27 अप्रैल 2024

शोध कार्य में गुणवत्ता की सम्भावना?

उच्च शिक्षा क्षेत्र में सक्रियता से अपनी भूमिका का निर्वहन करता विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) इस क्षेत्र में गुणवत्ता बनाये रखने हेतु कदम उठाता रहता है. शोध कार्य को लेकर यूजीसी द्वारा विशेष रूप से कार्य किया जा रहा है. उच्च शिक्षा से सम्बद्ध संस्थानों में अध्यापन के साथ-साथ शोध कार्य को लेकर अनेक सुधार किये गए. अनेक सुधारात्मक उपायों के बीच अभी हाल ही में यूजीसी द्वारा एक बड़ा निर्णय लेते हुए पी-एच.डी. के लिए अब राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) उत्तीर्ण करना अनिवार्य कर दिया गया है. अभी तक नेट परीक्षा के माध्यम से दो श्रेणियों में परीक्षार्थी उत्तीर्ण होते थे. इसके माध्यम से एक तरफ जेआरएफ के लिए विद्यार्थी चयनित किये जाते थे, दूसरी तरफ उत्तीर्ण विद्यार्थी असिस्टेंट प्रोफ़ेसर पद की पात्रता प्राप्त कर लेते थे. यूजीसी के इस नए बदलाव के बाद नेट परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों की एक तीसरी श्रेणी भी अस्तित्व में आ गई है. अब नेट परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों को पी-एच.डी. करने की पात्रता भी प्राप्त हो सकेगी. जून 2024 की नेट परीक्षा के लिए यूजीसी द्वारा जारी अधिसूचना में इस बदलाव को शामिल किया गया है.

 

विगत कुछ वर्षों से पी-एच.डी. में नामांकन हेतु विश्वविद्यालय स्तर पर प्रवेश परीक्षा का आयोजन करवाया जा रहा है. इसमें चयनित विद्यार्थी ही पी-एच.डी. हेतु अपना नामांकन करवा पाता है. इधर देखने में आ रहा था कि बहुत से विश्वविद्यालय समय से पी-एच.डी. हेतु परीक्षा का आयोजन नहीं करवा रहे हैं. इसके अलावा यह भी देखने में आया कि पी-एच.डी. में प्रवेश को लेकर यथोचित मानकों का पालन नहीं किया जा रहा है. इससे ऐसे लोगों द्वारा अनावश्यक रूप से प्रवेश लिया जा रहा है जिनका न तो शोध से कोई लेना-देना है और न ही उच्च शिक्षा से. ऐसी स्थिति के चलते यूजीसी शोध कार्य में गुणवत्ता और उच्च शिक्षा क्षेत्र में सुधार की जिस व्यवस्था को लागू करना चाह रही है, वह भी पूरी नहीं हो पा रही है. इसे देखते हुए नेट परीक्षा के माध्यम से पी-एच.डी. करने की नई व्यवस्था लागू किये जाने के साथ ही यूजीसी ने विश्वविद्यालयों द्वारा ली जाने वाली प्रवेश परीक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है.

 



यूजीसी द्वारा नेट के माध्यम से पी-एच.डी. हेतु नामांकन की व्यवस्था किये जाने से निश्चित रूप से उन विद्यार्थियों को प्रोत्साहन मिलेगा जो वास्तविकता में इसके लिए अपना नामांकन चाहते हैं. इस व्यवस्था से उन विद्यार्थियों का विभिन्न विश्वविद्यालयों की पी-एच.डी. सम्बन्धी प्रवेश परीक्षाओं हेतु भटकने से बचना होगा जो वास्तविक रूप में उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापन कार्य को अपना लक्ष्य बनाये हुए हैं. नेट परीक्षा के माध्यम से जहाँ वे असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने की पात्रता प्राप्त कर लेंगे वहीं पी-एच.डी. हेतु भी अपना नामांकन करवा सकेंगे. इस व्यवस्था के लागू होने के बाद भी यह निर्विवाद रूप से नहीं कहा जा सकता है कि इसके द्वारा शोध कार्यों में गुणवत्ता का विकास होगा. यूजीसी द्वारा भले ही पी-एच.डी. को शोध कार्य हेतु एक प्रक्रिया माना जाता हो मगर समाज में आज भी इसे महज एक उपाधि मानकर औपचारिकता को पूरा किया जाता है. मौलिक शोध कार्य को वरीयता देने से अधिक महत्त्व नाम के साथ डॉक्टरेट उपाधि का लग जाना रहता है.

