31 जुलाई 2020

पत्रों का सुखद एहसास अब गायब हो गया

आज, 31 जुलाई को लोग कई-कई कारणों से याद रखते हैं. कोई पार्श्व गायक मुहम्मद रफ़ी के कारण याद रखता है तो कोई साहित्यकार प्रेमचंद के कारण. इनके अलावा और भी बहुत से कारण होंगे आज की तारीख को याद करने के. इन्हीं बहुत से कारणों में एक कारण याद रखने का है, इस तिथि को विश्व पत्र दिवस मनाया जाना. हो सकता है कि आपको आश्चर्य हुआ हो कि ऐसा भी कोई दिवस मनाया जाता है. जी हाँ, 31 जुलाई को विश्व पत्र दिवस भी मनाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि आज ही की तारीख में सबसे पहला पत्र इंग्लैण्ड में लिखा गया. उसके बाद से तकनीक के विकास करने तक पत्र ही वैचारिक आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम बना हुआ था.


विश्व पत्र दिवस का मनाया जाना जितना आश्चर्य का विषय हो सकता है, उतना ही बहुत से युवा साथियों के लिए आश्चर्य का विषय पत्र का लिखा जाना भी हो सकता है. वर्तमान दौर में यदि एक बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की होगी जिन्होंने पत्रों का लेखन किया है, पत्रों का इंतजार किया है तो एक बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की भी होगी जिन्होंने पत्र का इस्तेमाल ही नहीं किया होगा. आज के दौर में तीव्रगति से इधर से उधर अपनी बात पहुँचाने के तमाम माध्यम विकसित हो चुके हैं मगर इसके बाद भी लगता है कि जो एहसास, जो संवेदनाएँ पत्र में छिपी होती हैं वे आज के किसी तकनीकी माध्यम में नहीं हैं.


आज भी याद आता है वो समय जबकि पत्रों का आना, उनको बार-बार पढ़ा जाना, पत्रों का सहेज कर रखा जाना अपने आपमें एक बहुत विशेष बात हुआ करती थी. हम आज भी सैकड़ों की संख्या में पत्रों को अपने पास सुरक्षित रखे हुए हैं. कई बार फुर्सत के समय में, अकेलापन महसूस होने पर इनके साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता है. परिजनों के पत्र आने पर सबसे पहले कौन पढ़ेगा को लेकर अक्सर युद्ध जैसी बन जाया करती थी. पत्र में किस-किसको नाम लेकर संबोधित किया गया है, इसको भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता था. किसी विशेष आयोजन पर आने वाले पत्र के समय एक लिफाफे में कई-कई छोटे-छोटे कागजों में पत्रों का आना मनोहारी मौसम जैसा लगता था. बचपन के उस दौर से बाहर आकर युवावस्था में मित्रों के पत्रों का इंतजार, पत्रों में कई बार कोड वर्ड में अपनी बात को कहने की काबिलियत भी दिखा दी जाती थी ताकि यदि धोखे से घरवालों के हाथ पत्र पड़ जाए तो उस कोड वर्ड को समझ न सकें.

ऐसे समय में याद आता है हॉस्टल टाइम में अपने एक मित्र द्वारा पत्रिका में भेजा गया सन्देश और उसके बाद उसके नाम पर रोज ही चालीस-पचास पत्र आने शुरू हो गए. यह कॉलेज के लिए और हॉस्टल के लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ था कि आखिर उसके पास इतने पत्र कहाँ-कहाँ से आते हैं. यह सब करामात उसके द्वारा अनु नाम रखकर एक लड़की के रूप में पत्रिका में सन्देश छपवाने के बाद हुई थी. इसी तरह एक बार अपने शहर के मुख्य डाकघर में हमें प्रधान द्वारा बुलवाकर इसकी जानकारी ली गई थी कि हमारे पास इतने पत्र रोज कहाँ से और क्यों आते हैं. ये बात सन 1996-97 के आसपास की होगी, उस समय हमारे पास रोज ही दस-बारह पत्र आया करते थे.

