28 अक्टूबर 2025

खुराफाती पलों का बिंदास साथी

अपने पढ़ने के शौक के कारण ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई पुस्तक मँगवाई जाए और बिना पढ़े अलमारी में सज जाए. इसी तरह ऐसा तो बहुत कम ही पुस्तकों के साथ होता है कि आने के बाद कुछ ही घंटों में उसे चट कर दिया जाये. आज ही अपने कर्मकांडी मित्र अनुराग की पुस्तक हाथ लगी. ये बात कहने में कोई गुरेज नहीं कि आज किसी भी व्यस्तता में होते उसे छोड़कर पहला काम अनुराग के उपन्यास को पढ़ना रहता. हुआ भी कुछ ऐसा ही. कॉलेज से लौटते ही कोरियर वाले ने पुस्तक थमाई उसके बाद उसी को पढ़ने का काम शुरू हुआ.

उपन्यास की समीक्षा इस पोस्ट के बाद, अभी कुछ बातें अनुराग और अपने बारे में. 1990 में स्नातक की पढ़ाई के लिए जब ग्वालियर के साइंस कॉलेज में एडमिशन लिया तो हॉस्टल में सबसे पहली मुलाकात अनुराग से ही हुई. उस पहली मुलाकात में बहुत ही संक्षित सी बातचीत हुई मगर उसके बाद डिफ़ॉल्ट सेटिंग में इंस्टाल खुराफातों ने आजतक हमें और अनुराग को लगातार साथ बनाये रखा.

हॉस्टल की एक फोटो, 1991 

हॉस्टल के बहुत से मित्र आज भी साथ हैं, बहुत से सीनियर बड़े भाई की तरह अपना आशीष बनाये हुए हैं, बहुत से जूनियर छोटे भाई की तरह जीवन से जुड़े हुए हैं. सभी भाई किसी न किसी विशेषता के कारण सबसे अलग थे, आज भी अपनी उसी विशेषता के कारण अलग हैं. अनुराग पहले दिन से ही एकदम बिंदास, जिंदादिल, बेख़ौफ़ व्यक्तित्व से भरा हुआ लगा और ऐसा आजतक है. संभवतः इसी डिफ़ॉल्ट सेटिंग के कारण स्थलीय दूरी होने के बाद भी हम दोनों अलग-अलग नहीं हो सके.

हॉस्टल मीट, 2017

बिंदास, मौजियल स्वभाव के अनुराग के साथ मिलकर कितनी-कितनी खुराफातें रची गईं कहना मुश्किल है. उसकी एक बिंदास फोटो आज भी हमारे कलेक्शन को महकाती-चहकाती है. इसे आशीर्वाद ही कहा जायेगा कि 2017 में हॉस्टल मीट के दौरान मंच से हम लोगों के वार्डन रहे चंदेल सर ने अनुराग और हमारा ही नाम लेकर हमारी शरारतों का जिक्र किया. होली के ठीक पहले अनुराग के साथ मिलकर हाथ ठेला पर बिठाकर अपने एक सीनियर को रेलवे स्टेशन छोड़ने की घटना का जिक्र हम आज तक अपने दोस्तों के बीच किया करते हैं. अनुराग को पत्र मित्र कॉलम में कुमारी अनु के नाम से मिलने वाले हजारों-हजार पत्र आज भी हॉस्टल के साथियों के बीच मौज-मस्ती का बिन्दु बनते हैं.

आज अनुराग के उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते तीस साल से अधिक पुराना हॉस्टल का समय बार-बार उभर आता, उस समय की शैतानियाँ सामने आ खड़ी होतीं. कई-कई बार होंठों पर मुस्कान उभर आती, ख़ुशी में आँखें नम हो जातीं.  

