17 अगस्त 2025

फिल्म शोले उम्र में हमसे दो वर्ष छोटी है

इस समय उम्र में हमसे दो वर्ष छोटी फिल्म 'शोले' की चर्चा चारों तरफ बनी हुई है. इसका कारण सभी को ज्ञात है. इस फिल्म के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिला, इसकी तमाम वे जानकारियाँ भी निकल कर सामने आईं जो आम दर्शकों तक, पाठकों तक नहीं पहुँच पाती हैं.

 

'शोले' हमारी भी पसंदीदा फिल्मों में से एक है. कितनी-कितनी बार देख चुके, इसकी गिनती नहीं; कितनी-कितनी बार देख सकते हैं, इसका भी आकलन नहीं. यहाँ फिल्म की अनावश्यक चर्चा (अनावश्यक इसलिए क्योंकि ऐसा कुछ भी नहीं होगा जो आपको पता न हो) करने के पहले बरसों पहले की अपने मित्र पुनीत बिसारिया की बात को यहाँ रखना चाहेंगे.....

 

बहुत साल पहले (अब तो समय भी याद नहीं) पुनीत ने एक दिन फोन करके कहा कि 'कुमारेन्द्र फिल्मों पर लिखना शुरू करो.' उस समय पुनीत ने फिल्मों पर लिखना शुरू ही किया था. उन्होंने आगे कहा कि 'साहित्य और फिल्मों का साथ हमेशा से रहा है, इस पर काम करना, लिखना शुरू करो.' हमने अपने परिचित अंदाज में हँसते (ठहाका मारते) हुए कहा कि 'यार तुम लिख तो रहे हो, हमें काहे जबरन परेशान करते हो. हम लिखने लगे तो तुम्हारा नाम कट जायेगा.' पुनीत भी अपनी शैली में हँसे और बोले कि 'आप जैसे मित्र के लिए नाम कटता हो तो कट जाए.'

 

बहरहाल, पुनीत पूरी तन्मयता से इस क्षेत्र में लगे रहे और आज उनका पर्याप्त नाम इस क्षेत्र में है. हम तो बीच में जुगाली जैसा कुछ-कुछ करने लगते हैं और यदा-कदा मिलती वाह-वाह से ही प्रसन्न हो लेते हैं. (हालाँकि पुनीत हमारे इसी व्यवहार, रवैये से नाराज भी हो जाते हैं. वैसे नाराज तो बहुत से मित्र हो जाते हैं, पर क्या करें अंदाज है अपना कि बदलता नहीं.) वैसे आश्चर्य करने वाली बात आप सबको बता दें कि महाविद्यालय में एम.ए. के विद्यार्थियों को एक प्रश्न-पत्र के रूप में सिनेमा पर ज्ञान हम ही देते हैं. (ये और बात है कि कुछ लोग 'असमर्थ' हैं जो ये देख नहीं पाते.)

 



खैर, दो-चार पंक्तियाँ शोले पर.... वो ये कि अभी तक कि तमाम सारी देखी-अनदेखी फिल्मों के बीच यही एकमात्र फिल्म ऐसी लगी जिसमें सभी पात्र अमरत्व पा गए. इन पात्रों ने भले एक-दो संवाद बोले, भले दो-चार मिनट को परदे पर आये मगर अमर हो गए.

 

"सूरमा भोपाली हम ऐसेही नहीं हैं."

"हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं."

"हमने आपका नमक खाया है सरदार."

"होली कब है?"

"तुम्हारा नाम क्या है बसंती?"

 

ऐसे बहुत से संवादों के बीच सांभा, मौसी, कालिया, अहमद, रहीम चाचा सहित बहुत सारे किरदार आज भी हम सबके दिलों में बसे हुए हैं. शुरूआती असफलता के बाद भी हताशा में न घिरकर फिल्म चलती रही और फिर रिकॉर्ड पर रिकॉर्ड बनाती रही. इस सफलता के बीच 'शोले' के हिस्से में एक अजब तरह की असफलता भी आई. वो ये कि फिल्म फेयर की लगभग सभी केटेगरी में नॉमिनेट होने पर भी जबरदस्त सफलता के बाद भी मात्र एक पुरस्कार (एडिटिंग का) ही प्राप्त कर सकी.

