26 नवंबर 2021

हिंसक होता बचपन

इन्सान की मूल प्रवृत्ति हिंसक है. आदिमानव से लेकर वर्तमान महामानव बनने तक के सफ़र में इन्सान ने बहुत कुछ छोड़ा, बहुत कुछ अपनाया मगर वो अपनी हिंसक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ सका. किसी भी इन्सान को जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी भी तरह के पाठ्यक्रम में हिंसा करना नहीं सिखाया जाता है जबकि प्रत्येक कालखंड में, उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर उसे प्यार, स्नेह, अपनत्व, अहिंसा, शांति आदि के पाठ बराबर पढ़ाये, रटाये जाते हैं. आवश्यक नहीं कि कोई इन्सान किसी के साथ मारपीट करके ही अपनी हिंसात्मक प्रवृत्ति को सामने लाये. उसके हावभाव, उसके बोलचाल, उसकी क्रियाविधि आदि से भी उसके हिंसक होने के प्रमाण मिलते हैं. सड़क चलते किसी वस्तु में पैर की जबरदस्त ठोकर मार देना, बगीचे, पार्क आदि में टहलते समय अनावश्यक रूप से किसी छड़ी, डंडी आदि के द्वारा पेड़ों-पौधों की पत्तियों-फूलों को गिरा देना आदि भी इसी तरह की मनोवृत्ति का परिचायक है.


वर्तमान परिदृश्य में ऐसा बहुतायत में देखने को मिलने लगा है कि बच्चे भी हिंसात्मक प्रवृत्ति को अपनाते देखे जाने लगे हैं, यह चिंताजनक है. पहले खेलकूद के दौरान, स्कूल में आपसी प्रतिद्वंद्विता के दौरान, किसी भी बात पर खुद को आगे रखने की चेष्टा में एक-दूसरे से झगड़ जाना, एक-दूसरे से लड़ जाना बचपने की आम प्रवृत्ति होती थी. ऐसा न केवल दोस्तों में वरन सगे भाई-बहिनों के बीच भी देखने को मिलता था. ऐसा कभी सुनाई भी नहीं देता था कि कोई बच्चा किस दूसरे बच्चे की हत्या महज इसलिए कर देता है कि उसकी मृत्यु से स्कूल में छुट्टी हो जाएगी. ये सिर्फ चिंताजनक स्थिति नहीं है वरन बालमन-मष्तिष्क के शोध करने की स्थिति है कि आखिर उनके दिमाग में इस तरह की हत्यारी हिंसात्मक प्रवृत्ति का जन्म कैसे, कब, क्यों होने लगा है? यदि इस तरह की मनोवृत्ति बच्चों में पनपने लगी तो समाज में अपराधियों का जन्म बचपन से ही होने लगेगा, जिसे एकबारगी भले ही शिक्षा या फिर किसी तरह के अनुशासन के द्वारा बढ़ने न दिया जाये पर वो कभी न कभी अपना स्वरूप दिखा ही देगा. वर्तमान में जिस तरह से तकनीक का विकास होने के साथ-साथ आमजनमानस की आवश्यकता बन गया है, उस दौर में टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि को समाप्त कर पाना, नकार देना संभव ही नहीं है. तो क्या माना जाये कि इनके माध्यम से हिंसात्मक प्रवृत्ति बच्चों में पनपने दी जाये?




वर्तमान जीवनशैली को देखा जाये तो वह कंक्रीट के जंगल में सिमट कर रह गई है. इस जीवनशैली में न तो खेलकूद के मैदान बचे हैं, न ही रिश्तों की बुनियाद. ऐसे में बचपन फुट और मीटर की नाप में सिमट कर रह गया है. खेलने के लिए उसके सामने गैजेट्स हैं, रिश्तों के नाम पर उसके सामने या तो कार्टून्स हैं या फिर कोई पालतू जानवर. आपसी सामंजस्य बनाने से ज्यादा उसे सिखाया जाता है कि उसे उसके साथी से अधिक अंक कैसे लाना है. सहयोग करने की बजाय उसे समझाया जाता है कि उसका समय सबसे ज्यादा कीमती है, जिसे बर्बाद न किया जाये. रिश्तों के प्रति संवेदित होने के बजाय उसे समझाया जाता है कि सारे सम्बन्ध-नाते मतलब के हैं. इस अकेलेपन और गैजेट्स के सहारे अपने बचपन को घुटते देखते बच्चों के भीतर इंसानी मूल प्रवृत्ति पनपने लगती है. यह प्रतिकूल स्थिति और उसकी आक्रामकता लोगों का ध्यान अपने प्रति खींचने के लिए बच्चों से आपराधिक कृत्य करवा बैठती है.


आवश्यकता आज इसकी है कि बच्चों को कमरे से बाहर खेलने-कूदने के लिए भेजा जाये. खेलने-कूदने से उन बच्चों के भीतर पनप रहे आक्रोश, हिंसा, अराजकता को बाहर निकल जाने का अवसर मिलेगा. उनके शैक्षणिक बोझ को कम करके उनके मानसिक विकास की तरफ गौर किया जाये. इससे न केवल वे अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकेंगे वरन अपने आसपास के वातावरण को, मानसिकता को समझने में परिपक्व हो सकेंगे. अभिभावकों को समझना होगा कि उनके बच्चे ही उनकी अनमोल निधि हैं, जिसका विकास पारिवारिक संरचना में सम्मिलित रहकर ही किया जा सकता है. इसके अलावा सहज, सरल जीवनशैली को अपनाकर भी बच्चों को हिंसा से, हिंसात्मक वृत्ति से बचाया जा सकता है.


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