मौज-मस्ती, 2021

अनुराग के ऑफिस में, 2021



25 अक्टूबर 2025

हिंसात्मक गतिविधियों से भरा समाज

ये किसी तरह के समाज का निर्माण कर लिया हम लोगों ने? सुबह आँख खुलने से लेकर रात सोने तक कहीं न कहीं से हिंसात्मक खबरों का आना लगा ही रहता है. इन खबरों का केन्द्र देश ही नहीं रहता है बल्कि विश्व स्तर पर चारों तरफ से इसी तरह की खबरें सुनाई पड़ती हैं. कहीं दो व्यक्ति आपस में लड़ने में लगे हैं, कहीं दो परिवारों के बीच कलह मची हुई है, कहीं दो राज्यों के बीच विवाद की स्थिति है तो कहीं दो देशों में युद्ध चल रहा है. ऐसा लगता है जैसे समाज में चारों तरफ अशांति, हिंसा, वैमनष्यता, बैर आदि का समावेश बना हुआ है. सद्भाव, सहजता, शांति, धैर्य आदि को जैसे भुला ही दिया गया है. पारिवारिक सम्बन्धों में, रक्त-सम्बन्धियों में विभेद इस स्तर तक है कि एक-दूसरे की जान तक ले ली जा रही है. समाज की इकाई एक व्यक्ति के दायरे से बाहर निकल कर देखें तो एक देश के रूप में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. विस्तारवाद की नीति के चलते, अपने वर्चस्व को, प्रभुता को थोपने की नीयत के चलते जहाँ बड़े-बड़े देशों द्वारा छोटे-छोटे देशों को किसी न किसी रूप में अपने कब्जे में किये जाने की मानसिकता काम करती है, वहीं महाशक्तियाँ अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे को नियंत्रित करने की नीतियाँ निर्धारित करती हैं.

 

समाज की वर्तमान स्थिति यह है कि यहाँ प्रेम, करुणा, शांति, अहिंसा से अधिक बैर, वैमनष्यता, हिंसा आदि दिखाई दे रही है. क्या कभी इस पर विचार किया गया कि आखिर ऐसा क्या है इंसानी स्वभाव के मूल में कि उसे सदियों से प्रेम, सौहार्द्र का पाठ पढ़ाना पड़ रहा है मगर वह सिर्फ और सिर्फ हिंसा की तरफ ही बढ़ता जा रहा है? आये दिन खबरें मिलती हैं मासूम बच्चियों के साथ दुराचार की, उनकी हत्या की. आये दिन देखने में आ रहा है कि प्रशासनिक अधिकारियों पर हमले किये जा रहे हैं, उनकी जान ले ली जा रही है. लगभग नित्यप्रति की खबर बनी हुई है किसी की हत्या, कहीं लूट, कहीं अपहरण, कहीं मारपीट. इसे महज दो पक्षों के बीच की स्थिति कहकर विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए. गम्भीरता से विचार किया जाये तो स्पष्ट रूप से समझ आता है कि हिंसा, अत्याचार, क्रूरता इंसानी स्वभाव का मूल है. कोई व्यक्ति वह चाहे आम नागरिक हो या फिर अधिकार प्राप्त व्यक्ति, सभी के मन में कहीं न कहीं एक तरह का हिंसात्मक भाव-बोध छिपा होता है. आम नागरिक अपने इसी भाव-बोध के वशीभूत अपने आस-पड़ोस में हिंसात्मक गतिविधियाँ करता है तो वही किसी तानाशाही मानसिकता वाला राष्ट्राध्यक्ष विस्तारवादी मानसिकता के चलते अपने आसपास के देशों के प्रति नकारात्मक भाव रखता है.

 

यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि आदिमानव से महामानव बनने की होड़ में लगे इंसान को लगातार प्रेम, दया, करुणा आदि का पाठ पढ़ाया जाता रहा है. उसे समझाया जाता रहा है कि हिंसा गलत है, वह चाहे जीव पर हो, निर्जीव पर हो, पेड़-पौधों पर हो. इंसान को कदम-कदम पर सीख दी गई कि उसे आपस में सद्भाव से रहना चाहिए. आपसी वैमनष्यता से उसे दूर रहना चाहिए. उसे कभी नहीं सिखाया गया कि कैसे हिंसा करनी है. उसे किसी ने नहीं सिखाया कि कैसे दूसरे से बैर भावना रखनी है. उसे किसी भी तरीके से नहीं बताया गया कि सामने वाले की हत्या कैसे करनी है. इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि जो पाठ उसे सदियों से पढ़ाया जाता रहा, शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जा रहा, परिवार द्वारा पढ़ाया जाता रहा, समाज द्वारा पढ़ाया जाता रहा इंसान उसी पाठ को कायदे से नहीं सीख पाया. इसके सापेक्ष जिस पाठ को किसी ने नहीं सिखाया, जिसे सिखाने के सम्बन्ध में कोई संस्थान नहीं है वे कार्य उसने न केवल भली-भांति सीख रखे हैं वरन वह उन्हें तीव्रता के साथ करने भी लगा है. ऐसा लगता है जैसे उसने अपने आसपास तनावपूर्ण माहौल वाली दुनिया बनाने का ही संकल्प ले रखा है.