 

इस फिल्म की सफलता से एक बात सीखने लायक है कि असफलता से निराश नहीं होना है, लगातार आगे बढ़ता रहना है. दूसरे यह कि जबरदस्त सफलता भी सम्मान-पुरस्कार दिलवाने का पैमाना नहीं है.


13 अगस्त 2025

बदलाव एवं उपलब्धियों भरी सुखद यात्रा

देश के गौरवशाली इतिहास की छत्रछाया में अमृतकाल जैसी अवधारणा संग स्वतंत्रता का उत्सव जोर-शोर से मनाया जा रहा है. यह समय गौरव करने का इसलिए भी है क्योंकि वैश्विक पटल से अनेकानेक सभ्यताएँ लुप्त हो गईं किन्तु भारतीय संस्कृति, सभ्यता तमाम चोटों, आघातों को सहने के बाद भी अपनी वैभवशाली गाथा को साथ लिए आगे बढ़ रही है. बहुत से लोगों के लिए इसे भले राजनैतिक कदम, सरकारी एजेंडा कहा जाता हो मगर स्वतंत्रता के उत्सव को उमंग-उत्साह के साथ ही मनाये जाने की आवश्यकता है. यह एक तरफ जहाँ हमारी प्राचीन वैभवशाली संस्कृति, सभ्यता से परिचय कराता है वहीं वर्तमान युवा पीढ़ी को हमारे वीर-वीरांगनाओं का वह बलिदान याद करवाता है, जिसके चलते आज ऐसे उत्सव मना रहे हैं.

 

स्वतंत्रता के इन वर्षों में बहुत सी उपलब्धियाँ हैं जिनका सुखद एहसास रोम-रोम को पुलकित कर देता है. बावजूद बहुत सारी उपलब्धियों के आज भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो गुलामी के दिनों को, अंग्रेजों के शासन को सही ठहराते हैं. ऐसे में सवाल उठने स्वाभाविक हैं कि क्या वाकई देश ने आज़ादी से अब तक कुछ पाया नहीं है? क्या अभी तक की यात्रा में किसी तरह की कोई उपलब्धि हासिल नहीं हुई है? विगत उपलब्धियों, अनुपलब्धियों को यदि पूर्वाग्रह मुक्त होकर समग्र रूप में देखें तो हम लोगों को निराशा नहीं होगी. यह सबसे बड़ी उपलब्धि कही जाएगी कि जब देश स्वतंत्र हुआ तब देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह कृषि पर निर्भर थी. आज स्थिति यह है कि कृषिप्रधान कहे जाने के बाद भी देश का आर्थिक ढाँचा अकेले कृषि आधारित नहीं है, अन्य क्षेत्रों ने अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की है. वर्तमान में अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 27 प्रतिशत, सेवा क्षेत्र का योगदान लगभग 54 प्रतिशत है.

 



शिक्षा के बिना उन्नति, विकास की कल्पना करना संभव नहीं. नालंदा, तक्षशिला जैसे शैक्षणिक संस्थानों के नष्ट कर दिए जाने के बाद महसूस हो रहा था कि शायद देश का शैक्षणिक विकास बहुत देर में हो. इस आशंका को विगत वर्षों की यात्रा में गलत सिद्ध किया गया है. प्राथमिक क्षेत्र से लेकर उच्च शिक्षा और शोध क्षेत्र तक देश में पर्याप्त विकास हुआ है. आज़ादी के समय देश में साक्षरता दर लगभग 18.3 प्रतिशत थी जो वर्तमान में लगभग 78 प्रतिशत है. चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में 1950 में देश में केवल 28 मेडिकल कॉलेज थे. नेशनल मेडिकल काउंसिल के अनुसार 2024-25 में 766 मेडिकल कॉलेज हैं, इनमें से 423 सरकारी और 343 निजी मेडिकल कॉलेज हैं. क्या इसे विकास या उपलब्धियों के रूप में नहीं देखा जायेगा? इसके अलावा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय प्रबन्ध संस्थान, कृषि संस्थान, उच्च शैक्षणिक संस्थानों ने भी संख्यात्मक, गुणात्मक रूप में पर्याप्त विकास किया है.

