12 अक्टूबर 2021

सामाजिक व्यवस्था के लिए जीवन मूल्यों की आवश्यकता

समाज में सदैव से किसी न किसी तरह के मूल्य चलन में रहे हैं. इनका उद्देश्य समाज को नियमबद्ध रूप से, एक आदर्शात्मक व्यवस्था के रूप में चलाना था. समाज अपने आपमें एक व्यवस्था का नाम है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति के लिए नियमों, कानूनों का पालन करना सुनिश्चित किया गया है. भारतीय संदर्भों में मूल्यों का तादात्म्य सत्यमशिवमसुन्दरम के रूप में मानकर उसे अनुपमअलौकिक माना जाता है. वर्तमान में जबकि वैश्विक स्तर पर अनेकानेक लोकतान्त्रिक शक्तियाँ विभिन्न प्रकार के संकटों से दो-चार हो रही हैउन्हें भी मूल्यों कीमानवीय मूल्यों की महत्ता का एहसास हो रहा है. ऐसी स्थिति में वैश्विक स्तर पर जीवन मूल्यों को अपनाने की सलाह दी जाने लगती है. सवाल उठता है कि आखिर मानवीय मूल्योंजीवन मूल्यों अथवा मूल्यों की पहचान क्या हैइनके स्थापन के मानक क्या हैं?

 

जीवन-मूल्यों अथवा मानवीय-मूल्यों को समझने के लिए उसके निर्धारक तत्त्वों को जानना अपरिहार्य है. मनुष्य का सम्पूर्ण कायिकमानसिकसामाजिक व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्तियों के द्वारा संचालित होता है. इन्हीं प्रवृत्तियों के आधार पर मूल्य संरचना निर्माण को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जाता है. इसमें पहला जैविक आधार और दूसरा पराजैविक आधार कहा जाता है.

इन मूल्यों में जैविक आधार के अन्तर्गत शारीरिक संरचनामूल प्रवृत्तियाँसंवेगआदि को सम्मिलित किया जाता है. पराजैविक को पुनः तीन भागों सामाजिकप्राकृतिक और मानविकी में बाँटा गया है. इस विभाजन में किसी भी व्यवस्था को सुचारू ढंग से संचालित करने के लिए उसका पराजैविक आधार अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है. इसमें सामाजिक मूल्य के साथ-साथ मानवीय मूल्य भी अन्तर्निहित हैं. मनुष्य की कल्पनाशीलताउसकी तार्किकताचैतन्यता उसके अन्य पशुओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ बनाती है. उसकी यही सांस्कृतिकता के चलते उसके प्रत्येक कार्य का मूल्यपरक होना परिहार्य होता है. सामाजिक मान्यताओं की बात हो अथवा राजनैतिक स्थितियों की चर्चा सभी में मानव के जीवन-मूल्यों का सशक्त होना जरूरी है. यदि मानवीय मूल्यों की आदर्शवादी व्यवस्था न हो तो सम्भवतः समाज काशासन का संचालन करना बेहद दुष्कर हो जाये. आस्थाओंपरम्पराओंचिन्तनजीवन-साधना को विस्मृत करने के बाद किसी भी रूप में सामाजिकता को विखण्डित करने का कार्य किया जाना मानवीय-मूल्यों के लोप को ही दर्शाता है.

 

मानवीय क्रियाकलापों में आज मानवीय मूल्यों में हृास देखने को मिल रहा है. परिवार जैसी संस्था का लोप होता जा रहा है. संयुक्त परिवार लगातार सिकुड़ते हुए एकल परिवारों और नाभिकीय परिवारों में सिमटने लगे हैं. ऐसा होने से संयुक्त परिवारों में सम्पत्ति के अधिकारों में परिवर्तनपरम्परागत व्यवसाय के महत्व में कमीसम्बन्धों में परिवर्तनधार्मिक प्रकृति का हृासआकार का हृासपरिवार के महत्व में कमी आदि देखने को मिली है. समाज में जिस तरह से लगातार हिंसाअत्याचारमहिला हिंसायौनापराधहत्याओं आदि का सिलसिला चल निकला है वह मानवीय मूल्यों के क्षरण का ही दुष्परिणाम है. ऐसे में विचार करने की आवश्यकता है कि इन मूल्यों को कैसे प्रतिस्थापित किया जायेइनके क्षरण को कैसे रोका जायेसमझने की बात है कि आखिर हम मानवीय मूल्यों के विकास के लिए कर क्या रहे हैंहम जीवन-मूल्यों की प्रतिस्थापना के लिएअगली पीढ़ी में उसके हस्तांतरण के लिए क्या कदम उठा रहे हैंयदि पूरी ईमानदारी से मनुष्य अपने प्रयासों की ओर देख भर ले तो पायेगा कि उसके समस्त क्रियाकलापों के द्वारा मूल्यों काजीवन-मूल्यों का क्षरण ही हुआ है.

  

मानवीय मूल्यों का मनुष्य के साथ साहचर्य अनादिकाल से रहा है और बिना इसके मनुष्य निरा पशु समान ही माना गया है. ऐसे में किसी भी रूप में मानवीय मूल्यों को बचाना मानव की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए. यद्यपि परिवर्तन समाज की शाश्वत प्रक्रिया है किन्तु यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कहीं लगातार होते जा रहे अंधाधुँध परिवर्तन में मनुष्य स्वयं को तो समाप्त नहीं करता जा रहा है. ‘जब भी कोई समाज विकासक्रमानुसार एक अवस्था से दूसरी अवस्था में सवंमित होता है तभी जीवन-व्यवस्था से सम्बद्ध मानवीय सम्बन्धों पर आधारित जीवन-मूल्यों के स्वरूप एवं दिशा में भी परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. तब युगीन आवश्यकतानुसार पूर्वस्थापित जीवन-मूल्यों का पुनर्मल्यांकनअवमूल्यन तथा नव-निर्माण का कार्यक्रम भी क्रियान्वित होता है.’ ऐसी स्थिति में जीवन-मूल्यों की प्रतिस्थापना के लिए एकमात्र सहारा शिक्षा व्यवस्था ही नजर आती है. शिक्षा जहाँ एक ओर मनुष्य के वैयक्तिक व्यक्तित्व को विकसित करती हैवहाँ उसके सामाजिक तथा सांस्कृतिक व्यक्तित्व को भी गति देती है. देखा जाये तो शिक्षा व्यक्ति की चिन्तन-शक्तिअभिरुचिक्षमता आदि का विकास करके उसकी सामाजिकता और सांस्कृतिकता का निर्माण करता है. शिक्षा के द्वारा व्यक्ति कई-कई पीढ़ियों की सांस्कृतिक विरासत का संवाहक बनता है. यही संवाहक यदि मानवीय-मूल्यों का संरक्षण करता हुआ आगे बढ़ता है तो वो न केवल समाज के लिए लाभकारी होता है वरन् लोकतन्त्र के लिए भी कारगर होता है. 


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