तमिलनाडु
के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और राज्य सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन
के सनातन उन्मूलन सम्बन्धी बयान को महज मानसिकता समझ कर दरकिनार नहीं किया जा सकता
है. असल में धर्म और राजनीति का आपस में जिस तरह से घालमेल कर दिया गया है, उसके
बाद से ऐसे बयान आश्चर्य नहीं. इसके पहले भी अनेकानेक बार इस तरह के बयान सामने
आये जहाँ कि राजनीति को धर्म के द्वारा चमकाने का काम किया गया. आज भले ही
प्रत्येक राजनैतिक दल अपने हित साधने हेतु धर्म का सहारा लेते दिख रहे हों किन्तु
यह कार्य स्वतंत्रता के पहले से होता आया है. अंग्रेजों ने धर्म का सहारा लेकर ही 1857
के स्वतंत्रता संग्राम को प्रभावित किया था. उन्होंने फूट डालो और
राज करो की नीति अपनाई. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि धर्म के नाम पर हिन्दू और
मुसलमानों के बीच अनेक दंगे हुए और अंततः सन 1947 में देश को
धार्मिक आधार पर विभाजित कर दिया गया.
साम्प्रदायिकता
की इस आग ने देश को आज तक अपने कब्जे में ले रखा है. यह विचारणीय है कि ऐसा तब हो
रहा है जबकि वर्ष 1976 में 42वें संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को
अंकित कर भारत को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया. प्रस्तावना में इसके बाद स्पष्ट
रूप से उल्लिखित है कि ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और इसके सभी नागरिकों को सुरक्षित करने का गंभीरता से संकल्प लेते
हैं.’ यहाँ धर्मनिरपेक्ष का सीधा सा अर्थ है कि सरकार और
धार्मिक समूहों के बीच सम्बन्ध संविधान और कानून के अनुसार निर्धारित हैं. यह राज्य और धर्म की शक्ति को अलग करता है.
धर्म
और राजनीति का समाज पर गहरा प्रभाव रहता है. इनके द्वारा राष्ट्र के, मानव के विकास
को नयी दिशा प्राप्त होती है. ऐसे में धर्म और राजनीति को समझने की आवश्यकता है. शास्त्रसम्मत
विचार से जिसे धारण किया जा सके वह धर्म है. यह वो क्रिया है जो मानव को जीने का
रास्ता दिखाती है. यदि विस्तीर्ण रूप में देखें तो हिन्दू,
मुस्लिम, ईसाई, जैन,
बौद्ध आदि धर्म नहीं बल्कि सम्प्रदाय हैं. इसी तरह योजनाबद्ध नीति
एवं कार्यक्रमों का सञ्चालन करना ही राजनीति है. जनता के सामाजिक, मानसिक,
शैक्षणिक, आर्थिक स्तर आदि को विकास की राह पर ले जाना ही इसका लक्ष्य होता है. धर्म
में राजनीति को शामिल नहीं किया जा सकता किन्तु राजनीति बिना धार्मिकता के साथ नहीं
हो सकती है. बिना धर्म के राजनीति मूल उद्देश्य से भटक जायेगी, मानव-कल्याण की
भावना से परे हो जाएगी. मानव-कल्याणयुक्त धर्म से की गयी राजनीति ही
धर्मनिरपेक्षता को प्रतिपादित करती है.
धर्म
और राजनीति के इस विवेचन के मूल में छिपा है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होता है.
वह सभी धर्मों का सम्मान करते हुए उनको एकसमान दृष्टि से देखता है. यह किसी भी
शासन की राज्य की प्रमुखता में शामिल है कि वह किसी धर्म विशेष के विकास हेतु
कार्य नहीं करेगा और न ही किसी तरह के धार्मिक हस्तक्षेप हेतु स्वयं को अग्रणी
भूमिका में लायेगा. धर्मनिरपेक्षता का यही वास्तविक स्वरूप है. इसके बाद भी न केवल
राजनैतिक व्यक्तित्व, राजनैतिक दल धर्म के द्वारा अपनी-अपनी राजनीति को चमकाने में
लगे हैं बल्कि राज्य भी इसी तरह की गतिविधियों में लिप्त होने लगे हैं. ऐसी
गतिविधियाँ चुनावों के समय स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती हैं. पूर्व में हुए
चुनावों में शाही इमाम द्वारा एक दल विशेष को मतदान करने की अपील राजनैतिक मंच से
की गई तो एक प्रतिष्ठित पत्रिका के पत्रकार ने टिप्पणी करते हुए लिखा था कि ‘समाजवाद
और गणतंत्र की बात करने वाले लोग अगर इमाम के नाम से वोट पाना चाहेंगे तो हो सकता
है कि कुछ लोग शंकराचार्य के नाम पर वोट माँगने लगें. फिर क्या, इस देश को
शंकराचार्य और इमाम के बीच चुनाव करना होगा.’ यह सामान्य टिप्पणी नहीं है. आज बहुत
तेजी के साथ यही हो रहा है. अब धार्मिक संगठनों से जुड़े लोग खुलकर राजनैतिक दलों
के लिए, राजनेताओं के लिए वोट माँगते हैं.