 

आज़ादी के बाद से लगातार अनेकानेक क्षेत्रों में विकास और बदलाव होते रहे हैं. तकनीक के मामले में क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिले. किसी समय दूरसंचार माध्यम की अपनी सीमितता थी वहीं आज इस क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं. समाज में गिने-चुने लोगों के घरों में बेसिक फोन की सुविधा हुआ करती थी जो आज हर हाथ में मोबाइल के रूप में परिवर्तित हो गई है. इंटरनेट सुविधा, उसकी स्पीड के द्वारा न केवल धरती पर वरन अन्तरिक्ष क्षेत्र में भी व्यापक बदलाव देखने को मिले. ज्ञान-विज्ञान में भी देश में हुए बदलाव प्रत्येक नागरिक को गौरवान्वित कर सकते हैं. किसी समय में सेटेलाईट भेजे जाने के लिए हम दूसरे देशों की तकनीक पर निर्भर हुआ करते थे जबकि आज हमारे केंद्र अन्य देशों को यह सुविधा उपलब्ध करवा रहे हैं. परमाणु परीक्षण, टेस्ट ट्यूब बेबी, मंगल ग्रह का अभियान, अन्तरिक्ष स्टेशन पर किसी भारतीय का जाना, बुलेट ट्रेन की तैयारी, ओलम्पिक में पदक जीतना, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 का हटना आदि वे स्थितियाँ हैं जिनको उपलब्धि के रूप में ही स्वीकारा जाता है.

 

कहते हैं न कि सफ़ेद पटल पर एक छोटा सा काला बिंदु भी बहुत दूर से चमकता है, कुछ ऐसा हाल इन उपलब्धियों का है, लोगों की मानसिकता का है. ये सच है कि तकनीकी विकास के दौर में हमारे यहाँ सामाजिक विकास में गिरावट देखने को मिली है. साक्षरता का स्तर बढ़ा है मगर स्त्री-पुरुष लिंगानुपात में अंतर भी बढ़ा है, महिलाओं-बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएँ बढ़ी हैं. एक तरफ हमें अन्तरिक्ष में अपने कदम रखे हैं तो दूसरी तरफ हमने अपनी ही धरती को जबरदस्त नुकसान पहुँचाया है. कृषि, खाद्यान्न के मामले में हम यदि आत्मनिर्भर होते जा रहे हैं तो हम जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं रख सके हैं. हमारा आर्थिक ढाँचा वैशिक स्थितियों को देखते हुए बहुत सुदृढ़ है मगर लगातार होते घोटालों को हम नहीं रोक सके हैं. मोबाइल, इंटरनेट क्रांति ने समूचे विश्व को एक ग्राम की तरह बना दिया है मगर आपसी भाईचारे-सौहार्द्र को हम मजबूत नहीं कर सके हैं, उसमें अश्लीलता की, अपराध की दीमक लगा दी है.

 

ऐसे कुछ और पहलू भी हैं, जिनके आधार पर बहुत सारे लोग देश की वास्तविक उपलब्धियों को विस्मृत कर जाते हैं. वे भूल जाते हैं हमारी लोकतान्त्रिक शक्ति को जहाँ अंतिम पायदान के व्यक्ति तक को भी अवसर उपलब्ध हैं. ये और बात है कि संवैधानिक नियमों की आड़ में यहाँ एक निर्दलीय विधायक भी मुख्यमंत्री बन जाता है मगर यही संवैधानिक खूबसूरती भी है कि कोई ऑटो चलाने वाला, आदिवासी समाज से आने वाला, अत्यंत पिछड़ी पृष्ठभूमि से आने वाला भी जनप्रतिनिधि बन कर सदन में पहुँचता है, देश का प्रथम नागरिक बनता है. निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विगत वर्षों की भदलाव भरी यात्रा सुखद रही है, उपलब्धियों भरी रही है. इस यात्रा में यदा-कदा मिलते झटकों को भी सफ़र का हिस्सा समझते हुए उनको स्वीकार करना होगा, उनका भी एहसास करते हुए आगे बढ़ना होगा.


