02 अप्रैल 2015

मौत, तू कविता नहीं हो सकती


बारिश से तबाह हो चुके किसानों में बहुत से किसानों द्वारा आये दिन आत्महत्याएँ करने की, बहुत से किसानों द्वारा सदमे से मृत्यु का शिकार होने की दर्दनाक खबरें सुनने-पढ़ने-देखने को मिल रही हैं. ऐसी खबरों से मन दुखी हो जाता है और याद आता है मौत को लेकर तमाम सारे साहित्यकारों, कवियों, दार्शनिकों का शायराना अंदाज़ में बातें करना. जिनमें कोई मौत को कविता बताकर उसका गुणगान करता है, कोई मौत को महबूबा मान उसकी वफा के किस्से सुनाता है, किसी के लिए मौत खुशनुमा के सामान है, किसी के लिए मौत वो रंगीनी है जिसके लिए व्यक्ति जिन्दगी छोड़ देता है. इस बात में कोई दोराय नहीं कि मृत्यु जीवन का अकाट्य सत्य है किन्तु इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन साहित्यिक, शायराना अंदाज़ बातों से इतर मृत्यु हमेशा कष्टकारी ही रही है. ऐसे में भले ही मौत इस नश्वर जीवन का कितना भी बड़ा सत्य क्यों न हो, हमारी दृष्टि में वह कदापि सुखद, शायराना, महबूबा जैसी नहीं हो सकती है.
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यदि हम अपने आसपास देखें तो आये दिन किसी न किसी रूप में मौत के दर्शन हो ही जाते हैं. कोई अपनी पूर्ण अवस्था प्राप्त कर मौत के आगोश में जाता है तो कोई असमय ही काल का ग्रास बन जाता है. कोई सहजता से इस संसार से विदा होता है तो कई बीमारियों से लड़ते हुए अपनी अंतिम सांस लेते हैं. कभी दुर्घटना में, कभी आपदाओं में, कभी आतंकी घटनाओं में, कभी किसी अन्य कारण से अनेक लोग मौत के मुंह में जाते हैं और शायद ही किसी व्यक्ति को किसी की मृत्यु में शायराना, महबूबा जैसा कोई स्वरूप दिखलाई दिया हो? यह बात समझ से परे है कि दुर्घटना में शिकार हुये किसी बच्चे की मृत्यु शायराना कैसे हो सकती है? किसी युवा की मृत्यु को उसकी महबूबा कैसे कहा जा सकता है? किसी आतंकी हमले में मारे गये मासूमों के लिए मौत किस तरह की कविता बनकर आती होगी? कैसे हताश-निराश किसान मृत्यु को रंगीनी समझकर उसके लिए जिंदगी त्यागता होगा? उफ!!! कितना वीभत्स और दर्दनाक है इन घटनाओं में मृत्यु का शायराना स्वरूप सोच पाना. हां, जब व्यक्ति अपने समस्त दायित्वों, कर्तव्यों का पूर्णरूप से निर्वहन कर ले, अपनी आयु की पूर्णता प्राप्त कर ले और समस्त सामाजिकताओं को सम्पन्न करने के बाद इस संसार से विदा ले तो संभव है कि उसके लिए मौत महबूबा, कविता, शायराना हो सके. इसके बाद भी यह स्थिति अपने आपमें किन्तु, परन्तु के बीच भटकती दिखती है.
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आज जबकि व्यक्ति सामाजिक रूप से अपने दायित्वों, अपने कर्तव्यों को पूर्ण कर पाने में असफल सा दिख रहा है; आपाधापी और तनाव भरी जिन्दगी में असमय ही कालकलवित होते दिख रहा है; आधुनिकता के वशीभूत व्यतीत होने वाली जीवनशैली ने व्यक्तियों की आयु को लगातार कम ही किया है ऐसे में कैसे कल्पना की जाये कि किसी की मौत भी कविता होती होगी, किसी को अपनी मृत्यु महबूबा सी दिखती होगी, किसी के लिए मौत शायराना होती होगी. जिन्दगी का सत्य यही है कि मौत एक न एक दिन आनी है और यह भी सत्य है कि मौत हमेशा ही कष्ट देती है. यह कष्ट मौत पाने वाले को, उसके परिवार वालों, परिचितों को, आसपास वालों को अवश्य ही होता है. मृत्यु के इस कष्ट को दूर करने का क्षणिक प्रयास मात्र ही उसे कविता रूप में, महबूबा रूप में, शायराना रूप में समाज के सामने रखना यथोचित समझा गया हो किन्तु अन्ततः मौत मार्मिक होती है, कष्टकारी होती है, दुखद होती है; वह चाहे किसी अपने की हो अथवा किसी गैर की; किसी वृद्ध की हो, युवा की हो अथवा बचपने की; उल्लास में, सुख में, समृद्धि में डूबे परिवार के सदस्य की हो अथवा हताशा, निराशा, अवसाद में घिरे किसी परिवार के सदस्य की हो. मौत तो आखिर मौत ही होती है, जो दर्द देती है, दुःख देती है, आँसू देती है.  

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