 

इस तरह की दुनिया में जहाँ सब कुछ स्वार्थ पर आधारित होने लगा है; जहाँ व्यक्तियों की, देशों की प्रतिष्ठा का आधार अधिकार, उसका आर्थिक स्तर, शक्ति प्रदर्शन आदि होने लगा हो वहाँ आपस में खाई बनना स्वाभाविक है. वैश्विक परिदृश्य में दो देशों के बीच विगत कई वर्षों से चल रहे युद्ध, संघर्ष इसके सशक्त उदाहरण हैं. यदा-कदा संघर्ष विराम के नाम पर चंद दिनों की शांति भले ही देखने को मिल जाए, भले ही कोई अपनी पीठ स्वयं ही थपथपा ले किन्तु तनाव, संघर्ष, हमला आदि पुनः अपनी तीव्रता के साथ आरम्भ हो जाते हैं. नागरिकों के हितार्थ लिए जाने वाले निर्णय अचानक से भुला दिए जाते हैं. ऐसी स्थिति न केवल चिंतनीय है बल्कि भयावह भी है.

 

सामाजिक रूप से कितने भी प्रयास किये जाएँ किन्तु इंसानों का मूल स्वभाव बदले बिना शांति सम्भावना की स्थिति अब संभव नहीं लगती है. वर्तमान समाज इतने खाँचों में विभक्त हो चुका है कि उसे मानवीय समाज कहने के बजाय कबीलाई समाज कहना ज्यादा उचित होगा. प्रत्येक वर्ग के अपने सिद्धांत हैं, अपने आदर्श हैं, अपने विचार हैं, अपनी विचारधारा है. सबकी विचारधारा, सबके आदर्श दूसरे की विचारधारा, आदर्श से श्रेष्ठ हैं. ऐसे में श्रेष्ठता, हीनता का बोध भी इंसानी स्वभाव पर हावी हो रहा है. समझने वाली बात है जब आक्रोश की छिपी भावना के साथ-साथ स्वयं को श्रेष्ठ समझने और दूसरे को सिर्फ और सिर्फ हीन समझने की खुली भावना समाज में विकसित हो रही हो तब हिंसात्मक गतिविधियों को देखने-सहने के अलावा और कोई विकल्प हाल-फ़िलहाल दिखाई नहीं देता है. सरकार, प्रशासन, समाज, व्यक्ति सबके सब असहाय बने खुद पर हमला होते देख रहे हैं.

 


21 अक्टूबर 2025

राजनीति में स्वच्छ छवि का स्वागत हो

चर्चित लोकगायिका मैथिली ठाकुर को भाजपा की सदस्यता लेने के अगले दिन ही बिहार विधानसभा चुनाव में अलीनगर सीट से प्रत्याशी बनाया गया. उनको प्रत्याशी बनाये जाने को लेकर अनेक तरह के तर्क-वितर्क शुरू हो गए. कोई उनकी उम्र को लेकर टिप्पणी कर रहा है, कोई राज्यसभा में भेजे जाने की बात कर रहा है. किसी के द्वारा उनके राजनैतिक अनुभवशून्यता का उदाहरण दिया जा रहा है तो किसी के द्वारा इसे कला के प्रति अन्याय बताया जा रहा है. सदस्यता लेने के अगले दिन ही प्रत्याशी बनाये जाने को जहाँ पैराशूट प्रत्याशी से तुलना की जा रही है वहीं स्थानीय प्रतिनिधियों के साथ पक्षपात करना बताया जा रहा है. इन तमाम सारी चर्चाओं के बीच मैथिली ठाकुर के चरित्र हनन करने सम्बन्धी तमाम मीम्स, चुटकुले सोशल मीडिया कुत्सित मानसिकता वालों द्वारा फैलाये जाने लगे.

 

इन चर्चाओं के सापेक्ष कुछ बातों पर ध्यान देना ही होगा. किसी व्यक्ति के राजनैतिक रूप से अनुभवहीन होने के तात्पर्य यह तो कतई नहीं है कि वह राजनीति में असफल हो जायेगा. वह समाजहित में, जनहित में कार्य नहीं कर सकेगा. देखा जाये तो ये सारी बातें मैथिली की उम्र, कला, अनुभवहीनता आदि के कारण नहीं उपजी हैं बल्कि इनके पीछे भाजपा द्वारा स्थानीय कार्यकर्ताओं को, जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा करना है. यह सही हो सकता है कि किसी नए व्यक्ति को पार्टी का सदस्य बनने के अगले दिन ही प्रत्याशी बनाकर उन तमाम पुराने कार्यकर्ताओं, नेताओं की उपेक्षा ही है जो विगत लम्बे समय से अपनी प्रत्याशिता की राह बना रहे थे.