05 अगस्त 2025

फटकार के बाद भी नहीं रुकेंगे विवादित बोल

सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को उनकी टिप्पणी के लिए फटकार लगाई है. राहुल गांधी द्वारा भारत-चीन सेनाओं के बीच हुई झड़प को लेकर टिप्पणी की गई थी कि चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों को पीट रहे हैं. इस बयान पर बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन के पूर्व निदेशक उदय शंकर श्रीवास्तव ने राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का केस दर्ज करवाया था. इस मामले में हो रही सुनवाई पर न्यायालय ने कहा कि एक भारतीय विश्व में सबसे वीर भारतीय सेना के विषय में ऐसा कैसे कह सकता है कि वो चीन से पिट रही है. राहुल गांधी के साथ इस तरह की घटना तीसरी बार हुई है जबकि उनको न्यायालय से फटकार मिली है. चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों को पीट रहे हैं के बयान के साथ-साथ उनको इस बात के लिए भी फटकारा गया है कि चीन ने भारत की दो हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर रखा है. इस बयान पर अदालत ने उनसे सवाल किया कि आखिर उन्हें यह कैसे पता चला कि चीन ने भारत की जमीन पर कब्जा कर लिया है?

 

राहुल गांधी के द्वारा इस तरह का विवादित बयान पहली बार नहीं दिया गया है. पिछली लम्बी समयावधि में उनके द्वारा दिए गए अनेकानेक बयानों को देखकर लगता है कि इस तरह की बयानबाज़ी करना जैसे उनकी आदत बन चुका है. स्मरण रहे कि इससे पहले एक मामले में उनको सजा भी सुनाई गई थी जिसके चलते राहुल गांधी को लोकसभा की सदस्यता भी गँवानी पड़ी थी. राहुल गांधी ने अप्रैल 2019 कर्नाटक में एक चुनावी रैली में कहा था कि ललित मोदी, नीरव मोदी, नरेन्द्र मोदी का सरनेम कॉमन क्यों है? सारे चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है? इस बयान पर समूचे मोदी समुदाय को बदनाम करने का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ भाजपा नेता पूर्णेश मोदी ने आपराधिक मानहानि का केस दर्ज कराया था. इसी मामले में राहुल गांधी को दो साल की सजा सुनाई गई थी, जिसके चलते उनको लोकसभा की सदस्यता छोड़नी पड़ी थी. इसी तरह नवम्बर 2022 में भारत जोड़ो यात्रा के दौरान इस बयान पर कि सावरकर ने अंग्रेजों को माफीनामा लिखकर महात्‍मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को धोखा दिया था, राहुल गांधी को वीर सावरकर के खिलाफ आपत्तिजनक बयानबाजी करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की फटकार सुननी पड़ी थी.

 



अपनी बयानबाज़ी के कारण, विवादित बोलों के कारण राहुल गांधी को लगातार न्यायालयों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं, सर्वोच्च न्यायालय से डाँट भी खानी पड़ रही है, इसके बाद भी उनके विवादित बयान देने सम्बन्धी आदत में किसी तरह की कमी नहीं आई है. राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद में कथित दलाली को लेकर की गई गलतबयानी के कारण उनको सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा देकर माफी माँगनी पड़ी थी. राहुल गांधी को समझना चाहिए कि वे वर्तमान में लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं और ऐसे में उनका दायित्व बनता है कि वे जनहित मामलों पर, सरकार की गलत नीतियों पर अपनी बात को संसद में खुलकर रखें. बजाय ऐसा करने के उनके द्वारा कभी संसद के भीतर, कभी संसद के बाहर तो कभी सोशल मीडिया पर अनावश्यक टिप्पणी की जाती है. उनके ऐसा करने में वे दलगत विचारधारा का विरोध करते-करते देश का विरोध करने लगते हैं. अपनी इस बयानबाज़ी में वे सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ खुलकर बोलने की बजाय प्रधानमंत्री के लिए भद्दी, अपमानजनक भाषा-शैली का प्रयोग करने लगते हैं.

