भीषण बाढ़ के रूप
में जो त्रासदी सिक्किम पर पड़ी, उसे लेकर अब चिंतन-मनन चल रहा है कि इतनी बड़ी आपदा
का कारण बादलों का फटना रहा या फिर कुछ और. पूर्वोत्तर राज्य सिक्किम की तीस्ता
नदी की बाढ़ में इस पर बना चुंगथांग बाँध बह गया. इसके साथ-साथ इस भीषण बाढ़ में ग्यारह पुल बह गए. एक अनुमान के अनुसार
इस बाढ़ से बाईस हज़ार
से ज़्यादा लोग प्रभावित बताए गए हैं. राज्य सरकार ने इस तबाही को प्राकृतिक आपदा
घोषित कर दिया है.
आखिर अचानक ऐसा
क्या हुआ कि तीस्ता नदी में विनाशकारी बाढ़ आ गई? इसका प्रथम दृष्टया कारण राज्य के
उत्तर-पश्चिम में सत्रह हजार
फीट की ऊँचाई पर स्थित दक्षिण
लोनाक झील को बताया जा रहा है. लोनाक झील ग्लेशियर के पिघलने से बनी बड़ी हिमनद
झील है. हिमनद के फटने से आई बाढ़, जिसे तकनीकी अर्थों में ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट
फ्लड (जीएलओएफ) कहा
जाता है, ने तबाही मचा दी. जब ग्लेशियरों से बनी झील अपने मोराइन जो बर्फ, रेत,
तलछट, प्राकृतिक मलबे आदि से बनते हैं, से मुक्त हो जाती है तो ग्लेशियल झील टूट जाती
है. परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा में पानी बहने से विनाशकारी बाढ़ आती है. जलवायु
परिवर्तन के कारण से विगत वर्षों में जीएलओएफ़ की घटनाओं में लगातार वृद्धि हुई है.
इस बाढ़ के पीछे
दो कारणों पर विशेषज्ञों का ध्यान जा रहा है. इसमें एक तो बादलों का फटना अथवा भारी
बारिश का होना है और दूसरा कारण नेपाल, दिल्ली सहित अनेक जगह आने वाले भूकंप हैं. भारी
बारिश को लेकर मौसम विज्ञान विभाग का कहना है कि दक्षिणी सिक्किम में अवश्य भारी
बारिश हुई किन्तु उत्तरी सिक्किम में ऐसा कुछ नहीं रहा. भारी बारिश से इतर भूकंप
को जीएलओएफ के लिए जिम्मेवार माने जाने सम्बन्धी अटकलें इसलिए व्यक्त की जा रही हैं
क्योंकि लोनाक झील और भूकंप केंद्र के बीच मात्र सात सौ किमी की दूरी है. संभव है
कि नेपाल और दिल्ली में आये भूकम्पों की श्रृंखला ने एक ट्रिगर का काम किया हो.
सिक्किम में आई
इस बाढ़ के पीछे कारण कुछ भी रहा हो मगर ये सत्य है कि जलवायु परिवर्तनों की इसमें
बहुत बड़ी भूमिका है. ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर लगातार
पिघल रहे हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तरी सिक्किम में स्थित दक्षिण लोनाक
ग्लेशियर कथित तौर पर सबसे तेजी से पीछे हटने वाले ग्लेशियरों में से एक है. 1962 से 2008
तक 46 वर्षों
में यह ग्लेशियर अपने स्थान से लगभग दो
किमी पीछे चला गया. इस कारण इसका क्षेत्रफल भी बढ़ता जा रहा था. वर्ष
1990 में जब इसमें पानी भरना आरम्भ हुआ तो उस समय मात्र सत्रह हेक्टेयर
क्षेत्रफल वाली इस झील का विस्तार लगभग 168
हेक्टेयर में हो चुका था. स्पष्ट है कि इस पीछे हटने से बनी झील में पानी
की मात्रा लगातार बढ़ती रही. एक अनुमान के अनुसार जिस समय लोनाक झील टूटी, उसमें छह
हजार करोड़
लीटर पानी था.
राज्य सरकार ने
इस तबाही को प्राकृतिक आपदा घोषित कर दिया है. बचाव कार्य चल रहे हैं. त्रासदी के
कारण भी तलाशे जा रहे हैं. इन सबके बीच सबसे आवश्यक कदम पर्यावरण संरक्षण को लेकर
उठाने सम्बन्धी है. इसके साथ-साथ संवेदनशील क्षेत्रों में हिमनद झीलों की वृद्धि
और स्थिरता पर नज़र रखने के लिये एक व्यापक निगरानी प्रणाली की स्थापना करना भी
आवश्यक है. उपग्रह, ड्रोन आदि के द्वारा इन झीलों की स्थिति का, उनकी जल मात्रा का नियमित आकलन किया जाना चाहिए. प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली,
बाढ़ सुरक्षा उपायों, सुरक्षात्मक अवरोधों, जनजागरूकता, निचले प्रवाह क्षेत्रों
में निकासी प्रक्रियाओं, सुरक्षा उपायों को मजबूत किया जाये. ऐसी घटनाओं से सबक लिया
जाये न कि महज एक हादसा मानकर भुला दिया जाये.
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