 

देखा जाये तो आज भी कला, साहित्य, मानविकी आदि विषयों में इस प्रकार के शोध कार्य नहीं हो रहे हैं जिनके द्वारा समाज को एक दिशा दी जा सके. समाज के मुख्य बिन्दुओं, समाज की समस्याओं, दैनिक जीवन में सहयोगी होने वाले विषयों आदि से सम्बंधित शोध कार्य हेतु प्रोत्साहन भी नहीं दिया जाता है. ऐसे में इन क्षेत्रों में शोध कार्य को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता है. पी-एच.डी. के लिए किया जाने वाला शोध कार्य महज एक पुस्तकीय संस्करण बन कर रह जाता है. यदि शोध कार्य व्यक्ति के कैरियर के लिए होगा, उसकी एपीआई बढ़ाने के लिए होगा, उसकी प्रोन्नति के लिए आवश्यक होगा तो शोध कार्य में गुणवत्ता कैसे आएगी?  बावजूद इसके, इस नई व्यवस्था से शोध कार्य में गुणवत्ता के, योग्यता के आने की सम्भावना देखनी चाहिए लेकिन उसके लिए यूजीसी को कुछ सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है.

 

भले ही नेट की परीक्षा उत्तीर्ण करना विद्यार्थियों के लिए सदैव से चुनौती रहा हो मगर इसके द्वारा गुणवत्ता को बढ़ाने वाली योग्यता का चयन ही होगा, ऐसा कहना मुश्किल है. शोध कार्य की गुणवत्ता के लिए ऐसे योग्य विद्यार्थियों का चयन किये जाने की आवश्यकता है जिनकी रुचि शोध कार्य में हो. नेट परीक्षा आरम्भ से ही असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने की पात्रता मात्र रही है, अब यह पी-एच.डी. करवाने की पात्रता भी बन गई है. इससे शोध कार्य में गुणवत्ता के आने की, उच्च शिक्षा क्षेत्र में सुधार की सम्भावना न के बराबर ही है. यदि यूजीसी वाकई शोध कार्य में गुणवत्ता चाहती है तो उसे शोध कार्य हेतु एक अलग मार्ग निर्धारित करना होगा. जहाँ किताबी शोध कार्य के बजाय समाज के बीच जाकर शोध कार्य करवाया जाये. शोध कार्य इस तरह का हो जिससे आमजन के जीवन में सकारात्मकता आये, लोगों को एक दिशा मिले, कार्योंन्मुख जीवन-शैली का विकास हो, तब तो शोध कार्य की सार्थकता समझ आती है. यदि ऐसा करने में कोई भी शोध कार्य सफल नहीं होता है तो निस्संदेह वह कार्य महज उपाधि प्राप्ति का ही साधन मात्र बना रहेगा फिर भले ही उसे नेट परीक्षा के माध्यम से करवाया जाये या किसी अन्य प्रतियोगी परीक्षा के द्वारा.  





 

24 अप्रैल 2024

माधवी लता के तीर की हलचल

लोकसभा चुनाव की सरगर्मियाँ अपने चरम पर हैं. उम्मीदवारों का अपना जोश है और उनके समर्थक अपने ही अलग जोश में है. इस जोश में, उत्साह के बीच कुछ लोकसभा सीटें और कुछ प्रत्याशी ऐसे भी हैं जिनको व्यापक लोकप्रियता मिली हुई है, वे पर्याप्त चर्चा के केन्द्र में हैं. सात चरणों में संपन्न होने वाले चुनावों का अभी पहला चरण ही पूरा हुआ है मगर सूरत लोकसभा सीट, हैदराबाद लोकसभा सीट, उम्मीदवार माधवी लता लगातार चर्चा का विषय बने हुए हैं. सूरत सीट के चर्चा में आने का कारण वहाँ से भाजपा के प्रत्याशी मुकेश दलाल का निर्विरोध निर्वाचित होना है. इस सीट से कांग्रेस उम्मीदवारी खारिज हो जाने और अन्य प्रत्याशियों द्वारा नाम वापस लेने के कारण भाजपा प्रत्याशी को निर्विरोध विजयी घोषित करने के बाद से यह सीट लगातार चर्चा में बनी हुई है.