 



एकबारगी मान भी लिया जाये कि यह भाजपा का गलत कदम है कि एकदम नए व्यक्ति को पुराने कार्यकर्ताओं, जनप्रतिनिधियों पर प्रभावी बना दिया गया तो क्या इस बात पर ही किसी भले व्यक्ति को, कलाकार को सक्रिय राजनीति में नहीं उतरने दिया जाना चाहिए? राजनैतिक क्षेत्र को लेकर समाज की विडम्बना यही हो गई है कि एक तरफ लोग राजनीति के गन्दी होने की चर्चा अनेकानेक मंचों से करते हैं मगर उसी के सापेक्ष भले, योग्य व्यक्तियों को सक्रिय राजनीति में देखना भी नहीं चाहते. राजनीति गन्दी है, संसद डाकुओं-लुटेरों से भर गई है, संविधान में हमारा विश्वास नहीं जैसे जुमले आये दिन सुनने को मिल जाते हैं. कविता का मंच होसाहित्य-विमर्श हो या धारावाहिक-फ़िल्मी कार्यक्रम हो सभी में राजनीति को बेकार बताया जाता है. आज राजनीति को गाली देना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता माना जाता हैखुद को जागरूक बुद्धिजीवी समझना होता है.

 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वर्तमान में बहुतायत जनप्रतिनिधि अपने दायित्वों से मुकरते जा रहे हैं. राजनीति में पदार्पण करने वाला अत्यंत अल्पसमय में ही बलशाली होकर सामने आ जाता है. कई-कई अपराधों में लिप्त लोग भी माननीय की श्रेणी में शामिल होकर जनता के समक्ष रोब झाड़ते दिखाई देते हैं. राजनीति की वर्तमान व्यवस्था को दोष देने के पूर्व यदि हम अपने क्रियाकलापोंअपनी जागरूकता पर निगाह डालें तो हम ही सबसे बड़े दोषी नजर आयेंगे. हमारे देश की संसद और तमाम विधानसभाओं में एक निश्चित समयान्तराल के बाद चुनाव होता है. चुनाव का निर्धारित समय किसी लिहाज से टाला नहीं जा सकता है और सदन की निर्धारित सीटों को अपने निश्चित समय पर भरा ही जाना है. ऐसे में यदि अच्छे लोग उन्हें भरने को आगे नहीं आयेंगे तो जो भी सामने आयेगा वही आने वाले निर्धारित समय के लिए सदन का निर्वाचित सदस्य होगा. ऐसी स्थिति में दोष हमारा ही है कि हमने स्वयं अपने को अच्छा माना भी है और राजनीति से पीछे खींचा भी है. 

 

देश, प्रदेश को संचालित करने वाली सबसे अहम् प्रक्रिया को, सबसे महत्त्वपूर्ण कदम राजनीति को आज उससे दूर होते जा रहे प्रबुद्ध वर्ग ने नाकारा साबित करवा दिया है. राजनीति को सबसे निकृष्ट कोटि का काम सिद्ध करवा दिया है. इसी कारण गली-चौराहे-नुक्कड़ पर खड़े लोग राजनीतिक चर्चा में तो संलिप्त दिखाई पड़ जाते हैं, उसकी अच्छाइयों से ज्यादा उसमें बुराइयों को खोजने का काम करते हैं, उसमें सक्रिय ईमानदार लोगों से अधिक उसमें सक्रिय भ्रष्ट-माफिया लोगों की अधिक चर्चा करते हैं. इसका दुष्परिणाम ये होता है कि राजनीति के नकारात्मक प्रचार का एक से बढ़ते हुए अनेक तक चला जाता है और समाज की एक सोच ये बनती चली जाती है कि वर्तमान में राजनीति से अधिक घटिया, अधिक बुरी कोई चीज नहीं. राजनीति से प्रबुद्धजनों के मोह-भंग ने, राजनीति के प्रति होते नकारात्मक प्रचार ने, राजनीति के प्रति अपनी भावी पीढ़ी को प्रेरित न कर पाने ने राजनीति के विरुद्ध नकारात्मक माहौल बना दिया है.