आज हमारे पास पत्र आने की संख्या भले बहुत ही सीमित हो गई हो, हमारे द्वारा भी पत्र लिखने की गति भी कम हो गई हो मगर बंद नहीं हुई है. ई-मेल और सोशल मीडिया के इस दौर में लोगों ने अपनी बात इधर से उधर पहुँचाने का अलग माध्यम भले ही अपना लिया हो मगर हम आज भी बहुत से परिचितों, अपरिचितों, पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाकारों आदि को पत्र भेजते हैं. उनको पत्र लिखना हम आज भी हस्तलिपि में ही करते हैं. आप भी कोशिश करिए पुनः, अच्छा लगेगा. जो लोग पत्र लिखते रहे हैं, पत्रों का इंतजार करते रहे हैं, वे भली-भांति इसके सुखद एहसास को समझ सकते हैं. जिन लोगों ने कभी पत्र नहीं लिखा, पत्रों के इंतजार करने की अनुभूति नहीं की वे इसका आनंद उठा सकते हैं.

वर्तमान दौर में जबकि सभी लोग खुद में अकेलापन महसूस कर रहे हैं, उस समय आपके हाथ से लिखे दो शब्द आपके अपनो के लिए बहुत बड़ा सुख का माध्यम बन सकते हैं. लिख कर देखिये, हम भी लिख रहे हैं, आप भी लिखिए.

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30 जुलाई 2020

नई शिक्षा नीति के साथ-साथ कड़े कदम उठाने होंगे

एक और शिक्षा नीति देश के सामने आ गई है. इस बारे में अभी कुछ नहीं कहेंगे क्योंकि इसके बारे में अभी पढ़ना नहीं हो सका है. बिना पढ़े ऐसी किसी भी नीति के बारे में, नियमों के बारे में कुछ भी कहना सही नहीं. राजनीति के नजरिये से प्रत्येक कदम को देखना उचित नहीं. संभव है कि इस नीति में अच्छे बिंदु उठाये गए हों, ये भी संभव है कि इसमें कुछ बिन्दुओं पर अभी भी विमर्श की, बदलाव की आवश्यकता हो मगर इनके बारे में जानकारी के बाद ही कुछ कहना सही रहेगा.



अभी बात महज इतनी कि शिक्षा नीति लागू करने के साथ-साथ कुछ कठोर कदमों को भी उठाया जाना अपेक्षित है. उच्च शिक्षा क्षेत्र से जुड़े होने के कारण इस क्षेत्र की बहुत सी कमियाँ आये दिन सामने आती हैं. इसके अलावा बहुत से मित्रों का, परिजनों का प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा क्षेत्र से जुड़ा होने के कारण इस क्षेत्र की कमियों से भी सामना होता रहता है. अभी हाल ही में प्राथमिक क्षेत्र में एक बड़ा घोटाला सामने आया जबकि एक महिला लगभग दो दर्जन जगहों पर नियुक्त पकड़ में आई. इसके बाद पूरे प्रदेश में शिक्षकों की जाँच का कदम उठाया गया. ये तो महज एक स्थिति है. उच्च शिक्षा क्षेत्र में आये दिन निजी क्षेत्रों के महाविद्यालयों द्वारा किसी न किसी रूप में नियमों की अवहेलना करने की घटनाएँ सामने आती हैं. प्रवेश से लेकर परीक्षा करवाने तक के कई कदमों में उनके द्वारा नियमों-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपना उल्लू सीधा किया जाता है.