 

भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस और उसके वरिष्ठ नेताओं द्वारा राहुल गांधी को एक परिपक्व नेता के रूप में, जिम्मेदार पदाधिकारी के रूप में प्रतिष्ठित किया जाने लगा था. इसके पीछे की रणनीति उनको प्रधानमंत्री पद के लिए स्वीकार्य बनाना, नरेन्द्र मोदी के सापेक्ष स्थापित करना रहा है. उनके विवादित बयानों के बाद दर्ज मामलों, न्यायालयों के रुख, सर्वोच्च न्यायालय की फटकारों के शुरूआती मामलों के बाद ऐसा समझा गया था कि राहुल गांधी अब सँभलकर बयानबाज़ी करेंगे मगर उनके विवादित बोलों को देखकर लगता है कि उन पर अदालतों के बर्ताव का कोई असर नहीं हुआ है. ऐसी स्थिति में अब यह सम्भावना कम ही है कि सर्वोच्च न्यायालय की वर्तमान फटकार के बाद राहुल गांधी भविष्य में राष्ट्रीय हितों पर बात करना पसंद करेंगे, विवादित बोलों से बचने की कोशिश करेंगे. ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि विगत कई वर्षों के उनके व्यवहार, बर्ताव, भाषा-शैली को देखकर लगता है कि वे अभी भी राजशाही मानसिकता से ग्रसित हैं. उनके द्वारा भले ही अपने भाषण में कहा गया हो कि वे राजा नहीं बनना चाहते, इस तरह की शब्दावली को पसंद नहीं करते मगर उनकी भाषा-शैली, हाव-भाव, बयानबाज़ी किसी भी रूप में राजशाही अंदाज से कम नहीं.

 

पाकिस्तान और चीन को पसंद आने वाले बयान देना, ऑपरेशन सिन्दूर पर सवाल उठाना, डोकलाम विवाद के समय चीनी राजदूत से मिलना, ब्रिटेन और अमेरिका में भारतीय लोकतंत्र का अनादर करना, लोकसभा में चुनाव आयोग पर आरोप लगाते हुए उसे धमकी देना, अमेरिकी राष्ट्रपति के बयानों का समर्थन करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को मृत बताना आदि ऐसे मामले हैं जो राहुल गांधी के बयानों की दशा-दिशा निर्धारित करते हैं. अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद प्रियंका गांधी सहित उनके अनेक समर्थकों द्वारा न्यायालय की टिप्पणी को निशाना बनाया जा रहा है तब लगता नहीं कि राहुल गांधी के बर्ताव, विशेष रूप से उनकी भाषा-शैली में किसी तरह का बदलाव होगा. संभवतः उन्होंने अपना मन बना रखा है कि वे राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध, प्रधानमंत्री के विरुद्ध विवादित बयानबाज़ी करते ही रहेंगे, इसके लिए भले ही उन पर कानूनी कार्यवाही होती रहे, भले ही न्यायालय से फटकार लगती रहे.

 


01 अगस्त 2025

प्रेमचन्द का इस्लामिक तुष्टिकरण

आये दिन चर्चा होती है फिल्मों में तुष्टिकरण के सम्बन्ध में. नायक को हिन्दू देवी-देवताओं से नफरत होती है पर 786 के बिल्ले पर विश्वास होता है. साधु-संत ढोंगी दिखाए जाते हैं मगर मौलवी-मौलाना विश्वासी होते हैं. ऐसी अनेकानेक घटनाएँ हैं, अनेकानेक फ़िल्में हैं. गौर करियेगा, ये फ़िल्मी बातें आज़ादी के बहुत बाद की हैं. किसी दौर में तो मुस्लिम अभिनेताओं को भी अपना स्थान बनाये रखने के लिए हिन्दू नाम अपनाने पड़े थे. बहरहाल, फिल्मों में इस तरह की हरकतें आज़ादी के बहुत बाद शुरू हुईं जबकि हिन्दू पात्र खलनायक और मुस्लिम पात्र नायक दिखाए गए. हिन्दू आस्था को ढोंग बताया गया और इस्लामिक पद्धति को स्वीकारा गया.

