26 नवंबर 2009

सार्थक प्रयास कर चुकीं महिलाओं के बारे में जानना-बताना अपराध हो गया

स्त्री-विमर्श से जुड़ी हुई एक पुस्तक पढ़ी थी जिसमें समूची पुस्तक को दो भागों में बाँटा गया था। उसमें से एक शीर्षक को नाम दिया गया था ‘हंगामा है क्यों बरपा थोड़ा सा जो जी लेते हैं।’ कुछ इसी तरह की बात हुई हमारी पिछली पोस्ट पर जो चोखेर बाली पर लगाई थी। भारतीय स्वाधीनता से सम्बन्धित कुछ महिलाओं के नामों के बारे में चर्चा कर ली तो हंगामा सा मच गया।

पोस्ट बाहियात है; आगे से ऐसी पोस्ट का सामूहिक बहिष्कार हो; ऐसे विचारों के लिए अलग से ब्लाग बनाने तक का सुझाव दिया गया; अलग से पोस्ट तक लिख डाली गई, क्या वाकई इतनी हंगामी पोस्ट थी? एक साहब ने तो अपनी पोस्ट के द्वारा हमारी नीयत पर सवाल उठा दिये।

यह बात एकदम सही है कि यह ब्लाग सामुदायिक ब्लाग है और सार्थक चर्चा करता है। हम भी इसी कारण से यहाँ आये थे। रही बात अपनी पोस्ट पर किसी तरह की माफी माँगने की तो किसी तरह की गलत बात नहीं कही है और न ही महिला को अपमानित किया है। इस दृष्टि से माफी माँगने का सवाल ही नहीं, हाँ यदि ब्लाग के सूत्रधार कहें तो अपने आपको बापस कर सकते हैं या फिर वो चाहें तो हमारी सहभागिता को समाप्त कर दें। हमें किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं।

रही बात हमारी समझ को लेकर तो एक बात स्पष्ट कर दें कि जो व्यक्ति नारी का सम्मान नहीं कर सकता उसे अपने मनुष्य कहलाने के बारे में सोचना होगा। महिलाओं की प्रशंसा में कुछ कह देना ही यदि स्त्री का सम्मान है तो हम उसे गलत मानते हैं। सम्मान, स्नेह दिल से उपजता है, प्रशंसा में दो-चार कविताएँ, कहानियाँ, आलेख लिख देने से नहीं।

जहाँ तक इस पोस्ट को यहाँ लगाने का हमारा मन्तव्य था तो बस इतना कि आज स्त्री-विमर्श को लेकर जिस तरह से पुरुष-विरोध का वातावरण निर्मित है, जिस तरह से एक सशक्त आन्दोलन कुछ उच्च वर्ग की महिलाओं के हाथों में सिमटकर रह गया है, उसको यह बताना था कि हमारे देश में ऐसी भी महिलाएँ हुईं हैं जिन्होंने महिलाओं की दशा को सुधारने का कार्य किया और आज उन्हें कितने लोग जानते हैं?

जहाँ तक बात है कि संघर्ष सभी के लिए चल रहा है तो क्या इस बात का कोई जवाब देगा (क्षमा करिएगा, सवाल नहीं पूछना है) जवाब नहीं, अपने मन में झाँक कर देखिए और अपने से पूछिए कि बाँदा की सम्पतपाल को जब नक्सली होने का आरोप लगाकर सताया जाने लगा तो कितनी नारीवादी समर्थक महिलाओं ने उसका साथ दिया?

किसी के ऊपर आरोप लगाना, बिना कुछ सोचे-समझे तोहमत लगा देना, बात की गम्भीरता को समझे बिना अपना निर्णय थोप देना आसान है। पोस्ट की मंशा को समझें या न समझें पर हमारी इस मंशा को समझें कि हमारा उद्देश्य नारी की महत्ता को कम करना नहीं था और न ही किसी महिला को अपमानित करने का।

रही बात आगे के लिए तो हमारा हमेशा से प्रयास रहा है कि सार्थक बहस हो। आज इतने सशक्त आन्दोलन के बाद भी, घर से बाहर निकलने की छूट के बाद भी, शिक्षा के समस्त साधन उपलब्ध होने के बाद भी लड़कियाँ पढ़ क्यों नहीं पा रहीं हैं? और एक वह समय था जब शिक्षा के साधन दुर्लभ थे और महिलाओं को घर से बाहर झाँकने भी नहीं दिया जाता था, ऐसे समय में भी महिलाएँ स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण कर रहीं थीं। क्या बतायेगा कोई भी पहली महिला स्नातक का नाम? (फिर सवाल, फिर परीक्षा)

बहरहाल टिप्पणियों को देखकर अपने मन्तव्य को स्पष्ट करना जरूरी लगा। आगे ब्लाग सूत्रधार की मर्जी।

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यही पोस्ट चोखेर बाली पर भी है

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