08 अक्टूबर 2023

शोध-पत्रों की प्रस्तुति पश्चात् बाघ का इंतजार

पिथौरागढ़ की शाम ने हम त्रिमूर्ति का स्वागत किया. ठंडक के बारे में जिस तरह का अनुमान था, वो अनुमान गलत साबित हुआ. (ऐसा हमारे व्यक्तिगत स्तर पर रहा, बाकी दोनों मित्रों ने वहाँ की गुलाबी-गुलाबी सी ठण्ड का पूरा आनंद लिया.) रास्ते भर की प्राकृतिक सुन्दरता को आत्मसात करने के बाद और नेशनल सेमीनार के आयोजकों के स्नेहिल स्वागत ने थकान को हावी नहीं होने दिया. चाय की चुस्कियों संग एक-दो पुराने परिचित भी मिले. पुरानी बातों को ताजा किया गया, भावी योजनाओं का खाका तैयार किया गया, अगले दिन आरम्भ होने वाले सेमीनार पर भी चर्चा की गई. गप्पों, ठहाकों, किस्सों, अनुभवों आदि के बीच पिथौरागढ़ की रात टैरेस से उतरती हुई कमरों में प्रवेश करके समय का एहसास कराने लगी. 





सुनहली धूप ने कमरे की खिड़कियों से दबे पाँव प्रवेश करते हुए अपने प्रथम दर्शन दिए. समझ नहीं आ रहा था कि वो हम लोगों को वहाँ देखकर आह्लादित थी या कि हम लोग उसे देख? होटल के टैरेस से दिखने वाले दृश्य अपनी तरफ खींचते तो सेमीनार आयोजकों के बार-बार आते फोन ध्यान दिलाते कि तैयार होकर समय से सेमीनार पहुँचना है. जिस कार्य के लिए आना हुआ था, उसे करना अनिवार्य था मगर जिस कार्य को द्वितीयक स्थिति में बना रखा था वो अपनी तरफ खींचने में लगा था. दिल-दिमाग की ऊहापोह को समाप्त करते हुए उसी कार्य को वरीयता दी, जिसके लिए पिथौरागढ़ आना हुआ था. वैसे सेमीनार में उपस्थिति का भी अपनी तरह का एक अलग लालच था. नए-नए लोगों से मुलाकात-परिचय के साथ-साथ पुराने परिचित लोगों से पुनः भेंट का लोभ संवरण नहीं हो रहा था.




निश्चित समय पर सेमीनार आयोजकों द्वारा कार भेजकर सेमीनार स्थल तक पहुँचने की सुविधा प्रदान की गई. एक बात यहाँ आप सबको शायद आश्चर्यजनक लगे, पिथौरागढ़ में किसी भी तरह का स्थानीय यातायात वाहन सुविधा नहीं है. इसका कारण ऊँची चढ़ाई और गहरी ढलान है. हमारे टैक्सी ड्राईवर ने बताया कि किसी समय यहाँ ऑटो चलना शुरू हुए थे मगर चढ़ाई पर नाकाम रहने के कारण उनसे दुर्घटना होने की आशंका पैदा हो गई थी. इस कारण प्रशासन ने उनका परिचालन बंद करवा दिया. बहरहाल, आयोजकों की सहृदयता, विशेष रूप से मनोज और उनके साथियों के चलते हम तीनों लोग निश्चित समय पर कार्यक्रम स्थल पर पहुँच गए. LSM महाविद्यालय को अल्मोड़ा विश्वविद्यालय का कैंपस बनाए जाने के बाद यह पहला नेशनल सेमीनार था. रक्षा एवं स्त्रातेजिक अध्ययन विभाग और कला संकाय द्वारा आयोजित नेशनल सेमीनार से जुड़े सभी लोगों में गज़ब का उत्साह देखने को मिल रहा था.


डॉ. अशोक कुमार सिंह 

पुराने विषय विशेषज्ञों के साथ 

डॉ. शेर बहादुर सिंह 

सामान्य सी औपचारिकताओं के साथ अपने निर्धारित समय से उद्घाटन सत्र का आरम्भ हुआ. पुराने परिचित विषय विशेषज्ञों को देखकर अच्छा लगा और उससे अधिक सुखद अनुभूति तब हुई जबकि उनके द्वारा एक लम्बे समयांतराल के बाद भी हमें पहचान लिया गया. ऋचा और अरुण तो रक्षा एवं स्त्रातेजिक अध्ययन से जुड़े होने के कारण वहाँ आये लगभग सभी विषय विशेषज्ञों से परिचित थे मगर विषय से इतर होने के बाद भी हमको पहचाने रहना वाकई प्रसन्नता देने लायक अनुभूति रही. (इस बारे में किसी और पोस्ट में चर्चा की जाएगी.) मंच से डॉ. अशोक कुमार सिंह सर और डॉ. शेर बहादुर सिंह सर द्वारा द्वारा अपने उद्बोधन में हम तीनों लोगों को नाम से सम्बोधित करना गौरवान्वित कर गया. अपने-अपने निर्धारित सत्र में हम तीनों लोगों ने अपने-अपने शोध-पत्रों को प्रस्तुत किया. ऋचा एवं अरुण के शोध-पत्र का विषय अपने आपमें अलग होने के कारण तारीफों से लदे रहे. जाहिर सी बात है कि विषय से इतर होने के कारण हमें हमेशा की तरह अलग से कुछ ज्यादा ही तारीफें मिलनी थीं, सो मिली हीं. वैसे हम सभी को इस बारे में ध्यान रखना चाहिए कि हम सभी किसी न किसी रूप में रक्षा सम्बन्धी विषय से जुड़े रहते हैं. इसे किसी एक विषय के सापेक्ष नहीं बाँधा जाना चाहिए. जैसे, हमारा शोध-पत्र साइबर क्राइम से सम्बंधित था. क्या इसे किसी एक विषय से सम्बंधित माना जा सकता है? क्या इसे सिर्फ रक्षा अध्ययन विषय का टॉपिक स्वीकारा जाये? क्या ये आमजन का विषय नहीं?