 



आज़ादी के बहुत पहले 1933 में एक कहानी प्रकाशित हुई थी ईदगाह, आप सबने पढ़ी होगी. लेखक हैं इसके प्रेमचन्द. गौर करियेगा, इस कहानी में हामिद दया का मानक बनता है, अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदता है. आखिर ऐसा पात्र हिन्दू भी गढ़ा जा सकता था लेकिन प्रेमचन्द ने नहीं गढ़ा. प्रेमचन्द ने हिन्दू पात्र में रचा घीसू और माधव को, कहानी को (उपन्यास) नाम दिया कफ़न. जिस-जिसने इसे पढ़ा होगा वे अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह का हिन्दू पात्र रचा गया. ऐसा उस लेखक द्वारा किया गया जिसे उपन्यास सम्राट कहा गया. जिसकी कोई फंडिंग इस्लामिक देशों से नहीं थी. समझना कठिन नहीं कि हिन्दू विरोधी नैरेटिव बरसों से बहुत ही सहजता के साथ चलाया-फैलाया जाता रहा है.

 


29 जुलाई 2025

समाज की कड़वी हकीकत है बाल श्रम

ऐसे दृश्य हम सबकी आँखों के सामने से आये दिन गुजरते ही होंगे जबकि छोटे-बड़े व्यापारिक संस्थानों, दुकानों, ढाबों आदि में बच्चे काम कर रहे हैं. कहीं कोई चाय-पानी पिलाने का काम कर रहा है, कहीं कोई झाड़ू-पोंछा करने का काम कर रहा है. सामान्य रूप में इस स्थिति को बाल श्रम के रूप में जाना जाता है. कृषिकार्य, पारिवारिक व्यापार में मदद, होटल, ढाबों आदि में बच्चों को जबरिया काम पर लगा दिया जाता है. कई बार इन बच्चों से बलपूर्वक भी काम लिया जाता है. ऐसा उस स्थिति में सहजता से होता दिख रहा है जबकि बाल श्रम ( निषेध एवं विनियमन) संशोधन बिल 2016 पारित हो चुका है. इसके पश्चात् बाल श्रम के साथ-साथ किशोरों को भी श्रमिक सम्बन्धी कार्यों में लगाये जाने को प्रतिबंधित करने के सम्बन्ध में बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) संशोधन नियम 2017 पारित किया गया. यह संशोधन भारत में बाल और किशोर श्रम को समाप्त करने के उद्देश्य से कानूनी ढाँचे को मजबूत करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है. इसके द्वारा नियमों में बाल श्रम के स्थान पर बाल एवं किशोर श्रम शब्द जोड़ा गया तथा व्यापक आयु वर्ग को मान्यता दी गई. यहाँ बाल श्रम का सन्दर्भ ऐसे कार्यों से है जिसमें कार्य करने वाला व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित आयु सीमा से छोटा होता है. इसको कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने बच्चों का शोषण करने वाला माना है.

 



भारत में बाल श्रम की समस्या दशकों से प्रचलित है. सरकारें लगातार इसके उन्मूलन हेतु चिन्तित दिखाई देती हैं. देश के संविधान का अनुच्छेद 23 खतरनाक उद्योगों में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है. भारत सरकार द्वारा बाल श्रम की समस्या को समाप्त करने हेतु नियमित रूप से क़दम उठाए गए हैं. 1986 में बाल श्रम निषेध और नियमन अधिनियम पारित किया गया. इसके अनुसार खतरनाक उद्योगों में बच्चों की नियुक्ति निषिद्ध है. इसी तरह वर्ष 1987 में राष्ट्रीय बाल श्रम नीति बनाई गई थी. इसके बाद भी देश में बाल श्रमिकों की बड़ी संख्या है. इन बाल श्रमिकों में अधिकतर घरेलू नौकर, ग्रामीण और असंगठित क्षेत्रों में, कृषि क्षेत्र में कार्य करते हैं. इन सामान्य से कार्यों के अलावा खतरनाक और जोखिमयुक्त माने जाने वाले उद्योगों जैसे बीड़ी बनाना, गलीचा बुनाई, चूड़ी निर्माण, काँच उद्योग, चमड़ा, प्लास्टिक का सामान निर्माण, विस्फोटक आदि में भी कम उम्र के बच्चे लगे हुए हैं. भारत की जनगणना 2011 के अनुसार 5-14 वर्ष की आयु वर्ग के लगभग एक करोड़ बच्चे कार्यरत हैं जिनमें से लगभग 80 लाख बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों में कृषक और खेतिहर मजदूरों के रूप में कार्य करते हैं. 

