15 फ़रवरी 2025

मौत की राह जाते बच्चे

सॉरी मम्मी-पापा, मेरा समय ख़त्म, माता रानी ने मुझे अठारह साल के लिए ही भेजा था. आत्महत्या करने के पूर्व लिखे पत्र में अदिति मिश्रा की ये भावनात्मक पंक्ति हृदय को हिला देने वाली है. जेईई परीक्षा में कम अंक आने से चयनित न होने के कारण निराश अदिति ने ऐसा कदम उठाया. समाज में इस तरह का न तो ये पहला मामला है और निश्चित रूप से अंतिम भी नहीं है. देश के विभिन्न हिस्सों से बच्चों के द्वारा परीक्षाओं में असफल रहने पर, कम अंक आने पर आत्महत्या करने की घटनाएँ सामने आती रहती हैं. आत्महत्या एक ऐसा शब्द है जो झकझोरने के अलावा और कोई भाव पैदा नहीं करता. यह एक शब्द नहीं बल्कि अनेकानेक उथल-पुथल भरी भावनाओं का, विचारों का समुच्चय है. इसके अलावा न जाने कितनी त्रासदी, न जाने कितना कष्ट, न जाने कितने आँसू, न जाने कितने सवाल भी इसमें छिपे होते हैं. ये सवाल उस समय और अधिक हृदय विदारक हो जाते हैं जबकि मौत की नींद सोने वाला हमारा भविष्य होता है, कोई नौनिहाल होता है.

 

प्रथम दृष्टया ऐसी घटनाओं में परीक्षा प्रणाली, नंबर गेम, भारी-भरकम पाठ्य-सामग्री आदि जिम्मेदार लगती है किन्तु यदि गम्भीरता से सम्पूर्ण सामाजिक परिदृश्य का अवलोकन किया जाये तो इसके पीछे वर्तमान सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था का यांत्रिक होना नजर आता है. इस यांत्रिक जीवन-शैली ने बचपनशिक्षाघर, परिवार आदि को प्रभावित किया है. ऐसा लगता है जैसे बचपन की भ्रूण हत्या कर दी गई है. हँसते-खेलते बच्चों की जगह बस्तों का बोझ लादेथके-हारेमुरझाये बच्चे दिखाई देते हैं. शरारतोंशैतानियों की जगह उनके चेहरों पर बड़ों-बुजुर्गों जैसी भाव-भंगिमासोच-विचार दिखाई देता है. उन्मुक्त खेलते बच्चों को कमरों में बंद कर दिया गया है और उनके हाथों में लैपटॉपमोबाइल थमा दिए गए हैं. बच्चे स्मार्टफोन की इंटरनेट दुनिया के कारण समय से पहले ही स्मार्ट हो रहे हैं.

 



यांत्रिक जीवन के लिए अनिवार्य बना दिए धन की आपाधापी में अभिभावकों का संलिप्त रहना उनको अपने ही बच्चों से दूर कर रहा है. उनके लिए भौतिकतावादी संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने को बहुतायत अभिभावकों द्वारा अपनी सफलता मान लिया गया है. तकनीक, भौतिकता की उन्नति को विकास का सूचक मानने का दुष्परिणाम यह हुआ कि अभिभावकों की महत्त्वाकांक्षाओं ने अनियमित राह पकड़ ली. इस अंधाधुंध दौड़ में उनके द्वारा बच्चों से न सिर्फ अच्छे अंक लाने की जबरदस्ती की जा रही है वरन दूसरे बच्चों से गलाकाट प्रतियोगिता सी करवाई जा रही है. बच्चों में आपसी सहयोग की, समन्वय की भावना विकसित करने के स्थान पर आपस में चिर-प्रतिद्वंद्विता पैदा की जा रही है. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के स्थान पर कटुता पैदा की जा रही है. ज्ञान को आपस में बाँटने की जगह उसे अपने में ही कैद करके रखने की मानसिकता विकसित की जा रही है. बच्चों को किसी अन्य विद्यार्थी की असफलता के समय, उसकी आवश्यकता के समय उसकी मदद करने के बजाय उससे दूर रहने, उससे बचने की सलाह दी जा रही है. अपने चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ सफलता प्राप्त करने का शोर, दूसरे से आगे ही आगे बने रहने की होड़, किसी भी कीमत पर सबसे आगे आने और फिर सदैव आगे ही बने रहने का दबाव बच्चों को भीतर से खोखला बना रहा है. यही खोखलापन उनकी असफलता में, असफलता की आशंका में उन्हें सबसे दूर कर देता है. एक पल को विचार करिए कि कुछ अंकों के कारण एक हँसता-खेलता बच्चा सदैव के लिए खामोश हो जाये. विचार करिए उस बच्चे के अन्दर भय का, अविश्वास का वातावरण किस कदर भर गया होगा जो कम अंक आने के भय से दुनिया छोड़ देता है मगर अपने अभिभावक से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है.

 

किसी भी परिवार के लिए उसके किसी भी सदस्य का चले जाना कष्टकारी होता है. ये कष्ट उस समय और भी विभीषक हो जाता है जबकि ऐसा किसी बच्चे के साथ हुआ हो. बच्चों द्वारा असफलता के भय से, कुछ प्रतिशत अंक कम आने से मौत की राह चले जाना समूची व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है. इक्कीसवीं सदी में जहाँ एक तरफ विमर्शों, स्वतंत्रता, फ्री सेक्स, हैप्पी टू ब्लीड, लिव-इन-रिलेशन आदि अतार्किक चर्चाओं में बुद्धिजीवियों से लेकर मीडिया तक निमग्न रहती है वहाँ बच्चों पर लादे जाने वाले अनावश्यक, अप्रत्यक्ष बोझ को दूर करने के लिए कोई चर्चा नहीं होती है. समाज के विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न विषयों में अपनी सक्रियता दिखा रहे समाजशास्त्री, मनोविज्ञानी इस दिशा में संज्ञाशून्य से दिख रहे हैं. घर से लेकर स्कूल तक, अभिभावकों से लेकर शिक्षक तक सभी अपनी-अपनी मानसिकता का बोझ बच्चों के मन-मष्तिष्क पर लाद रहे हैं. अपने अतृप्त सपनों को, अपने उस कैरियर को जो वे नहीं बना सके, बच्चों के माध्यम से पूरा करने का जोर लगाये हैं. अपने बच्चों को साक्षर, शिक्षित, संस्कारित बनाये जाने से ज्यादा ध्यान इस तरफ है कि वे कैसे अधिक से अधिक अंकों से सफलता प्राप्त करें. वे बच्चों की शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने के स्थान पर उनके मन में अधिकाधिक पैकेज वाली जॉब को पाने का लालच भरने में लगे हैं.

 

ऐसे माहौल में जबकि बच्चे को अपनी परेशानीअपनी निराशाअपनी हताशाअपनी समस्या के निपटारे के लिए कोई रास्ता नहीं दीखता हैकोई अपना नहीं दिखता है तब वह घनघोर रूप से एकाकी महसूस करता हुआ खुद को जीवन समाप्ति की तरफ ले जाता है. अपने बच्चों के बीच बिना बैठेउनके साथ बिना खेलेउनके मनोभावों को बिना बाँटे हम बच्चों को बचाने में लगभग असफल ही रहेंगे. अच्छा हो कि अपना समय हम अपने बच्चों के साथ शेयर करें जिससे हम उनके हँसते-खेलते बचपन में अपना बचपन देख सकें, अपने बच्चों का जीवन सुरक्षित रख सकें.


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