डॉ. ऋचा सिंह राठौर 

डॉ. अरुण सिंह 

डॉ. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर 

सेमीनार के पहले दिन के समापन पर सभी शुभेच्छुओं का स्नेह भी मिला, हमारे अपने साथियों का स्नेह तो हमेशा की तरह मिला. सभी का स्नेह अपनी छोटी सी पोटली में सँभालते-सुरक्षित रखते हुए वापस होटल लौट आये. मैदानी और पहाड़ी दिनों का अंतर स्पष्ट समझ आ रहा था. शाम के छह बजे होने के बाद भी होटल के आसपास सन्नाटा पसरने का मन बना रहा था. देर रात सोने की आदत के कारण ऐसा होना किसी जेल जैसा लगने लगा. आनन-फानन अपनी टैक्सी वाले रवि को फोन करके कहीं घुमाने ले चलने के लिए कहा तो उसने सात बजे इस कथित जेल से बाहर ले जाने का समय दिया. अपने निश्चित समय पर उपस्थित टैक्सी ड्राईवर ने गाड़ी को चंडाक की तरफ दौड़ना शुरू किया. पूरे पिथौरागढ़ में स्थानीय स्तर पर यही ऐसा स्थान है जिसे रात में घूमने पर मजा भी है, रिस्क भी है. मजा इसलिए क्योंकि यहीं से पूरा पिथौरागढ़ रौशनी में जगमगाता दिखता है और रिस्की इसलिए क्योंकि सबसे ऊपर होने के कारण बाघ-चीते आसानी से सड़क पर टहलते दिख जाते हैं.




शाम से ही सोने से बेहतर इसी पहाड़ी पर घूमना बेहतर लगा सो बिना किसी डर के चंडाक की तरफ दौड़ पड़े. ऊँची पहाड़ी पर दौड़ती कार के साथ-साथ ड्राईवर द्वारा स्थानीय जानकारियाँ भी साथ-साथ दौड़ती रहीं. एक दिन पहले उसी रास्ते पर निकले चीते का वीडियो देखने के बाद लगा कि कम से कम इसी के दर्शन हो जाएँ. बातचीत, हँसी-मजाक के बीच जब कार रुकी तो लहराता-फहराता तिरंगा देखकर मन प्रसन्न हो उठा. सीमित संख्या में लोगों की भीड़ और अनजान जगह देखकर मन एक पल को सकुचाया मगर तिरंगे के फहराने ने आत्मविश्वास, आत्मबल को कम न होने दिया. पहाड़ी के उस मोड़ से पिथौरागढ़ के एक हिस्से को जगमगाता देखा. मोबाइल में, कैमरे में कैद करने के बाद हम लोग पिथौरागढ़ के दूसरे हिस्से की रौशनी को कैद करने और आगे चल दिए.


पहाड़ी के सबसे ऊपरी स्थान पर बने एक होटल में रुकने के पहले ड्राईवर ने हम सभी को वहीं पहाड़ी पर बने मोस्टमानू मंदिर के दर्शन भी करवाए. (इस मंदिर के बारे में आगे बाद में) मंदिर के बाहरी दर्शन हमने किये और भीतरी दर्शन का लाभ ऋचा और अरुण ने उठाया. इस दौरान रात के अंधकार में फोटोग्राफी होती रही. मन में बाघ-चीता देखने का ख्याल आता रहा. अंधियारी रात के रास्ते में लौटते हुए भी बाघ-चीते शायद तीन-तीन शेर-शेरनी के डर के मारे बाहर न निकले. हम तीनों लोग उसी पहाड़ी पर बने प्रसिद्ध होटल में खाना-पीना करने के साथ ही वापस अपने होटल आ गए. अब मन में अगले दिन की योजना पर वास्तविक रूप से काम करना था. नेशनल सेमीनार का समापन दिवस और पहाड़ों पर कहीं घूमना. होटल पहुँचकर चाय को निमंत्रण दिया और होटल के टैरेस पर चुस्कियों के साथ अगले दिन की योजना पर काम किया जाने लगा. 



(क्रमशः)





 

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