03 अप्रैल 2013

कार्यप्रणाली और सहयोगियों के बड़बोलेपन से विश्वास गायब

केजरीवाल का अनशन और अन्ना आन्दोलन से साथ आई जनता का अनमन रहना आज के राजनैतिक परिदृश्य में विचारणीय बिंदु हो सकता है. किसी समय में सूचना का अधिकार अधिनियम के बनवाने में महती भूमिका निभाने वाले अरविन्द केजरीवाल को देशव्यापी पहचान जनलोकपाल बिल के लिए अन्ना हजारे के निर्देशन में शुरू हुए आन्दोलन से मिली. आन्दोलन की सफल परिणति न होने और केन्द्र सरकार के उदासीन रवैये के बाद केजरीवाल आम आदमी पार्टी बनाकर उसी राजनैतिक दलों को उन्हीं के रूप में जवाब देने के  लिए राजनीति के मैदान में उतर आये. इस दौरान वे लगातार अपनी सक्रियता दिल्ली में बनाये रहे और गाहे बगाहे देश के दूसरे स्थानों (विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में) भी अपनी उपस्थिति बनाने का प्रयास करते रहे.

हाल में केजरीवाल अनशन पर हैं और इस बार उनको और उनके अनशन को न तो जनता की तरफ से, न ही सरकार की तरफ से और न ही मीडिया की तरफ से विशेष महत्त्व दिया गया. केजरीवाल के इस कदम को बहुसंख्यक लोगों ने एक तरह का शिगूफा भी बताया और अपनी राजनैतिक जमीन बनाने की कवायद करार दिया. यहाँ एक बात महत्त्वपूर्ण है कि अब केजरीवाल सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में नहीं बल्कि एक राजनैतिक के रूप में सामने आये हैं. यहाँ यह भी ध्यान रखने वाला तथ्य है कि केजरीवाल कुछ वर्षों तक उस वर्ग के प्रतिनिधि रहे हैं जो इस देश में अपने आपको बुद्धि, मेधा, प्रतिभा, योग्यता आदि-आदि में सर्वोच्च समझता है और उस अहंकारपूर्ण सेवा को छोड़ने के बाद वे सामाजिक रास्ते से होते हुए उस क्षेत्र में आ पहुंचे हैं जिसके प्रतिनिधि अपने आपको देश का विधाता समझते हैं. हो सकता है कि केजरीवाल अभी उस मानसिकता को धारण न करते हों किन्तु वे अपने हर कदम की अहमियत को, उसके परिणाम का आकलन अवश्य ही कर लेते होंगे. उनका ध्यान अभी पूरी तरह से अपनी पार्टी को लोगों के बीच स्थापित करने पर, उसकी स्वीकार्यता को सिद्ध करने पर ही होगा. 

देखा जाये तो केजरीवाल अनशन के द्वारा, दिल्ली में बिजली, पानी के मुद्दे पर होते आये उनके छुटपुट आंदोलनों के द्वारा अपनी राजनैतिक जमीन को ठोस करने के मूड में हैं. ये बात वे और उनके राजनैतिक मित्र/सहयोगी भी जानते-समझते हैं कि जिस जनलोकपाल बिल को पारित करवाने के साथ उनका आन्दोलन शुरू हुआ था उस अकेले के सहारे राजनैतिक सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती है. इसके साथ ही वे यह भी जानते हैं कि हाल ही में जन्मे दल के द्वारा समूचे देश में अपनी उपस्थिति को बनाया नहीं जा सकता है और वो भी तब जबकि आम आदमी पार्टी का वजूद अभी छोटे-छोटे शहरों, कस्बों में नहीं बन सका है. उनके इन तमाम सारे क़दमों का विरोध करना राजनैतिक दलों की मजबूरी तो हो सकती है किन्तु जो कहा करते थे कि राजनीति में स्वच्छ छवि के लोगों को आना चाहिए, उनके द्वारा इन क़दमों का विरोध होना केजरीवाल की क्षमता को, उनकी स्वीकार्यता को, उनके दल की स्वीकार्यता को संदेह के घेरे में खड़ा करता है. हम सभी को ये ध्यान रखना होगा कि केजरीवाल अपने आन्दोलन के द्वारा, अपने क़दमों के द्वारा उस राजनीति की दिशा बदलने की कोशिश में लगे हैं जिसके द्वारा समाज के लगभग सभी वर्ग (राजनैतिक लाभ लेने वाले वर्ग को छोड़कर) प्रताड़ित, शोषित दिख रहे हैं. हो सकता है कि केजरीवाल का तरीका गलत हो किन्तु एक अकेले व्यक्ति ने चंद लोगों के सहारे से देश में विकृत होती राजनीति की दशा-दिशा बदलने की कोशिश की है. हम भले ही उसके साथ अनशन में किसी कारण से खड़े न हो सकें किन्तु उस व्यक्ति की हौसलाफजाई करें, उसके क़दमों को लड़खड़ाने से रोकें, उसके गलत निर्णयों को सही करने की, उसको सही रास्ता दिखाने की कोशिश करें. 

यहाँ इसी अंतिम बात में कटु सत्य है कि भले ही केजरीवाल स्वच्छ, स्पष्ट और नेकनीयत के मालिक हों किन्तु जिस तरह से उन्होंने और उनके सहयोगियों ने भ्रष्ट राजनीति को स्वच्छ राजनीति में बदलने के लिए कतिपय क्षुद्र राजनीति का परिचय दिया है, अहंकार का परिचय दिया है, तानाशाही व्यक्तित्व का दर्शन करवाया है और इसी सबने/ इन्हीं सबने केजरीवाल का विश्वास आम जनता के बीच से उठवाया है, उनके सार्थक क़दमों को शिगूफा घोषित करवाया है, उनकी भलमानसता को भी स्वार्थी बताया है. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वही राजनीति इनके द्वारा भी देखने को मिली जैसी कि बाकी कथित धर्मनिरपेक्ष दल कर रहे हैं. खुद को मीडियामोह में फँसाकर ऊलजलूल बयान देने शुरू कर दिए. यदि केजरीवाल इस भूल भुलैया से बाहर निकल पाते हैं तो शायद फिर वही विश्वास, वही सहयोग हासिल कर पायें जो अन्ना आन्दोलन में प्राप्त किया था.

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