 

आज प्रत्येक मतदाता राजनीति पर बड़ी लम्बी-लम्बी चर्चा करने का दम रखता है मगर अपनी संतानों को राजनीति में आने को प्रेरित नहीं करता. उसके द्वारा राजनीति में आती गिरावट पर चिंता व्यक्त की जाती है मगर उसके उसमें सुधार के लिए भावी पीढ़ी को आगे नहीं किया जाता. ऐसे लोगों की बातों में राजनीति की गिरावट दिखती है मगर इनके मन में बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी के लुभावने पैकेज के सपने सजे होते हैं. इस तरह की चर्चाओं के चलते ही अच्छे लोग न राजनीति में आते हैं न ही चुनावों में उतरते हैं. इस तरह की स्थिति के धीरे-धीरे बढ़ने से भले लोग राजनीति से, चुनावी मैदान से बाहर हैं और अपराधी किस्म के लोग राजनीति में प्रवेश करते जा रहे हैं. राजनीति में आती जा रही गंदगी सिर्फ बातें करने से, अनावश्यक बहस करने से दूर नहीं होने वाली. यदि इसे साफ़ करना है, राजनीतिक गंदगी को मिटाना है तो राजनीति की बातें नहीं वरन राजनीति करनी होगी. आज के लिए न सहीकल के लिए; अपने लिए न सहीअपनी भावी पीढ़ी के लिए लोगों को जागना होगा.

 

हाँ, मैथिली ठाकुर जैसे लोगों का राजनीति में, चुनावों में उतरना सुखद संकेत है लेकिन ऐसे व्यक्तियों को और राजनैतिक दलों को इस बात का ध्यान देना चाहिए कि ऐसे भले लोग, स्वच्छ छवि के लोग, कलाकार आदि पहले कुछ वर्ष जनता के बीच गुजारें, जनहित के कार्यों में अपना समय दें. इससे जहाँ नागरिकों के बीच उनकी छवि पुष्ट तो होगी ही, अपने दल में भी उनके प्रति एक विश्वास पैदा होगा.


18 अक्टूबर 2025

दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो

‘दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो’ यह वाक्य कितना सुन्दर, सार्थक, सशक्त और मनोहारी प्रतीत होता है. चारों ओर दीपों की कतार, मोमबत्तियों-झालरों का सतरंगी प्रकाश, रंग-बिरंगी आतिशबाजी, विविध आवाजों-रोशनियों के साथ फूटते पटाखे... अपने आप में अद्भुत छटा का प्रदर्शन करते हैं. बच्चे, युवा, बुजुर्ग सभी अपनी-अपनी उमंग और मस्ती में दीपावली का आनन्द उठाते नजर आते हैं. नये-नये परिधानों में सजे-संवरे लोग एकदूसरे से मिलजुल कर समाज में समरसता का वातावरण स्थापित करते हैं. दीपावली का पर्व सभी के अन्दर एक प्रकार की अद्भुत चेतना का संचार करता है. घरों की साफ-सफाई, लोगों से मिलना-जुलना, मिठाई आदि घर-परिवार के सभी सदस्यों को समवेत रूप से सहयोगात्मक कदम उठाने में मदद करता है.

 

भारतीय परम्परा, संस्कृति में पर्वों, त्यौहारों का महत्व हमेशा से रहा है. यहाँ की अनुपम वैविध्यपूर्ण संस्कृति में विभिन्न मनमोहक ऋतुएँ हैं, ठीक उसी तरह से विविधता धारण किये पर्व-त्यौहार भी हैं. इन त्यौहारों की विशेष बात यह है कि इन्हें धार्मिकता से जोड़ने के साथ-साथ सामाजिकता से भी परिपूर्ण बनाया गया है. धार्मिक संदेशों के मध्य से सामाजिक सरोकारों, समरसता, सौहार्द्र, भाईचारे आदि की भी प्रतिस्थापना करते ये पर्व दिखाई देते हैं. किसी भी पर्व का, किसी भी अनुष्ठान का उद्देश्य मात्र स्वयं को प्रसन्न रखने की स्थिति में नहीं होना चाहिए. इनका उद्देश्य सदैव यही हो कि सामाजिकता का विकास हो, सामाजिक सरोकारों की स्थापना हो. व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़े रखने का माध्यम यही पर्व-त्यौहार बनें. दीपावली के संदर्भ में ही देखें तो इसके आने के कई-कई दिनों पूर्व से घर के कार्यों को आपसी सहयोग से सम्पन्न करना, उत्सव के दिन सभी से मिलने-जुलने का उपक्रम किसी भी रूप में असामाजिकता का संदेश देता नहीं दिखता है.

