भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है.
इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है. रेडियो पर लगभग आधी सदी पूर्व गूँजी
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की इस आवाज़ ने देश में हलचल मचा दी थी. तत्कालीन
राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने सरकार की सिफारिश पर संविधान के अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत देश में आपातकाल घोषणा किया
था. 25 और 26 जून की मध्य रात्रि में तत्कालीन
राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करने के साथ ही यह लागू हो गया था. 25 जून 1975 से लेकर 21
मार्च 1977 तक देश में 21 महीने तक आपातकाल लागू रहा. इस कदम को आज
भी लोकतंत्र का काला अध्याय कहा जाता है.
आपातकाल की व्यवस्था किसी तरह की असंवैधानिक व्यवस्था नहीं
है. देश के संविधान में ही आपातकाल लागू किये जाने की व्यवस्था है. संविधान के अनुच्छेद
352 के अंतर्गत राष्ट्रपति को राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार है. आपातकाल
में नागरिकों के सभी मौलिक अधिकार निलंबित हो जाते हैं. ऐसी स्थिति उस समय व्यवहार में लाई जाती
है जबकि सम्पूर्ण देश अथवा किसी राज्य पर अकाल, बाहरी देशों के आक्रमण, आंतरिक प्रशासनिक अव्यवस्था अथवा अस्थिरता
आदि जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाए. इस तरह की विषम स्थिति में समस्त राजनैतिक और प्रशासनिक शक्तियाँ राष्ट्रपति के हाथों में चली जाती हैं.
1975 के पूर्व वर्ष 1962 तथा वर्ष 1971 में राष्ट्रीय आपातकाल लगाया गया था.
देश में पहली बार आपातकाल 26 अक्टूबर 1962 से 10 जनवरी 1968
के बीच लगा जबकि उस समय भारत और चीन के बीच युद्ध चल रहा था. दूसरी बार 3 से 17 दिसंबर
1971 के बीच आपातकाल लगाये जाने का कारण भारत-पाकिस्तान युद्ध था. दोनों स्थितियों
में देश की सुरक्षा को खतरा देखते हुए ऐसी घोषणा की गई थी. इन दो वास्तविक विषम
परिस्थितियों के सापेक्ष वर्ष 1975 की स्थितियों को देखा जाये तो आपातकाल लागू
किये जाने का तार्किक आधार नजर नहीं आता है. बावजूद इसके आपातकाल लागू किया गया. अभिव्यक्ति
के अधिकार के साथ-साथ नागरिकों के जीवन का अधिकार
भी छीन लिया गया था. 25 जून की रात से ही देश में
विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हुआ. प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई. प्रत्येक
मीडिया सेंटर पर सेंसर अधिकारी नियुक्त कर दिया गया. उसकी अनुमति के बाद ही समाचार
का प्रकाशन हो रहा था. सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी हो रही थी.
दरअसल आपातकाल लगाये जाने के पीछे किसी बाहरी शक्ति से खतरा
होने से ज्यादा इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता जाने का खतरा दिखाई देने लगा था. 1971
में तत्कालीन भारत-पाकिस्तान युद्ध में जबरदस्त विजय और बांग्लादेश निर्माण के बाद
से इंदिरा गांधी की लोकप्रियता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. इसी के चलते उन्होंने
1971 का लोकसभा चुनाव भी प्रचंड बहुमत से जीतकर विपक्ष का लगभग सफाया कर दिया था. दरअसल
1971 में बांग्लादेश बन जाने से भले ही इंदिरा गांधी को लोकप्रियता मिली मगर उसके
साथ बांगलादेशी शरणार्थियों के आने से देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ा. गुजरात
और बिहार में इस नकारात्मकता ने आन्दोलन का रूप ले लिया. इन दोनों राज्यों से
विद्यार्थियों की जबरदस्त एकजुटता को आन्दोलन की शक्ल में बदलने का काम किया बिहार
के जयप्रकाश नारायण ने. उनके नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रांति का नारा देते हुए
आन्दोलन तेज होने लगा. इसके साथ ही इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके
चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने 1971 में अदालत में अपनी याचिका में आरोप लगाया कि इंदिरा गांधी
ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है. उच्च न्यायालय ने इस याचिका पर 12 जून 1975 को फैसला सुनाते हुए इंदिरा
गांधी के निर्वाचन को रद्द करते हुए अगले छह साल तक चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया.
जगह-जगह उनके इस्तीफे की माँग उठने लगी. इसी से आक्रोशित होकर आपातकाल जैसा कदम
उठाया गया.
विगत कुछ वर्षों से विपक्ष द्वारा लगातार प्रचार किया जा
रहा है कि वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा आपातकाल जैसी स्थितियाँ पैदा कर दी गई
हैं. अभी हाल में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों में संविधान बदल देने, आरक्षण
समाप्त कर देने, भविष्य में चुनाव न होने देने जैसा
दुष्प्रचार किया गया. यहाँ विशेष बात यह है कि 1975 में आपातकाल की नींव रखने वाला
दल आज विपक्ष में है और आपातकाल के ज़ुल्मों को सहने वाले सरकार में हैं. ऐसे में
मीडिया और सोशल मीडिया के पर्याप्त स्वतंत्र होने की स्थिति में किसी भी
प्रचार-दुष्प्रचार का आकलन राष्ट्रीय हितों को देखते हुए किया जाना चाहिए. वर्तमान
पीढ़ी के बहुसंख्यक नागरिकों ने आपातकाल में प्रशासन, पुलिस
की ज्यादतियों को पढ़ ही रखा है, इसके उलट बड़ी संख्या में ऐसे नागरिक भी हैं
जिन्होंने आपातकाल की क्रूरता को न केवल देखा है बल्कि सहा भी है. ऐसे में उन
लोगों, भले ही वे राजनीति में नहीं हैं, का भी दायित्व बनता
है कि वर्तमान पीढ़ी को सत्य से परिचित करवाते रहें. आपातकाल के दौर में भुक्तभोगी
रही मीडिया को भी यथोचित स्थितियों के सच के साथ सामने आने की आवश्यकता है. यदि
लगता है कि वर्तमान केन्द्र सरकार के कार्य, नीतियाँ इस तरह
की हैं जो घोषित अथवा अघोषित आपातकाल की पीठिका निर्मित करती हैं, तो उनका मुखर विरोध किया जाना चाहिए. जिस तरह से विगत वर्षों में संसद
में पक्ष और विपक्ष की भूमिकाएँ देखने को मिली हैं वे प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती
हैं. देश के धन और समय के अपव्यय के बीच समाप्त होते निष्फल संसद सत्रों के बीच
घोषित अथवा अघोषित आपातकाल देश को नुकसान ही पहुँचायेगा.
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