 

कुछ इसी तरह की चर्चा का विषय, लोकप्रियता के केन्द्र में हैदराबाद की सीट बनी हुई है. इस सीट पर विगत कई वर्षों से अपना कब्ज़ा बनाये असदुद्दीन ओवैसी के सामने भाजपा ने नए चेहरे माधवी लता को उतारा है. आजादी के बाद से लोकसभा के यहाँ संपन्न हुए कुल सत्रह चुनावों में दस बार ओवैसी परिवार की जीत हुई है. 1984 में असदुद्दीन ओवैसी के पिता सलाहुद्दीन ओवैसी ने पहली बार कांग्रेस के विजय अभियान को रोका था. उसके बाद से लगातार छह चुनाव सलाहुद्दीन ओवैसी ने और चार चुनाव असदुद्दीन ओवैसी ने जीते हैं. उनके खिलाफ मैदान में उतरी माधवी लता भले ही नया चेहरा हो मगर हैदराबाद की राजनीति में वे पिछले काफी समय से लगातार सक्रिय हैं. उनकी पहचान प्रखर हिन्दू नेता के साथ-साथ सजग सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में बनी हुई है. उनके हिन्दूवादी बयानों ने जहाँ उनको ओजस्वी वक्ता के रूप में पहचान दी वहीं झुग्गी-झोपड़ियों की मुस्लिम महिलाओं के सहायतार्थ काम करने ने उनको संवेदनशील व्यक्ति के रूप में भी जाना है.

 



इस चुनाव में ओवैसी पिछले कई वर्षों का चुनावी अनुभव लेकर उतरे हैं मगर माधवी लता पहली बार चुनावी मैदान में हैं. अपना पहला चुनाव होने के बावजूद माधवी के जोश में, उत्साह में किसी तरह की कमी नहीं दिखती है. इसी जोश, उत्साह में रामनवमी के अवसर पर उनका एक काल्पनिक तीर देशव्यापी चर्चा का विषय बन गया. इंटरनेट पर वायरल हुए एक वीडियो में रामनवमी की शोभायात्रा के अवसर पर माधवी लता बिना वास्तविक धनुष-वाण लिए इस तरह की भाव-भंगिमा बनाती हैं जैसे वे धनुष पर तीर चढ़ाकर उसे किसी पर चला रही हैं. उनके इस काल्पनिक तीर चलाने को लेकर इस आरोप के साथ प्राथमिकी दर्ज की गई कि उन्होंने शोभायात्रा के दौरान रास्ते में पड़ने वाली एक मस्जिद को निशाना बनाते हुए अपना काल्पनिक तीर चलाया था. उनके इस कृत्य से, भाव-भंगिमा से मुस्लिम समाज आहत हुआ है. अपने ऊपर दर्ज प्राथमिकी का विरोध करते हुए माधवी लता ने भी ओवैसी के विरुद्ध चुनाव आयोग में शिकायत की है. माधवी लता ने एक वीडियो का जिक्र करते हुए शिकायत की कि ओवैसी अपने चुनाव प्रचार के दौरान कसाइयों को गाय काटने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. वीडियो में वह ‘काटते रहो’ कहकर ‘बीफ जिंदाबाद’ का नारा भी लगा रहे हैं. यह एक प्रकार से खुलेआम गोमाँस खाने का समर्थन है. इससे एक समुदाय विशेष की भावनाएँ आहत हुई हैं.

