25 फ़रवरी 2015

थोड़ा ध्यान बुन्देलखण्ड के किसानों पर भी



भूमि अधिग्रहण मामले को लेकर अन्ना हजारे ने धरनाई दस्तक दे दी है. इसके साथ ही जेल भरो आन्दोलन की धमकी जैसा भी कुछ-कुछ कह डाला है. वे अपनी टीम के साथ पूरी तरह से ये सिद्ध करने में लगे हुए हैं कि वर्तमान केंद्र सरकार अंग्रेजों से भी ज्यादा घातक, खतरनाक है. संभव है कि अन्ना को ऐसा दिखाई दिया हो, क्योंकि पिछली बार उन्हें कांग्रेस कुछ ऐसी ही प्रतीत हो रही थी, बाद में वे उसके खिलाफ चुप्पी ही साधे रहे जो आज तक यथावत कायम है. बहरहाल भूमि अधिग्रहण का सत्य क्या है, उसके दुष्परिणाम, सुखद परिणाम क्या होंगे ये तो समय आने पर पता चलेगा किन्तु किसानों के नाम पर जिस तरह की नौटंकी जारी है वो समझ से परे है. प्रत्येक राजनैतिक दल के बड़े-बड़े नेतागण आये दिन किसी न किसी रूप में अपनी नौटंकियों से किसानों को आकर्षित करने का प्रयास करते हैं साथ ही यह भी दिखाने का नाटक करते हैं कि उनके समान किसानों का हितैषी कोई भी नहीं है.
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यद्यपि देश के लगभग हर राज्य में किसान अपनी समस्या से पीडि़त हैं और सरकारी तन्त्र द्वारा उनकी समस्याओं के समाधान की बात तो की जाती है किन्तु किसी प्रकार का समाधान उनके द्वारा होता दिखता नहीं है. बुन्देलखण्ड का क्षेत्र आज किसी भी रूप में अनजाना नहीं है. विगत कई वर्षों से पृथक बुन्देलखण्ड राज्य निर्माण की माँग उठती रही है और इस माँग के साथ विभिन्न राजनैतिक दलों ने स्वार्थसिद्धि करने के लालच में अपनी आवाज भी मिलाने की कोशिश की है. यहाँ के किसानों की स्थिति विगत कई वर्षों से बहुत खराब बनी हुई है. कृषि कार्य में अनियमितता, बैंक ऋण की समस्या, बाजार से फसल का सही मूल्य न प्राप्त होना, मजदूरी आदि के अवसरों का लगातार कम होते जाना यहाँ के किसानों की समस्या को और बढ़ाता रहा है. सरकार की ओर से किसी तरह की राहत न मिलना, उनको कृषि हेतु अनुदान न देना, बैंक ऋण में रियायत अथवा माफी न देना आदि के कारण बुन्देलखण्ड के किसान लगातार गरीबी की, बदहाली की, भुखमरी की मार को सह रहे हैं. इन समस्याओं के निस्तारण न होने से, किसानों को कोई रास्ता न दिखाई देने से वे आत्महत्या जैसा अमानवीय एवं कठोर कदम उठाने को मजबूर हो रहे हैं. बुन्देलखण्ड के किसानों द्वारा आत्महत्या का सरकारी आँकड़ा अपने आपमें चैंकाने वाला तो है ही साथ ही वीभत्स भी है. इस आँकड़े के अनुसार वर्ष 2009 में 568, वर्ष 2010 में 583, वर्ष 2011 के जनवरी से मई माह तक 519 किसानों ने मौत को चुना.
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ये आँकड़े ऐसे नहीं है जिनसे सिर्फ बुन्देलखण्ड की जनता ही परिचित हो वरन् सरकारी रूप में जारी इन आँकड़ों से समूचा देश भी परिचित हो चुका है. इसके बाद भी न तो सरकार का ध्यान इस बुन्देलखण्ड के मरते हुए किसानों की ओर जा रहा है और न ही किसी राजनेता ने इस क्षेत्र के हताश-निराश किसानों की ओर अपना ध्यान लगाने के लिए अपने कदम बढ़ाये हैं और तो और अन्ना हजारे और उनकी टीम के किसी सदस्य ने इस तरफ झांकने का प्रयास भी नहीं किया. इस तरह के असंवेदनशील-अमानवीय कदम इनकी नियति को, नीयत को स्पष्ट करती है. अन्ना का वर्तमान कदम महज राजनैतिक इस कारण और भी समझ आता है क्योंकि खुद किसानों के अनेक संगठनों ने उनका साथ देने से मना कर दिया है, उनको किसान आन्दोलनों से दूर रहने को समझाया है. बुन्देलखण्ड के अलावा अन्ना ने अपने महाराष्ट्र के विदर्भ के किसानों के लिए भी कभी धरने पर बैठने का काम नहीं किया. इससे लगता है कि वे पहले भी किसी के हाथ की कठपुतली बने हुए थे, इस बार भी बने हुए हैं. यदि अन्ना और उनकी टीम वाकई किसानों के लिए चिंतित है तो महज भूमि अधिग्रहण को लेकर नहीं, देशभर के किसानों की समस्याओं को लेकर देशव्यापी आन्दोलन करें.

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