 

किसी अधिनियम के अस्तित्व में आ जाने भर से बाल श्रम को रोका जाना सम्भव नहीं. ऐसा इसलिए क्योंकि समाज में अनेकानेक परिवार ऐसे हैं जिनको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए, अपने जीवन को बचाए रखने के लिए न चाहते हुए भी अपने बच्चों को श्रमिक के रूप में कार्य करवाना पड़ता है. ऐसे परिवारों के माता-पिता के लिए बाल श्रम एक सामान्य सी प्रक्रिया होती है. इस तरह की सोच का मुख्य कारण गरीबी को माना जा सकता है. आज के दौर का यह बहुत बड़ा सच है कि विकास के बहुत बड़े-बड़े दावे करने के बाद भी समाज से गरीबी को दूर नहीं किया जा सका है. आज भी बहुतायत में ऐसे परिवार हैं जिनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं. ऐसे परिवारों के सामने भोजन, पानी, वस्त्र, घर, शिक्षा, चिकित्सा आदि की समस्या विकराल रूप में होती है. ऐसी स्थिति में इन परिवारों को भरण-पोषण सहित अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने बच्चों को काम पर लगाना पड़ता है.  

 



देखा जाये तो बाल श्रम और गरीबी का सह-सम्बन्ध बना हुआ है. इसका दुष्प्रभाव निश्चित रूप से बच्चों के स्वास्थ्य पर तो पड़ता ही पड़ता है, उनकी शिक्षा भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है. जहाँ एक तरफ कुपोषण और अन्य शारीरिक बीमारियाँ आये दिन बच्चों को घेरे रहती हैं वहीं दूसरी तरफ गरीबी और बाल श्रम में संलिप्त होने के कारण बच्चों में अवसरों, शिक्षा की कमी के कारण मानसिक परेशानियाँ देखने को मिलती हैं. बाल श्रम को रोकने के लिए सरकारों द्वारा समय-समय पर अनेक कानून बनाये गए हैं. इसी तरह से बच्चों की शिक्षा व्यवस्था पर भी ध्यान देते हुए शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया गया. इस कानून के द्वारा 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया है. इसके पीछे सोच यही रही है कि इस आयु-वर्ग के बच्चे शिक्षा प्राप्त कर खुद को बाल श्रम, गरीबी आदि के चंगुल से मुक्त कर सकें. इसके बाद भी स्थितियों को सुखद नहीं कहा जा सकता है.

 

एक कड़वा सच यही है कि सिर्फ कानूनों के द्वारा बाल श्रम को रोका जाना सम्भव नहीं. इसके लिए जनजागरूकता भी आवश्यक है, परिवारों की गरीबी दूर होना आवश्यक है. ऐसे में बाल श्रम को समाप्त करने के लिए समाज और सरकार दोनों को सामूहिक रूप से सक्रिय होना होगा. प्रत्येक नागरिक को संकल्पित होना पड़ेगा कि वह बाल श्रम में संलिप्त लोगों को जागरूक करेगा. बाल श्रमिकों के अभिभावकों को बाल श्रम से होने वाले नुकसान के बारे में समझाना होगा. सरकार को ऐसे अभिभावकों की आय निर्धारण सम्बन्धी कदम उठाने होंगे. बच्चों को स्कूली शिक्षा के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन की दिशा में भी प्रयास करने होंगे. समवेत प्रयासों से ही बाल श्रम को समाप्त करने की उम्मीद की जा सकती है.