 

हिन्दू, मुस्लिम समाज की भावनाओं के आहत होने की बात हो, तीर चलाने की मुद्रा बनाना हो, बीफ जिंदाबाद का नारा लगाना हो, ये सब राजनैतिक गलियारे की हलचल हैं. सोचने वाली बात ये है कि मुस्लिम समाज की खुलेआम कट्टरता से, उनके अतिवाद से हिन्दू समाज की भावनाएँ आहत नहीं होती हैं मगर एक काल्पनिक तीर पूरे समाज को आहत कर जाता है. यदि हैदराबाद के चुनावी माहौल को देखें तो इस बार स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि भाजपा का जिस तरह से दक्षिण में विस्तार हो रहा है उससे उसके विरोधियों में हलचल मची हुई है. वैसे तो हैदराबाद मुस्लिम बहुल सीट है किन्तु इस बार पाँच लाख से अधिक मतदाताओं के कम हो जाने तथा माधवी लता के प्रचार के निराले अंदाज से विरोधी खेमे में बेचैनी है. इस बेचैनी का एक और कारण असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा का तेलंगाना विधानसभा चुनाव के दौरान किया गया दावा भी है. उन्होंने दावा किया था कि राज्य की सत्ता में आने पर तीस मिनट के भीतर हैदराबाद का नाम बदलकर भाग्यनगर कर दिया जाएगा. केंद्रीय मंत्री और तेलंगाना भाजपा अध्यक्ष जी. किशन रेड्डी ने भी इसी तरह का बयान देकर हैदराबाद नाम परिवर्तन की राजनीति को हवा दी. विगत लम्बे समय से भाजपा जिस तरह से सनातन संस्कृति, राष्ट्रीय भावना को लेकर काम कर रही है उसे लेकर हैदराबाद का नाम भाग्यनगर किये जाने के समर्थकों में जबरदस्त उत्साह है.  

 

हैदराबाद में मुस्लिम लगभग साठ प्रतिशत, हिन्दू पैंतीस प्रतिशत और शेष में अन्य समुदाय हैं. भले ही 1984 में पहली जीत के बाद से ओवैसी परिवार का मत प्रतिशत बढ़ता रहा हो किन्तु माधवी लता द्वारा गरीब मुस्लिम महिलाओं के लिए काम करते रहने से उनको मुस्लिम समाज का समर्थन मिल रहा है. निवर्तमान सांसद एवं प्रत्याशी असदुद्दीन ओवैसी अथवा भाजपा के नए चेहरे माधवी लता में से किसका निर्वाचन होगा, ये तो यहाँ के मतदाताओं पर निर्भर है. यदि ओवैसी अपने पिछले रिकॉर्ड को बनाये रख पाते हैं तो सबकुछ जैसे का तैसा नजर आएगा किन्तु यदि माधवी लता की जीत होती है तो निश्चित ही इस शहर की पहचान की पुनर्व्याख्या तय होगी. चुनाव परिणाम कुछ भी हो ओवैसी के गढ़ में एक महिला का खम ठोकना दिलचस्प है. आत्मविश्वास से भरी हुई माधवी लता जोरदार चुनौती दे रहीं है. लोकसभा चुनाव परिणाम कुछ भी हो, हैदराबाद का भाग्य किसी भी करवट बैठे मगर इस सितारे का राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर चमकना तय है, एक उत्कृष्ट महिला नेत्री का उदय अवश्य है. 






 

22 अप्रैल 2024

भुलाए न भूले जो तारीख

समय गुजरता रहता है. दिन, महीने, साल भी गुजरते जाते हैं. इनके साथ-साथ तारीखें भी गुजरती जाती हैं मगर कुछ तारीखें ऐसी होती हैं जो गुजरने के बाद भी अपनी जगह पर रुकी रहती हैं. ऐसा नहीं कि ये तारीखें दिन, महीने, साल के साथ आगे नहीं बढ़तीं, ये भी आगे बढ़ती हैं मगर इन तारीखों में मिले निशान ज्यों के त्यों बने रहते हैं, जिसके कारण ऐसा लगता है कि ये तारीख ज्यों की त्यों अपनी जगह पर रुकी हुई है. लगभग सभी के जीवन में ऐसी कोई न कोई तारीख होती होगी, काश! ऐसी कोई तारीख किसी के जीवन में न आये जो हर पल, हर क्षण अपने होने का दुखद एहसास करवाती रहे. तमाम सारी दुखद तारीखों के बीच एक ऐसी ही दुखद तारीख हमारे लिए 22 अप्रैल है. ये एक ऐसी तारीख है जिसे चाह कर भी न तो हम भुला पा रहे हैं और निश्चित रूप से ताउम्र हमारे अभिन्न में इस तारीख को भुला सकेगा.