 



वर्तमान में स्थितियों में कुछ परिवर्तन सा महसूस होता है. सहजता और सरलता का प्रतीक पर्व अब बाह्य आडम्बर और चकाचौंध भरी स्थितियों के वशीभूत होता समझ में आता है. यदि हम अपने आसपास के परिदृश्य का अवलोकन करें तो तमाम सारी प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ कृत्रिमता का विकास होता भी समाज में दिखाई देता है. भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण, औद्योगीकरण जैसी भारी-भरकम वैश्विक शब्दावली ने पर्वों-त्यौहारों की सहजता, सरलता को विखण्डित सा कर दिया है. दीपावली का रंगीन-रोशनीपरक उद्देश्य ‘इस दीपावली आप क्या खिला रहे हैं’ की सेल्युलाइड दुनिया के पीछे संकुचित, भयभीत सा खड़ा दिखाई देता है. इसी आभासी दुनिया का दुष्परिणाम है कि अब आकाश को छूने के लिए उड़ते रॉकेट को देखकर बच्चों की तालियाँ, खिलखिलाती हँसी नहीं वरन् उनकी फटी-फटी सी आँखें, अचम्भित से हाव-भाव दिखाई पड़ते हैं. कृत्रिम चकाचौंध और औपचारिकता की भेंट हमारे पर्व ही नहीं चढ़े हैं वरन् हमारे रिश्ते-नाते, हमारे सामाजिक सरोकार भी तिरोहित हुए हैं. बच्चों के हाथों में झूमती रंगीन फुलझड़ी एकाएक मद्विम पड़ जाती है जैसे ही उसके सामने विदेशी आतिशबाजी आकर अपना विस्तार करने लगती है. गरिमामयी रिश्तों की गर्मजोशी अचानक ही हिम प्रशीतक की भांति लगने लगती है जब कि किसी और के हाथों में मंहगे गिफ्ट प्रदर्शित होने लगते हैं.

 

हमारे घरों में आज लक्ष्मी जी के रात में उतर कर आने की संकल्पना कार्य नहीं करती वरन् लक्ष्मी जी के वर्तमान धौंसपरक स्वरूप से अपने आपको प्रतिष्ठित करने की भावना कार्य करती है. मँहगे से मँहगे संसाधनों का उपयोग करके हम दीपावली का त्यौहार नहीं मनाते हैं बल्कि अपने आसपास के वातावरण में अपनी सत्तात्मक स्थिति को स्थापित करने का कार्य करते हैं. ऐसी विद्रूपकारी, हास्यास्पद स्थितियों में अब हँसी भी नहीं आती है बल्कि सरोकारों के संकुचित होते जाने को देखकर आँखों में आँसू अवश्य ही उतर आते हैं. हमारी स्वयं को स्थापित करने की सोच के कारण समाज से समरसता और भाईचारे जैसी स्थितियों का विलोपन सा होता जा रहा है. सौहार्द्र को भी बाजारीकरण का रंग चढ़ जाता है; सद्भावना भी झिलमिलाती पॉलीपैक में बिकने लगती है; भाईचारा भी किसी यूज एण्ड थ्रो जैसी बोतल मे चमकदार पेय पदार्थ सा चमकने लगता है. ऐसे में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि दीपमालिके तेरा आना मंगलमय हो?

 

नैराश्य के इस वातावरण के बाद भी; कृत्रिम चकाचौंध के बीच भी; दीपावली का एक ही दीपक अंधियारे को मिटाने हेतु संकल्पित रहता है. हमें भी उसी दीपक की तरह से स्वयं को इन विपरीत स्थितियों के बाद भी, सामाजिक सरोकारों के विध्वंसपरक हालातों के बाद भी दीपमालिके का स्वागत तो करना ही है. बाजारीकरण में गुम सी हो चुकी भारतीयता में भी प्रस्फुटन सा दिखता है जो हमें जागृत करता है कुछ करने को; एक प्रकार के आवरण को गिराने को; असामाजिकता को मिटाने को; सामाजिक सरोकारों की स्थापना को. इसके लिए हमें सर्वप्रथम स्वयं से ही आरम्भ करना होगा. भारीभरकम खर्चों के बीच, मँहगी से मँहगी आतिशबाजी को उड़ाते समय एकबारगी हम उन बच्चों के बारे में भी विचार कर लें जो कहीं दूर सिर्फ इनकी रोशनियाँ देखकर ही अपनी दीपावली मना रहे होंगे. उन बच्चों के बारे में भी एक पल को सोचें जो कहीं दूर किसी कचरे के ढेर से जूठन में अपना भोजन तलाशते हुए अपने पकवानों की आधारशिला का निर्माण कर रहे होंगे. यह नहीं कि हम दीपावली पर अपने उत्साह को, अपनी उमंग को व्यर्थ गुजर जाने दें पर कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि कल को एकान्त में, तन्हा बैठने पर हमें स्वयं के कृत्यों से शर्मिन्दा न होना पड़े; हमें अपने एक बहुत ही छोटे से कदम से हमेशा प्रसन्नता का एहसास होता रहे; अपनी खुशी से दूसरे बच्चों में, और लोगों की खुशी में वृद्धि का भाव जागृत होता रहे. हमें दीपमालिके के स्वागत में एक-एक दीप प्रज्ज्वलित करते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इसका प्रकाश सिर्फ और सिर्फ हमारे घर-आँगन तक नहीं अपितु समाज के उस कोने-कोने को भी आलोकित कर दे जिस कोने में अंधेरा वर्षों से अपना कब्जा कायम रखे है. उजाले की एक सकारात्मक किरण ही भीषणतम अंधेरे को मिटाने की शक्ति से आड़ोलित रहती है, बस हम ही संकल्पित हों और पूरे उत्साह से, उमंग से परिवर्तन का, समरसता का दीपक प्रज्ज्वलित करने का विश्वास अपने में कर लें. आप स्वयं एहसास करेंगे कि आपका मन स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से दीपमालिके का स्वागत करने को तत्पर हो उठेगा.


