01 मई 2020

पेन की दीवानगी और नशे के चलते पेन काण्ड

जैसे कुछ लोगों को चाय का नशा होता है, किसी को शराब का, किसी को भाँग, गांजे, अफीम आदि का वैसा ही कुछ अपना हाल है. पेन को लेकर नशे जैसी स्थिति है अपनी भी. दुकान पर पहुँचे नहीं कि बस यही लगता है कि ये वाला पेन ले लो, वो वाला पेन ले लो. इस ये ले लो, वो ले लो के चक्कर में सैकड़ों की संख्या में पेन हमारे खजाने में जमा हो गए हैं. इस नशे जैसी स्थिति में भी फाउंटेन पेन के प्रति दीवानगी जैसा हाल है. अब तो पेन इतनी तरह के आ गए हैं कि खुद व्यक्ति चकरा जाये कि कौन सा लिया जाये, कौन सा छोड़ दिया जाये. 

एक वो दौर बहुत अच्छी तरह से याद है जबकि फाउंटेन पेन में रंगीन ढक्कन और ट्रांसपेरेंट टंकी वाले पेन आया करते थे, शायद ऊषा, हीरो कंपनी के. उस साधारण से पेन के दौर में पिताजी ने एक पेन लाकर दिया था, पूरा पेन डार्क मैरून रंग का था. उस समय हम कक्षा चार में पढ़ा करते थे. वह पेन अपने आपमें अजूबा सा लगता था. रंगीन पेन पहली बार नहीं देखा था, पहली बार हमारे पास आया था. रंगीन फाउंटेन पेन तो उस समय हमने पिताजी के पास देखा था हरे रंग का, कुछ डिजायन बना हुआ. उस पेन को देखकर हमारी लार टपकती रहती थी. वह पेन हमें मिला कक्षा छह में और उसके बाद वह हमारे पास रहा, अभी तक भी है.


पिताजी के ये दोनों पेन अब हमारे खजाने में, बिना कैप वाला पेन हमें मिला था कक्षा छह में 

हमारे पास सस्ते से सस्ता पेन भी है और अपनी सामर्थ्य भर का मंहगा पेन भी. पेन के प्रति लगाव या कहें दीवानगी इस कदर है कि यदि हमसे कोई पेन लेता है किसी काम के लिए तो हम उससे वापस माँग लेते हैं, बिना किसी शर्म के. सामान्य से सामान्य पेन भी यदि कभी गिर जाता है तो हमें कई-कई दिन बहुत बुरा सा एहसास होता रहता है. एक बार की बात आपको बताएँ, स्थानीय स्कूल में एक साल प्रशासनिक व्यवस्थाओं को देखने के लिए जाना हुआ. उसी वर्ष उसकी क्रिकेट टीम का कोच बनाकर हमें मैच जितवाने की जिम्मेवारी भी दे दी गई. एक दिन अभ्यास से सम्बंधित कुछ बिंदु लिखने के लिए जैसे ही जेब पर हाथ लगाया, धक्क से रह गया. पेन गायब. तुरंत अभ्यास रोककर सभी खिलाड़ी बच्चों से पेन खोजने को कहा. लगभग आधा घंटे की मेहनत के बाद हमारी वानर सेना ने पेन खोज निकाला.


कॉलेज टाइम में हमारा रहना हॉस्टल में हुआ. शरारतें, मस्ती अपने चरम पर रहती थी. कॉलेज में हमारे एक सीनियर भाईसाहब के साथ हमेशा शर्त लगी रहती थी पेन गायब करने की. किसी के जेब से गायब करना हो, किसी के कमरे से गायब करना हो यही होड़ रहती थी कि कौन पहले उस पेन को अपने जेब की शोभा बनाता है. इसी चक्कर में एक बार एक विभागाध्यक्ष तक को अपने पेन से हाथ धोना पड़ गया. वह पेन भी आज तक हमारे पास है.

कुछ फाउंटेन पेन 

आज जब पेन की बात करने बैठे हैं तो याद आ रहा है अपने स्कूल का वह समय जबकि हमें फाउंटेन पेन के अलावा किसी बॉल पेन से लिखते देख डांट पड़ जाया करती थी. ऐसे में बॉल पेन का उपयोग बहुत ही संभल कर, डरते हुए करते थे. किफायती कीमत में तब शार्प के बॉल पेन ही बहुतायत में मिला करते थे. नीला ढक्कन लगा ट्रांसपेरेंट बॉडी में. उसी में कम्फर्ट कंपनी के पेन आये जिन्होंने एकदम से सबको भौचक कर दिया. पेन में कहीं कोई ढक्कन नहीं, कहीं से खुलने की कोई जगह नहीं. समझ नहीं आता था कि इसमें रिफिल कहाँ से पड़ेगी. एक मित्र में वह पेन सबसे पहले दिखाया और हमारे पेन के शौक के चलते ये चैलेंज सा दिया कि इसमें रिफिल कहाँ से डलेगी, बताओ. खूब दिमाग लगाया मगर समझ नहीं आया. फिर हम दोनों क्लास में सबसे पीछे बैठे और कोई पन्द्रह बीस मिनट में उसकी पहेली सॉल्व कर दी. उस बॉल पेन में ऊपर वाले क्लिक बटन को खींच कर बाहर निकाल दिया जाता था और वहीं से रिफिल डाली जाती थी. 

आजकल कंप्यूटर, मोबाइल के दौर में लोगों का पेन से लिखना बंद है मगर हम आज भी लिखते हैं, वो भी फाउंटेन पेन से. इसी शौक के चलते, दीवानगी के चलते या कहें नशे के चलते किसी नई जगह जाने पर पेन जरूर खरीदते हैं. उरई में फाउंटेन पेन का मिलना न के बराबर होता है, इसके लिए ऑनलाइन खरीददारी ही सहारा है. किसी दिन आपकी अपने सभी पेन से मुलाकात करवाएंगे. अभी महज उन फाउंटेन पेन से, जिनसे आजकल हमारा लिखना हो रहा है. हाँ, आपको बताते चलें कि एक साथ करीब दस-बारह पेन हम स्याही से भरे रखते हैं. काली,नीली, हरी, लाल चारों तरह की स्याही से सजे-सजाये पेन हमारी मेज पर तैयार रहते हैं लिखने को. आप भी लिख कर देखिये, पेन से मजा आएगा.

आजकल ये फाउंटेन पेन हमसे प्रेम जता रहे हैं 


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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

15 टिप्‍पणियां:

  1. जय हो राजा साब। ये कीबोर्ड पर जो हैं कौन से हैं? कहाँ से लिए आपने?

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    1. ये पेन हमारे पिताजी के हैं। सम्भव है कि हमारी उम्र से भी पुराने हों।

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  2. वाह! बहुत अच्छा शौक है, शौक हो तो ऐसा
    पेन का संग्रहालय बनाने का इरादा है क्या!

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  3. बचपन में मुझे भी कलम का बहुत शौक था, पता नहीं कब ख़त्म हो गया ?

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  4. आप तो बिलकुल हमारे सहोदर निकले राजा साहब . यही हाल अपना है . दुकान वाले के चेहरा चमक उठता है हमें देख कर और हमारा उनके दिखाए पेन देख कर . लॉक डाउन खुलते ही फिर धावा बोलेंगे बहुत सारे ख़त्म कर दिए लिख लिख कर इन दिनों में

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    1. कुछ ऐसा ही हाल अपना है. सड़क किनारे के दूकान वाले आवाज़ देकर बुला लेते हैं.

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