते हुए कहीं न कहीं रातों को रंगीन करने में मस्त रहेंगे। ऐसा
नहीं है कि ऐसा करना गलत है पर क्या उन युवा जोड़ों ने कभी भी एक बारगी भी इस बात
पर विचार किया है कि उनका एक गलत कदम किस तरह से दुष्परिणाम ला सकता है। हमारे
समाज में एक-दो नहीं सैकड़ों घटनायें मद में चूर युवा लड़के-लड़कियों द्वारा इस तरह
की हो जाती हैं कि उनके सामने सिर झुकाने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं रह जाता
है। आये दिन किसी पब में लड़के-लड़कियों का पकड़ा जाना, अवैध रूप से मनाई जा रही रेव पार्टियों से जोड़ों को पकड़ना,
लड़के-लड़कियों द्वारा साजिश करके अपने ही साथी के साथ
शारीरिक सम्बन्धों का बनावाया जाना प्रकाश में आता रहा है। ऐसे जोड़ों को क्या यह
भी भान नहीं होता है कि वे किस रास्ते पर जा रहे हैं अथवा उनकी देह की परिभाषा
क्या और कितनी है? स्कर्ट से ऊँची मेरी आवाज, मेरी देह, मेरा अधिकार के (अ)क्रान्तिकारी नारों ने लड़कियों को
दिग्भ्रमित किया है तो कुत्सित मनोवृत्ति के लड़कों को अपराध के लिए उकसाया है।
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ऐसा नहीं है कि सारा दोष युवा-वर्ग का ही है, कहीं न कहीं उसके पीछे उस पीढ़ी का भी दोष है जो स्वयं को
इनका अभिभावक कहती घूमती है और कुछ हजार-लाख रुपयों का बन्दोवस्त करना अपने
कर्तव्य की इतिश्री समझती है। दरअसल आधुनिक बनने की, दिखने की अंधी दौड़ में अधिसंख्यक माता-पिता इस बात को
विस्मृत कर चुके हैं कि उनके बेटे-बेटी किस दिशा में जा रहे हैं। अधिकांश
माता-पिता अपने युवा बेटे-बेटियों के देर रात लौटने पर चिन्तित नहीं होते,
उनके बच्चों के आये दिन बनने-बिगड़ने वाले अफेयर के किस्से
उनको गर्व की उपलब्धि करवाते हैं, उनके विपरीत लिंगी साथी के बारे में बात करके ये माता-पिता
अपने आधुनिक होने का प्रमाण-पत्र अपने बेटे-बेटियों को देते हैं। ऐसे में विचार
किया जा सकता है कि हमारी युवा पीढ़ी किस आदर्श के साथ,
किस सोच के साथ आधुनिकता से भरी इस बाजार-व्यवस्था का सामना
करेगी। उनके सामने उनके अभिभावकों द्वारा इस तरह की कोई सकारात्मक सोच रखी ही नहीं
गई है जहाँ वे अपने साथ होने वाले अच्छे-बुरे को समझ सकें। उनके साथ मित्रवत
रिश्तों का दम भरने वाले अभिभावकों ने ऐसा विश्वासपरक रिश्ता बनाने की पहल ही नहीं
की है जहाँ उनके बेटे-बेटी स्वयं का सुरक्षित महसूस कर सकें।
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आज आवश्यकता इस बात की है कि बेटियों को समाज की मनोवृत्ति से परिचित तो
करवाया जाये पर उसको डरवाया न जाये। अपनी बेटियों को ऐसी विषम स्थितियों से लड़ने
की,
उनके साथ हो रहे गलत बर्ताव की जानकारी देने का साहस भरना
होगा। उन्हें समझाना होगा कि समाज के कुत्सित मनोवृत्ति के लोग किस तरह से उनका
दैहिक शोषण कर सकते हैं। दरअसल हमने अपनी बेटियों को समझाने के नाम पर,
उनको कुछ सिखाने के नाम पर उनको डराने का,
भयग्रस्त करने का ही काम किया है। उनके इस भय को निकालने के
साथ-साथ हमारा यह प्रयास अपने बेटों के प्रति भी हो कि वे समाज के प्रति,
महिलाओं के प्रति अपनी जिम्मेवारी का एहसास करें। उनके
निर्द्वन्द्व घूमने का अर्थ कदापि यह नहीं कि वे अपने तमाम साथियों के साथ मिलकर
महिलाओं को उत्पाद मानें और उनके साथ गलत बर्ताव करें। बेटों को समझाना होगा कि वे
रिश्तों का सम्मान करना सीखें, उनकी रक्षा करना सीखें और उनके आसपास भटकते कुत्सित
मनोवृत्ति के लड़कों को सामने लाने का कार्य करें।
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बलात्कार के लिए कड़े से कड़ा कानून और सजा निर्धारित होने के बाद भी दुराचारियों
की मनोवृत्ति पर तब तक लगाम लगाना सम्भव नहीं जब तक कि हमारी युवा पीढ़ी पेड़ों के
पीछे बैठकर गलबहियाँ करना, अपने माता-पिता से झूठ बोलकर देर रात पबों,
रेव पार्टियों में नशे में झूमना, देह को गोलियों और कंडोम के सहारे सहज बनाना
बन्द नहीं करेगी। इसके साथ ही आधुनिकता के वशीभूत अपने बेटे-बेटियों को झूमते
देखकर, विपरीत लिंगी साथियों के किस्से सुन-सुनकर मगन होते अभिभावकों को भी स्वयं को
जागरूक और सजग करना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो दिल्ली की सड़कों पर दिखता
आक्रोशित,
उत्तेजित युवा किसी भी रूप में सकारात्मक दिशा का प्राप्त
नहीं कर सकेगा।
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