हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया,
एक गीत की ये पंक्ति आज के किशोरों को बड़ा उत्साहित करती है. इस एक
पंक्ति के उत्साह में वे जगह-जगह, कहीं छिपे भाव में,
कहीं खुलेआम उन्मुत रूप में धुआँ उड़ाते दिख जाते हैं. शहर की एक सड़क
के किनारे खुले तमाम सारे कोचिंग सेंटर्स के आसपास झुण्ड के झुण्ड में दिखते किशोर
और उन झुंडों पर तैरते धुंए के बादल. ये किसी एक शहर का दृश्य नहीं होता आजकल,
लगभग सभी शहरों में ऐसी स्थिति दिख रही है. धुआँ उड़ाते इन किशोरों
को उस गीत की धुआँ उड़ाती पंक्ति तो उत्साहित कर जाती है मगर उसके ठीक पहले का
हिस्सा याद नहीं रहता. वह हिस्सा जो साफ़-साफ़ कहता है कि मैं ज़िन्दगी का साथ
निभाता चला गया, इस हिस्से को ये युवा, किशोर कई तरीके
से भुलाने का काम कर रहे हैं. बिना फ़िक्र के फ़िक्र को उड़ाने की कोशिश और उसी कोशिश
में तेज रफ़्तार बाइक के द्वारा ज़िन्दगी को भी उड़ाते जा रहे हैं.
आपको आश्चर्य लगे मगर सच यही है. रुके हैं तो
धुंए में खोए हैं और चल रहे है तो हवा से बातें कर रहे हैं. ये एक तरह की
जीवन-शैली बनती जा रही है आज के बहुसंख्यक युवाओं की, किशोरों
की. ज़िन्दगी को जीने की कोशिश में ज़िन्दगी से ही खिलवाड़ करते हुए इन बच्चों को
आभास नहीं है कि वे क्या करने की कोशिश में अपने घर से बाहर निकलते हैं और क्या
करने लग जाते हैं. भौतिकतावादी दौड़ में ऐसे बच्चों के माता-पिता भी शामिल दिखाई
देते हैं. लाड़-प्यार के चलते बच्चों के लिए सभी अत्याधुनिक संसाधन सहज मुहैया करवा
दिए जाते हैं. ऐसे में बच्चों को न तो धन की महत्ता समझ आती है, न समय की, न कैरियर की और न ही अपनी ज़िन्दगी की.
माता-पिता के प्यार को, उनके द्वारा मेहनत से जुटाई जाने
वाली सुविधाओं को, उनके द्वारा एक आवाज़ पर उपलब्ध करवाए जाने
वाले संसाधनों को ये बच्चे अपना अधिकार सा समझते हैं. उनकी आवश्यकताओं की सहज
पूर्ति हो जाने के कारण वे इसकी महत्ता तो समझते ही नहीं हैं, दूसरों को भी तिरस्कृत समझते हैं.
समाज में युवाओं की, किशोरों की समस्याओं पर
विचार करने की आवश्यकता है. औद्योगीकरण, वैश्वीकरण की
परिभाषा इस तरह से चारों तरफ घेर दी गई है कि सिवाय लाखों के पैकेज के युवाओं को
और कुछ सूझ नहीं रहा है. आपस में बढ़ती गलाकाट प्रतियोगी भावना, जल्द से जल्द सफलता की अधिकतम ऊंचाइयों को प्राप्त कर लेने की लालसा,
कम से कम प्रयासों में अधिकतम प्राप्ति की चाह आदि ने युवा वर्ग को
अंधी दौड़ में शामिल करवा दिया है. जहाँ घुस जाने के बाद उनको न तो अपना भान रहता
है और न ही सामाजिकता का. इसके अलावा ग्रामीण इलाकों के युवाओं के समक्ष कार्य के
अवसरों के अत्यल्प होने के कारण से अवसाद जैसी स्थिति है. लाभ के, उन्नति के, समर्थ कार्य करने आदि के कम से कम अवसरों
के कारण यहाँ के युवा निराश तो रहते ही हैं साथ ही महानगरों की चकाचौंध उनको हताश
भी करती है.
सरकार को, समाज के जागरूक लोगों को नशा मुक्ति के साथ-साथ युवाओं के लिए अवसरों की अनुकूलता बढ़ाने की आवश्यकता है. जो युवा वर्ग भौतिकता की अंधी दौड़ में फंस गया है उसको समझाने की, सँभालने की जरूरत है. यदि हम अपनी युवा पीढ़ी को सही-गलत का अर्थ समझा सके, सामाजिकता-पारिवारिकता का बोध करा सके, कर्तव्य-दायित्व को परिभाषित करा सके तो बहुत हद तक नशा-मुक्त समाज स्थापित करने में सफल हो जायेंगे.
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