15 अक्टूबर 2025

शांति की राह पर इजराइल हमास?

अंततः अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के सकारात्मक हस्तक्षेप के पश्चात् इजरायल-हमास के बीच संघर्ष विराम हो ही गया. अमेरिकी राष्ट्रपति की बीस सूत्री शांति योजना के रूप में इजरायल और हमास शांति बनाये जाने पर सहमत होने के साथ एक-दूसरे के बंधकों को छोड़े जाने पर भी सहमत हो गए. विगत दो वर्षों से चले आ रहे इस युद्ध से अब गाजा में फिलिस्तीनियों को राहत मिलेगी. हमास के आतंकी हमले के विरोध में जवाबी कार्यवाही करते हुए इजराइल ने अक्टूबर 2023 को युद्ध शुरू किया था. इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू हमेशा से ही अपनी पूर्ण विजय प्राप्त करने की नीति के लिए वैश्विक स्तर पर जाने जाते रहे हैं. अपनी इसी छवि के चलते उन्होंने युद्ध जैसी कार्यवाही शुरू करने के साथ ही इस्लामी आतंकवादी संगठन हमास को नेस्तनाबूद करने का संकल्प लिया था. उनके इस संकल्प के चलते ही विगत दो वर्षों में गाजा एक तरह के मलबे में बदल चुका है. हमास द्वारा किये गए हमले में एक हजार से अधिक इजराइली नागरिक मारे गए थे और लगभग ढाई सौ के आसपास नागरिकों को बंधक बना लिया गया था. तबसे चली इजराइली जवाबी कार्यवाही में लगभग सत्तर हजार फिलिस्तीनी मारे जा चुके हैं, लाखों लोग विस्थापित हो चुके हैं.

 

शांति का नोबेल पुरस्कार पाने की जबरदस्त आकांक्षा रखने और आखिर में निराशा हाथ आने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने इजराइल-हमास संघर्ष विराम के द्वारा खुद को सफल साबित करने का प्रयास किया. चूँकि इजराइल शुरूआती दौर से ही अमेरिका प्रभावित रहा है और यह भी माना जा रहा था कि विगत कुछ समय से अमेरिकी राष्ट्रपति इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू से इस युद्ध को लेकर नाराज से चल रहे थे. इसके पीछे का कारण इजराइल द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति के शांति प्रयासों को कमजोर करना बताया जा रहा था. इजराइल और हमास में संघर्ष विराम की स्थिति बनने के पश्चात् इधर हमास द्वारा इजराइल के बीस बंधकों को रिहा भी कर दिया गया है उधर इजराइली सैनिकों ने दक्षिण में राफा से लेकर उत्तर में सीमावर्ती गाजा शहर तक प्रारम्भिक वापसी रेखा की ओर हटना शुरू कर दिया है. इजराइल की तरफ से भी लगभग दो हजार फिलिस्तीनी कैदियों को रिहा करने का विश्वास व्यक्त किया गया है.