 



इस तारीख में जो होना था वो तो हो ही गया मगर इसे न भूल पाने का कारण इस तारीख को मिले वे निशान, वे ज़ख्म हैं जो हर पल साथ हैं, सोते-जागते अपना एहसास कराते हैं. एक दुर्घटना के बाद जो ज़ख्म, जो निशान, जो दर्द मिला उसके बाद बहुत से अपनों-परायों ने सांत्वना देने के लिए, हिम्मत बढ़ाने के लिए कहा कि समय के साथ इसे भूलने की कोशिश करो. अपने आपको काम में व्यस्त करके इस दुर्घटना के ज़ख्म को, निशान को भूलने का प्रयास करो. चूँकि अपने विश्वास, अपनी शक्ति पर विश्वास अखंड है तो सोचा कि एक बार ऐसी कोशिश करने में क्या समस्या है. आखिर जब खुद को मौत के मुँह के सामने खड़ा पाकर भी वापस लाने में किसी तरह की समस्या हमने खुद में महसूस नहीं की तो उस दुर्घटना के ज़ख्म को, दर्द को भुलाने में क्या समस्या? यही सोचकर पिछले कुछ सालों में लगातार प्रयास किया कि इस दर्द को भुला सकें मगर लाख चाहने के बाद भी इसे भुलाना संभव न हुआ.

 

यदि किसी एक दिन के आरम्भ को सुबह से जोड़कर देखें तो आखिर इस ज़ख्म को कैसे भुला दें जबकि नींद खुलने के बाद अपने दोनों पैरों को सामान्य स्थिति में लाने के लिए बीस-पच्चीस मिनट तक उनकी मालिश करनी होती है? कैसे भुला दें अपनी शारीरिक अक्षमता को जबकि स्वयं को खड़ा करने के लिए एक कृत्रिम पैर की आवश्यकता पड़ती है? कृत्रिम पैर के सहारे दोनों पैरों के दर्द को खुद में पीते हुए दैनिक कर्म संपन्न किये जाते हैं, इसे कैसे भूला जा सकता है? घर से बाहर जाने के लिए तैयार होने के पहले दाहिने पैर के क्षतिग्रस्त पंजे पर पट्टी के बाँधने का अनिवार्य कृत्य करना कैसे भुला देगा कि बिना इस पट्टी के चलना संभव नहीं? रात को सोने की कोशिश में बार-बार पंजे को इधर-उधर टकराने से बचाने का काम करते हुए नींद भी लेना, ऐसी कोशिश में कैसे भूल जाएँ 22 अप्रैल को? 2005 में हुई दुर्घटना के बाद से आज इस पोस्ट के लिखे जाने तक एक पल, एक क्षण ऐसा नहीं गुजरा जबकि दाहिने पंजे में, पैर में दर्द न हुआ हो तब कैसे भूल जाएँ इस दर्द को? अपने काम के दौरान, तमाम सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, अकादमिक गतिविधियों के दौरान बाँए कृत्रिम पैर द्वारा दिए जा रहे कष्ट को सहते हुए कैसे भूल जाएँ कि हमारा एक पैर नहीं है?

 



कई बार लगता है कि बहुत कुछ ऐसा होता है जिसके बारे में कहना बहुत आसान होता है मगर उस कहे को व्यावहारिक रूप देना बहुत कठिन होता है, लगभग असंभव होता है. ऐसा ही कुछ असंभव सा अब हमारे साथ जुड़ा हुआ है. ऐसा ही आजीवन साथ  रहने वाले दर्द हमारे साथ है. हमारे शरीर का अंग न होने के बाद भी शरीर का अंग बने कृत्रिम पैर के साथ पूरे जीवन भागदौड़ करनी है. किसी समय मैदान पर दस हजार मीटर की दौड़ लगाने वाले एथलीट का एक कदम अब बिना छड़ी के नहीं उठता है. ऐसी तमाम स्थितियों को, दिक्कतों कि साथ लेकर एक-एक पल गुजारते समय कैसे भुलाया जा सकता है इस तारीख को? बस आज इस तारीख को याद करते हुए शाम गुजर गई, रात गुजरने वाली है. दर्द जो हमेशा साथ रहना है, उसके लिए क्या रोना? जो ज़ख्म ज़िन्दगी भर के लिए यारी निभाने आया है उसे कैसे भुलाया जाये? ये भी उन्हीं मित्रों, रिश्तेदारों की तरह हैं जिनको छोड़ा भी नहीं जा सकता और जिनसे पीछा छुड़ाया भी नहीं जा सकता. 


