आप में से बहुतों को शीर्षक पढ़कर आश्चर्य हुआ होगा. यदि ये कहें कि आश्चर्य से ज्यादा कुछ अजीब सी अनुभूति आई होगी, तो इसमें आश्चर्य न होगा. यह सच है कि हम लोग मौत की खबरों का, किसी की मृत्यु से पूर्व की शारीरिक अवस्था का, कहीं भी हुई दुर्घटनाओं के वीभत्स दृश्यों आदि का प्रसारण करने से खुद को नहीं रोक पा रहे हैं. यदि हम मौत की खबरों का इधर-उधर भेजना नहीं रोक पा रहे हैं तो स्पष्ट है कि अब किसी की मौत हमें परेशान नहीं करती. किसी की मौत हमें संवेदित नहीं करती. किसी की मृत्यु हमें विचलित नहीं करती. कुछ लोग संवेदनहीनता की हद से आगे जाकर मौतों पर कार्टून बनाने लगे, मीम्स, जोक्स बनाकर मस्ती करने लगे. इसे क्या कहा जायेगा? क्या ये किसी कि मौत को एन्जॉय करना नहीं? किसी सड़क दुर्घटना के वीभत्स दृश्य, चिकित्सालयों में मृतकों और उनसे जुड़े लोगों की स्थिति आदि को संवेदनहीनता के स्तर से दिखाया जाना यही साबित करता है. इसके अलावा किसी सेलिब्रिटी की मृत्यु पर उसकी शारीरिक अवस्था की दुर्बलता, उसकी बीमारी से उपजी मनोदशा आदि का प्रसारण, किसी ख्यातिलब्ध व्यक्ति की मृत्यु की भ्रामक, गलत खबर का लगातार प्रसारित किया जाना भी संवेदनहीनता की, मृत्यु का आनंद लेने जैसी ही अवस्था है.
ऐसा
सोशल मीडिया के नशे की तरह से इस्तेमाल करने, सबसे पहले
हमारे द्वारा की मानसिकता, पल दो पल में अनेक वीभत्स चित्रों, वीडियो के आते रहने के कारण होने लगा है. देखा जाये तो सोशल मीडिया पर ये
पंक्ति वो तड़प कर अपनी जान से गया, खेल का सामान हमारे लिए बन गया लगातार
चरितार्थ होती दिख रही है. कहीं सुखद घटना हो या फिर दुखद, हास्य का विषय हो या फिर विषाद का, किसी
कार्यक्रम का आयोजन है या फिर कोई दुर्घटना की भयावहता, सबकुछ आनन-फानन सोशल मीडिया पर शेयर करने का चलन हो गया. दरअसल हर हाथ में
मोबाइल, हर हाथ में इंटरनेट, हर हाथ में तकनीक ने यदि जीवन को विविध पहलुओं के सन्दर्भ में सहज-सरल
बनाया है तो उसके साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं का गला भी घोंट दिया है.
आजकल
सोशल मीडिया की जन-जन तक पहुँच ने भी संवेदनशीलता को समाप्त किया है. हर हाथ में
मोबाइल और हर हाथ में इंटरनेट ने सभी को पत्रकार बना दिया है. एक ऐसा पत्रकार जो
संवेदनहीन है, समाज की वास्तविकता से परे है. उसे पता
नहीं है कि उसके द्वारा प्रसारित करने वाली किस खबर से समाज पर, समाज के व्यक्तियों पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है. उसे इसका भी भान नहीं है
कि उसके द्वारा जाने-अनजाने में प्रसारित की जाने वाली खबरों से, प्रसारित किये जाने वाले चित्रों से लोगों के मन-मष्तिष्क पर क्या प्रभाव
पड़ रहा है. सबसे पहले हमारे द्वारा की अनावश्यक कोशिश के चलते बहुधा दुर्घटनाओं की
फोटो लोगों के मोबाइल पर सहज पहुँच में हैं. ऐसी फोटो देखने के बाद जहाँ एक तरफ
संवेदना उपजनी चाहिए मगर ऐसा होता नहीं है. तकनीक का वर्तमान दौर भयावह सा लगने
लगा है. यहाँ हर कोई अपने आपको तकनीक का पुरोधा समझ कर उसका दुरुपयोग करने में लगा
है. इस दुरुपयोग से मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ है, संवेदनाओं
को नष्ट किया है.
यदि
संजीदगी से विचार किया जाये तो हम लगभग रोज ही सोशल मीडिया के किसी न किसी माध्यम
से हिंसा, बलात्कार, हत्या, दुर्घटना सम्बन्धी वीभत्स तस्वीरों को देख रहे हैं. रक्तरंजित शव, फंदे पर लटकता किसी का शव, दुर्घटना में
क्षत-विक्षत देह, शारीरिक दुराचार का शिकार किसी महिला
की नग्न देह सहित न जाने कितनी तरह के ह्रदयविदारक चित्र हमारे सामने एक क्लिक पर
भेज दिए जाते हैं. यहाँ इन चित्रों को भेजने वालों की मंशा किसी भी रूप में किसी
शरीर का, किसी देह का, किसी
की नग्नता का प्रदर्शन करना नहीं होता है, किसी भी रूप
से उसका मकसद नग्न देह को देखने-दिखाने का भी नहीं होता है किन्तु ऐसे लोग अनजाने
में एक ऐसी प्रवृत्ति का विकास कर रहे होते हैं जो भविष्य में मानवीय संवेदनाओं को
समूल नष्ट कर देगी.