 

निश्चित रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प इस संघर्ष विराम के मुख्य सूत्रधार रहे हैं. यहाँ एक बात को ध्यान में रखना होगा कि हमास आरम्भ से ही एक अनसुलझी समस्या बना रहा है. ऐसे में इस संघर्ष विराम की अवधि कितनी लम्बी हो सकेगी इस पर संशय के बादल समझौते के तत्काल बाद से नजर आने लगे हैं. इजराइल और हमास के बीच समझौता भले हो चुका को किन्तु हमास के निरस्त्रीकरण, गाजा के शासन और फिलिस्तीन को राष्ट्र के रूप में मान्यता देने जैसे जटिल मुद्दे अभी भी ज्यों के त्यों बने हुए हैं. हमास के निरस्त्रीकरण को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने उसे चेतावनी देते हुए कहा है कि उन्हें अपने हथियार छोड़ने होंगे. अगर हमास ऐसा नहीं करता है तो अमेरिका कार्यवाही करेगा.

 

देखा जाये तो यह संघर्ष विराम फिलिस्तीनियों, बंधकों और उनके परिवारों के लिए एक बड़ी राहत है. बावजूद इसके गाजा में स्थायी शांति की स्थापना अभी भी बहुत बड़ा सवाल बना हुआ है. हाल-फिलहाल यह संघर्ष विराम डोनाल्ड ट्रम्प की योजना का आरम्भिक चरण मात्र है, जिसमें गाजा को एक अंतरराष्ट्रीय शासन निकाय के अधीन रखने और उसकी सुरक्षा के लिए एक अंतरराष्ट्रीय बल की तैनाती का भी प्रावधान किया गया है. इसे लेकर हमास ने बीस बंधकों को तो रिहा कर दिया है किन्तु अन्य शर्तों पर कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई है. गाजा में स्थायी शांति स्थापना में एक बहुत बड़ा अवरोध गाजा में इजराइली रक्षा बलों (आईडीएफ) की लगातार, नियमित रूप से बनी रहने वाली उपस्थिति भी है. संघर्ष विराम समझौते के अनुसार होने वाली सैन्य वापसी के बाद भी गाजा का पचास प्रतिशत से अधिक भाग आईडीएफ के नियंत्रण में रहेगा.

 

इजराइल-हमास संघर्ष विराम निश्चित रूप से अंतरराष्ट्रीय फलक पर एक सकारात्मक घटनाक्रम है लेकिन क्या यह संघर्ष विराम इजराइल और फिलिस्तीन के बीच की खाई को पाटकर स्थायी शांति बना सकेगा? इजराइल का कहना है कि हमास अपने हथियार छोड़े. जब तक उसकी सैन्य शक्ति खत्म नहीं होगी तब तक इस अभियान को पूरा नहीं माना जाएगा. इसके उलट हमास सशस्त्र प्रतिरोध को अपना अधिकार बताता है. इसकी सम्भावना भी नगण्य है कि हमास खुद को समाप्त किये जाने की माँग को स्वीकार करेगा. सम्भव है कि उसके ऊपर यह दबाव बनाया जाये कि वह गाजा में अपनी सत्ता छोड़कर अंतरराष्ट्रीय महाशक्तियों द्वारा समर्थित फिलिस्तीनी प्राधिकरण को सत्ता सौंप दे. इस पर इजराइल ने पश्चिमी तट की फिलिस्तीनी प्राधिकरण को किसी भी तरह की भूमिका देने से इंकार करने के साथ-साथ फिलिस्तीनी राज्य की सम्भावना को भी सिरे से नकार दिया है.

 

ऐसी असमंजस भरी स्थितियों के बीच अमेरिका, कतर, मिस्र, तुर्की सहित अन्य सहमत देशों के प्रतिनिधियों का एक संयुक्त निगरानी दल बनाये जाने का प्रस्ताव है जो संघर्ष विराम, कैदियों की रिहाई सहित हर प्रक्रिया पर नजर रखेगा. यह दल सुनिश्चित करेगा कि दोनों पक्ष अपनी प्रतिबद्धताओं का पालन करें. दो सौ से अधिक अमेरिकी सैनिक इजरायल पहुँच कर वहाँ की शांति प्रक्रिया पर नजर रखने के साथ-साथ यह भी देखेंगे कि कोई भी पक्ष समझौता न तोड़े. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की नोबेल शांति पुरस्कार की चाह में इजराइल-हमास संघर्ष विराम को उनके कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि बताया जाएगा, जिससे उनको नोबेल पुरस्कार का प्रबल उम्मीदवार बनाया जा सके. ऐसे में अब ट्रम्प को स्थायी शांति के लिए प्रयास करना चाहिए. उनको किसी एक देश के पक्ष में खड़े होने के स्थान पर एक स्वतंत्र मध्यस्थ के रूप में कार्य करना चाहिए.