 

14 अप्रैल 2024

रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा के साथ अन्याय



रानी लक्ष्मीबाई की यह प्रतिमा उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन में उरई नगर में लगी हुई है. शहर के मध्य में स्थित टाउनहॉल के सामने स्थित इस प्रतिमा के साथ इस तरह का अन्याय, अशोभनीय हरकत लगभग प्रत्येक पर्व, त्यौहार, जयंती आदि पर की जाती है. सजावट के नाम पर कभी घोड़े का सहारा लिया जाता है तो कभी रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा सहारा बनती है. 

कई-कई बार इस बारे में सम्बंधित व्यक्तियों को जानकारी भी दी गई, सुधार भी करवाया गया मगर ये हर बार की कहानी बनी हुई है. ये नया हाल इसी 14 अप्रैल को अम्बेडकर जयंती के अवसर पर किया गया है. प्रतिमा सजाने के चक्कर में बिजली की झालर को घोड़े के कान से बाँध दिया गया है. 

अब इसके साथ-साथ आप लोग रानी लक्ष्मीबाई की तलवार को न देखने लगिएगा. अंग्रेजों द्वारा झुकाई न जा सकी तलवार को प्रशासन द्वारा बराबर झुकाए रखा गया है, तोड़े रखा गया है. इस बारे में कई बार लिखित रूप से शिकायत की जा चुकी है मगर प्रशासन के कानों में जूँ नहीं रेंगती है. 

स्वतंत्र देश में हम लोग अभिशप्त हैं शायद अपने महानुभावों की ये दुर्दशा, अपमान देखने को. 



 

11 अप्रैल 2024

उम्मीदों की प्याली : एक अभिनव प्रयोग

पिछले दिनों 'उम्मीदों की प्याली' का आना हुआ. इसे लेकर मित्रों में, परिचितों में एक उत्सुकता दिखाई दी. प्रकाशन पूर्व जब भी इस बारे में चर्चा हुई तो सभी को यही बताया गया कि इस पुस्तक में एक तरह का प्रयोग किया गया है.



अब प्रकाशन पश्चात् इस प्रयोग से कितने लोग पुस्तक के माध्यम से परिचित हुए, इसकी जानकारी नहीं मगर प्रयोग के बारे में पूछा बहुत लोगों ने. पुस्तक कौन खरीदेगा, कौन नहीं... ये अलग विषय है, यहाँ इस पुस्तक में किये गए प्रयोग के बारे में कुछ शब्द.

कविताओं के रूप में होने के बाद भी इसमें संकलित रचनाओं को कविता नहीं कह सकते. असल में किसी कविता को पढ़ कर, बातचीत के दौरान उभरे पद्य विचार को, दो-चार काव्य-पंक्तियों के प्रत्युत्तर के रूप में उभरी काव्य-पंक्तियों को संकलित करके पुस्तक का रूप दे दिया.



इस प्रयोग के साथ-साथ एक प्रयोग ये भी किया कि इस पुस्तक में संकलित सभी 80 काव्य-रचनाओं को एक-एक स्केच के द्वारा सजाया है.




रचनाकार-द्वय के बीच बातचीत के रूप में उभरी काव्य-रचनाओं को स्केच भी रचनाकार-द्वय के द्वारा मिले हैं.
उम्मीदों की प्याली को आप अपने हाथों में लेकर उसका स्वाद लेंगे तो एहसास और भी सुखद होगा.





'उम्मीदों की प्याली' श्वेतवर्णा प्रकाशन की वेबसाइट www.shwetwarna.com पर उपलब्ध है.