वर्तमान
दौर में जब महिला सशक्तिकरण की चर्चा होती है तो उन घटनाओं की स्मृति मन-मष्तिष्क
में नहीं उठती है जिनको महिला सशक्तिकरण का आधार कहा जाता है. विश्व स्तर पर ऐसी चार
घटनाएँ हैं जिन्होंने स्त्री-विमर्श को सशक्तता, वास्तविकता प्रदान की, इनके परिदृश्य में पुरुष वर्ग का हाथ रहा है. इन घटनाओं में सन् 1789 की फ्रांसीसी क्रांति,
जिसने समानता, स्वतन्त्रता, बंधुत्व के नैसर्गिक अधिकारों को लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित
किया; सन् 1829 का राजा राममोहन राय का सती प्रथा विरोधी कानून,
जिसने स्त्री को मानव रूप में स्वीकार करने का अवसर दिया; तीसरी घटना
सन् 1848 में ग्रिमके बहिनों द्वारा तीन सौ स्त्री-पुरुषों की
सभा के द्वारा नारी दासता को चुनौती देते हुए नारी सशक्तिकरण की आधारशिला रखना और चौथी
घटना के रूप में सन् 1867 में जे.एस. मिल द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेण्ट
में स्त्री के वयस्क मताधिकार का एक प्रस्ताव रखना, जिसने स्त्री को भी मिलने वाले
कानूनी एवं संवैधानिक अधिकारों को बल दिया. विश्व स्तर पर इन
चार घटनाओं के सापेक्ष अनेक कार्यों के द्वारा महिला सशक्तिकरण के प्रयास होते
रहे. न्याय और समानता के पक्षधर लोगों द्वारा समय-समय पर किये जाने वाले कार्यों
से समाज में स्त्री-पुरुष समानता की अवधारणा को बल मिलता रहा.
इसका
व्यावहारिक उदाहरण देश के नए संसद भवन में देखने को मिला जबकि महिलाओं के लिए 128वें संविधान संशोधन के द्वारा नारी शक्ति वंदन अधिनियम नामक विधेयक पारित
किया गया. इस विधेयक के द्वारा लोकसभा और प्रदेश की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए
33 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है. अब लोकसभा की
543 सीटों में से 181 सीटें महिलाओं के
लिए आरक्षित होंगी. लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित
जनजाति के लिए पहले से ही सीटों के आरक्षण की व्यवस्था है. इन्हीं आरक्षित सीटों में
एक तिहाई सीटें अब महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी. अभी लोकसभा में अनुसूचित
जाति-जनजाति के लिए 131 सीटें आरक्षित हैं. महिला आरक्षण विधेयक
के बाद इन्हीं सीटों में से 43 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित
हो जाएँगी. इस विधेयक को परिसीमन के बाद ही पूरी तरह से लागू किया जा सकेगा. ऐसा माना
जा रहा है कि आगामी वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में महिला आरक्षण
विधेयक का व्यावहारिक रूप देखने को न मिलेगा क्योंकि अभी परिसीमन होना बाकी है. चूँकि
आरक्षण पश्चात् सीटों की गणना वर्तमान परिसीमन पर की गई है, ऐसे में नए परिसीमन
पश्चात् इसमें वृद्धि संभव है. लागू हो जाने के बाद महिला आरक्षण केवल 15 साल के लिए ही वैध होगा लेकिन इस अवधि को संसद आगे बढ़ा सकती है. प्रति
पाँच वर्ष पर महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें बदलती रहेंगी. यह उसी तरह से होगा जैसे
कि स्थानीय निकाय चुनावों में होता है. यहाँ भी पंचायत और नगर पालिकाओं में एक तिहाई
सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं. इनमें प्रत्येक चुनाव में सीटों का आरक्षण बदलता
रहता है.
निश्चित
ही नए संसद भवन में नारी शक्ति वंदन के रूप में सभी दलों ने महिला शक्ति का वंदन
करते हुए उस महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने में समर्थन दिया, जिसका पूर्व में
कई बार विरोध किया जा चुका है. 1996 में देवगौड़ा नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा की
सरकार द्वारा इसे लाया गया था. इसके बाद राजग और संप्रग सरकारों ने भी इसे पारित
किये जाने का प्रयास किया मगर दोनों सरकारों के अनेक घटक दलों के विरोध के कारण यह
पारित नहीं हो सका. वर्ष 2010 में मनमोहन सिंह सरकार ने इसे राज्यसभा में पारित
करवा लिया था किन्तु वह लोकसभा में इसे पारित करवा पाने में असफल रही थी. ऐसे में
आखिर अब अचानक से ऐसा क्या हो गया कि सभी दल इसे लागू किये जाने पर सहमत नजर आये? इसके
लिए नरेन्द्र मोदी नेतृत्व वाली सरकार के विगत वर्षों के वे कार्य प्रभावी रहे जो
महिलाओं का सामाजिक स्तर बढ़ाने के लिए किये जाते रहे. बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान,
उज्ज्वला योजना, घर-घर शौचालय, जनधन खातों के लिए महिलाओं की भागीदारी, मुद्रा
योजना, तीन तलाक के विरुद्ध कानून बनाना आदि ऐसे कार्य हैं जिनके द्वारा सरकार का
महिलाओं के पक्ष में खड़े होने का देशव्यापी सन्देश गया है. नए संसद भवन में विशेष
सत्र के माध्यम से केन्द्र सरकार ने स्पष्ट सन्देश देने का कार्य किया कि महिलाओं
का सामाजिक, राजनैतिक उत्थान करना उसकी प्राथमिकता में है.
अब
जबकि विधेयक पारित हो चुका है और परिसीमन पश्चात् यह अपने व्यावहारिक रूप में भी आ
जायेगा तब राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं के सशक्तिकरण को देखा-समझा जा सकेगा.
पंचायतों में लागू महिला आरक्षण का दूसरा पक्ष किसी से भी छिपा नहीं है जहाँ बड़ी
संख्या में महिलाओं के चुने जाने के बाद भी उनकी जगह पर प्रधान-पति, पंचायत-पति
सक्रिय रहते हैं. ऐसी निर्वाचित महिलाएँ घर की चहारदीवारी में ही कैद रहने को
मजबूर हैं. देखा जाये तो पंचायत चुनावों का कार्यक्षेत्र मूलरूप से ग्रामीण अंचल
होने के कारण भी महिलाओं की सक्रियता उतनी खुलकर सामने नहीं आती है जितनी कि
लोकसभा-विधानसभा चुनावों में दिखाई देती है. ऐसे में संभव है कि इन चुनावों में वे
महिलाएँ ज्यादा सक्रियता से अपना व्यावहारिक रूप देखा सकेंगी जिनको पुरुष मानसिकता
के चलते चुनाव लड़ने का अवसर नहीं मिल पाता. भले ही इस विधेयक का पारित होना महिला
सशक्तिकरण के लिए वैश्विक रूप से स्वीकार्य चार घटनाओं जैसा न समझा जाये किन्तु
महिलाओं के राजनैतिक सशक्तिकरण की नयी कहानी अवश्य ही लिखेगा.
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