धर्म किसी भी
व्यक्ति के आंतरिक विश्वास का विषय होता है. इसके माध्यम से व्यक्ति न केवल स्वयं
को सुरक्षित समझता है बल्कि सकारात्मक रूप से प्रभावित भी मानता है. इतिहास में भी
किसी समय शासन का आधार धर्म हुआ करता था. तब धर्म के आधार पर व्यक्तियों के, जनता
के क्रियाकलापों को संचालित किया जाता था, नियंत्रित किया जाता था. वर्तमान में
संवैधानिक रूप से ऐसा न होने के बाद भी राजनैतिक दलों द्वारा संवैधानिक अनुच्छेदों
का कथित रूप से फायदा उठाकर धर्म के द्वारा राजनीति को चमकाया जा रहा है. संविधान
के अनुच्छेद 25 के अनुसार धार्मिक
स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, अनुच्छेद 26 के द्वारा धार्मिक संस्थानों की
स्थापना का अधिकार मिला है, अनुच्छेद 29 और 30
नागरिकों, विशेष रूप से धार्मिक
अल्पसंख्यकों को मौलिक अधिकार प्रदान करते हैं. इन संवैधानिक अधिकारों को राजनैतिक
दल सत्ता प्राप्ति के लिए इस्तेमाल करते रहते हैं. सार्वजानिक स्थलों पर धार्मिक
कृत्यों को समर्थन देना, शैक्षणिक संस्थानों की आड़ में मजहबी शिक्षा प्रदान करना,
अल्पसंख्यकों के नाम पर दबाव समूह के रूप में राजनीति करना इन्हीं अनुच्छेदों की
आड़ लेकर किया जाने लगता है. समय-समय पर अलग राज्य की माँग, धार्मिक स्थलों का
उपयोग राजनीतिक कार्यों के लिए करने जैसे कदम उठाये जाते रहते हैं. पंजाब,
जम्मू-कश्मीर, दक्षिण भारत के राज्य इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. यहाँ धर्म के नाम पर
ही अलगाव की स्थिति एक पल में ही हिंसक रूप धारण कर लेती है. इसी अलगाववाद का लाभ
उठाकर राजनैतिक दलों द्वारा मतदान को प्रभावित कर लिया जाता है. धार्मिकता के आधार
पर प्रत्याशियों का चयन, धर्म के आधार पर मतदान, उसी आधार पर मंत्रिमंडल में
प्रतिनिधित्व के द्वारा नागरिकों की धार्मिक भावनाओं से खेला जाता है.
देखा जाये तो ये राजनैतिक दल राजनीति में धर्म का समावेश नहीं
कर रहे हैं बल्कि धर्म में राजनीति का घालमेल करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं.
इसका खामियाजा समाज को, नागरिकों को भुगतना पड़ता है. जरा सी बात को हिन्दू,
मुस्लिम अथवा किसी अन्य सम्प्रदाय से संदर्भित करके नागरिकों की भावनाओं को भड़का
दिया जाता है. ऐसे एक-दो नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं जबकि देश इस कारण से हिंसा की आग
में जला. देश में वर्तमान दौर में अनेक धार्मिक, मजहबी
प्रवृत्तियाँ राजनीति पर प्रभावी रूप से हावी हैं. इनका अराजक राजनैतिक रूप भारतीय
लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है. साम्प्रदायिकता के बढ़ते प्रभाव से देश की
धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता और अखंडता को
खतरा है. इस समस्या का समाधान देश के लिए आवश्यक है और इसे हम सभी नागरिकों को,
राजनैतिक दलों को मिलकर ही निकालना होगा. इसके लिए सर्वोपरि एक काम हो और वो है राजनीति
से धार्मिक उन्माद का समाप्त होना.
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