तकनीक
से जुड़े रहने के क्रम में, सबसे पहले सूचना देने के लोभ
में, बहुतायत लोगों तक सूचना-सम्प्रेषण के चलते वर्तमान
में ऐसे-ऐसे चित्रों का, वीडियो का प्रसारण किया जा रहा
है जो किसी भी रूप में नैतिक नहीं कहा जा सकता है. वैसे आज के दौर में जबकि
रिश्तों का, संबंधों का, संस्कारों
का मोल न रह गया हो वहाँ नैतिकता की बात करना स्वयं को कटघरे में खड़ा करना होता है
किन्तु समझना होगा कि जाने-अनजाने समाज को किस दिशा में मोड़ा जा रहा है. किसी समय
में पत्रकारिता में ऐसे चित्रों का प्रकाशन, प्रसारण
निषिद्ध माना जाता था; ऐसे चित्रों को उजागर करने का
अर्थ मृत व्यक्ति के साथ अन्याय करने जैसा समझा जाता था; शारीरिक दुराचार का शिकार किसी महिला की पहचान को किसी भी रूप में उजागर
करना सामाजिक रूप से प्रतिबंधित माना गया था; क्षत-विक्षत
देह को सार्वजानिक रूप से प्रदर्शित करना नृशंस समझा जाता था किन्तु आज तकनीकी के
चलते इसे अपराध उजागर करने के लिए अनिवार्य माना जाने लगा है; जागरूकता फ़ैलाने वाला समझा जाने लगा है.
तकनीक
के प्रचार-प्रसार को रोक पाना अब किसी के लिए संभव नहीं है. कई बार सरकारों की तरफ
से सोशल मीडिया को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया किन्तु उसमें वो सफल नहीं
हुई. आश्चर्य तो इसका हुआ कि पोर्न साइट्स पर प्रतिबन्ध लगाने का विरोध अति-जागरूक
जनता ने करके सरकार को अपने कदम वापस लेने को विवश कर दिया. ऐसे में स्वयं
नागरिकों को, सोशल मीडिया का अतिशय उपयोग करने वालों को
सजग होना पड़ेगा कि उनके द्वारा क्या-क्या पोस्ट किया जाये, क्या-क्या प्रतिबंधित रखा जाये. जिस तरह से क्षत-विक्षत शवों की, दर्दनाक हादसों की, देह की नग्नता की, हत्याओं-आत्महत्याओं की तस्वीरें, वीडियो सोशल
मीडिया के विविध माध्यमों के द्वारा एक पल में हजारों-हजार लोगों तक प्रेषित कर
दिए जाते हैं वो चिंतनीय है. ये सत्य है कि वर्तमान में सोशल मीडिया की उपयोगिता
को भुलाया नहीं जा सकता है पर इसके साथ-साथ आते एक अप्रत्यक्ष सा संकट को भी
विस्मृत नहीं किया जा सकता है.
अपराधों
के प्रति जागरूकता लाने के नाम पर ऐसी स्थिति को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
नज़रों के सामने से गुजरती ऐसी तस्वीरें, वीडियो अपने
आरंभिक दौर में मन-मष्तिष्क को विचलित करती हैं, संवेदित
करती हैं किन्तु नज़रों के सामने से लगातार इनका गुजरते रहना इसका अभ्यस्त बना देती
हैं. मन-मष्तिष्क का ऐसे दृश्यों के लिए अभ्यस्त हो जाना संवेदनाओं को समाप्त करता
है. घटना के प्रति, दुर्घटना के प्रति, मरने वाले के प्रति, शोषित के प्रति, मृत देह के प्रति ऐसा व्यक्ति संवेदना के स्तर पर जुड़ने में असहज महसूस
करता है या कहें कि जुड़ नहीं पाता है. यही कारण है कि आज हत्या, बलात्कार, आत्महत्या, हिंसा, दुर्घटना आदि की खबरें, दृश्य हमें संज्ञा-शून्य बनाये रखते हैं. हमारे लिए ऐसी खबरें मात्र खबर
बनकर रह जाती हैं, सूचनाएँ बनकर समाप्त हो जाती हैं.
दरअसल
हम सभी की संवेदनाएं मर चुकी हैं. रोज हम हत्या, बलात्कार, दुर्घटना, मृत्यु की सजीव फोटो देखते रहते हैं.
दो-चार दिन की संवेदना के बाद हम सभी वही चिर-परिचित पाषाण ह्रदय बन जाते हैं. कब
हम इंसान से जानवर बन जाते हैं, कब इन दृश्यों को महज
जानकारी आदान-प्रदान करने का माध्यम बना देते हैं हमें स्वयं ही पता ही नहीं चल
पाता है. उसके बाद सामने वाला हमारे लिए महज एक देह बन जाता है. आखिर हम सबको उस
मौत पर एन्जॉय तो करना ही है क्योंकि वो मरने वाला हमारा अपना नहीं. अब वो मरने
वाला कोई नामचीन है या फिर सामान्य व्यक्ति, इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता. हमें तो बस इससे मतलब है कि उसमें ऐसा क्या है जो उसकी मौत भी
हमारा एन्जॉय कर सके. काश कि हम सभी अपनी भावी पीढ़ी को नृशंसता का, वीभत्सता का, विकृतता का अर्थ समझा सकें. कहीं
ऐसा न हो कि कल को ऐसे दृश्य इनके लिए मनोरंजन का साधन बन जाएँ.
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