02 मार्च 2010

होली बस हो ली......आइये कुछ समझने का प्रयास करें

पता नहीं ये चलन समाज के लिए अच्छा संकेत है अथवा नहीं कि अब त्यौहारों में उतनी भव्यता नहीं दिखती, आत्मीयता नहीं दिखती जो पहले कभी रहा करती थी। इस बार होली का आयोजन बहुत ही फीका सा रहा। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में त्यौहारों पर औपचारिकता का निर्वहन अधिक होने लगा है और आत्मीय वातावरण समाप्त सा होता दिखता है किन्तु इस बार ही होली ने तो चौंका ही दिया।


अपने मित्रों से रोजना की आम चर्चा के दौरान भी इस विषय पर बात हुई किसी ने मँहगाई, किसी ने सम्बन्धों के निर्वहन, किसी ने आदमी की मानसिकता आदि-आदि को इसका कारण बताया। सम्भव है कि इनके अलावा भी और कई दूसरे कारण होंगे किन्तु हमें यह भी याद रखना चाहिए कि त्यौहारों का आयोजन क्यों होता था?
आप स्वयं विचार कीजिए कि क्या त्यौहारों का आयोजन मात्र इस कारण होना चाहिए कि हम फोन, मोबाइल के द्वारा, मोबाइल के संदेश द्वारा, इंटरनेट के माध्यम से बधाई, शुभकामनाएँ भेज सकें? हमारी समझ से तो समाज का विकास और उस विकास में पर्व-त्यौहारों का आयोजन मात्र शुभकामना संदेशों के आदान-प्रदान के लिए तो नहीं ही रहा होगा।
हम अपने सामाजिक वातावरण को आज देखें तो पता चलता है कि अब हम मिलने-मिलाने का चलन समाप्त करते जा रहे हैं। कितने भी अच्छे सम्बन्ध हों किन्तु व्यक्ति पहले फोन के द्वारा उससे मिलने का समय लेता है। इसके साथ ही समय का ध्यान इस संदर्भ में रखा जाता है कि परिवार के किसी टी0वी0 सीरियल में बाधा उत्पन्न न हो।
अब ऐसे समाज में जहाँ सम्बन्धों का निर्वहन टी0वी0 सीरियलों के आधार पर होता हो वहाँ मधुरता की गुंजाइश कहाँ से होगी?
होली इस बार की रंगीन नहीं हो सकी क्योंकि सम्बन्धों में रंगीनी नहीं दिखती। त्यौहारों की भव्यता इस कारण समाप्त हो गई क्योंकि रिश्तों में गरिमा नहीं रही।
आइये इस बार की होली को ध्यान में रखकर आगे आने वाले त्यौहारों के लिए संकल्प लें कि हम सिर्फ बधाई संदेशों, शुभकामनाओं, फोन आदि से ही काम नहीं चलायेंगे। कुछ ऐसे कदम भी उठायेंगे कि आने वाली पीढ़ी त्यौहारों के महत्व को समझे और आपसी रिश्तों-सम्बन्धों की गरिमा को, मधुरता को भी पहचान सके।

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चित्र साभार गूगल छवियों से

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