ये स्थिति अकेले महाविद्यालयों की नहीं है वरन निजी क्षेत्र के तमाम शिक्षण संस्थान इसी तरह की गतिविधियों में लिप्त हैं. यहाँ जब भी बदलाव की, परिवर्तन की बात की जाती है तो प्रबंध-तंत्र प्रशासन पर दोष लगाता है और प्रशासन निजी संस्थानों के प्रबंध-तंत्र को कटघरे में खड़ा कर देता है. ऐसे में अपेक्षित सुधार की सम्भावना शून्य ही हो जाती है. इन शिक्षण संस्थानों द्वारा पुस्तकों को लेकर, फीस को लेकर आये दिन के फसाद किसी से छिपे नहीं हैं. ऐसे में जबकि देशव्यापी तंत्र में खराबी समझ आती है तब महज एक नई नीति का निर्माण किसी बड़े परिवर्तन का सूचक नहीं हो सकता है. निजी संस्थानों पर लगाम लगायी जानी चाहिए, जिनके द्वारा शिक्षा का, पुस्तकों का, फीस का घनघोर बाजारीकरण किया जा चुका है.

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29 जुलाई 2020

ज़िन्दगी सिर्फ वर्तमान का नाम नहीं


ज़िन्दगी कितनी भी आसानी से गुजर रही हो मगर उसमें एक लहर ही बहुत है हिलोर उठाने को. आखिर ज़िन्दगी की झील में शांति क्यों नहीं रहती है? कभी वर्तमान, कभी अतीत आकर कोई न कोई हलचल मचा जाता है. इस हलचल में ज़िन्दगी की शांत झील में उथलपुथल मच जाती है. बहुत बार ऐसा होता है जबकि सबकुछ ख़ामोशी से गुजर जाता है और कई बार ऐसा होता है कि सबकुछ आसानी से, ख़ामोशी से नहीं गुजरता है. यही स्थिति ज़िन्दगी में भी उथल पुथल मचा देती है.


ज़िन्दगी सिर्फ वर्तमान का नाम नहीं न ही सिर्फ भविष्य का रूप है बल्कि यह नितान्त अतीत के ऊपर निर्मित स्थिति है. ऐसे में अतीत का डांवाडोल होना न केवल वर्तमान को प्रभावित करता है बल्कि भविष्य की रूपरेखा को भी प्रभावित करता है. ज़िन्दगी के ऐसे उथल पुथल क्षणों को संयमित रूप से देखने की, गुजारने की आवश्यकता होती है. अतीत के इन्हीं पलों पर न केवल वर्तमान की बल्कि भविष्य की आधारशिला टिकी होती है. ऐसे में यह बहुत महत्त्वपूर्ण होता है कि अतीत का सामना वर्तमान में, भविष्य में किस तरह से किया जा सकता है. यही संवेदित होने की पहचान है, यही जागरूक होने की निशानी है.


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28 जुलाई 2020

कोरोना संक्रमित की जगह मानसिक बीमार न हो जाएँ

चीनी वायरस कोरोना के चलते लॉकडाउन चार महीने पहले लगाया गया था. उसके बाद अनलॉक की प्रक्रिया शुरू की गई. बहुत सारी बाध्यताओं के बीच, नियम-कानूनों के साथ लॉकडाउन जैसी स्थिति देखने को मिल रही है. इसके साथ-साथ जीवन वापस पटरी पर लाने की कोशिश की जा रही है. कुछ शर्तों के साथ बाजार खोल दिए गए हैं. ऑफिस भी शुरू किये गए हैं. कारखानों में काम चालू कर दिया गया है. परिवहन, यातायात के साधनों का भी दौड़ना दिखाई पड़ने लगा है. बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, दिखाई दे रहा है जो लॉकडाउन के पहले के जीवन जैसा आभास करवाता है इसके बाद भी पहले जैसी निश्चिंतता, पहले जैसी स्वतंत्रता, पहले जैसा सहज भाव देखने को नहीं मिल रहा है. बहुत कुछ खुला होने के बाद भी, संचालित होने के बाद भी लगता है जैसे बहुत बड़ा बंधन बना हुआ है. यह बंधन बाहरी कम, भीतरी ज्यादा समझ आ रहा है.



शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से बहुत कुछ बंधनों में जकड़ा हुआ लगता है. इसका एहसास भीतर ही भीतर डराता नहीं है वरन परेशान करता है. यह बंधन धीरे-धीरे लोगों के दिल-दिमाग पर हावी होता नजर आ रहा है. लोगों के काम करने में, लोगों के बाजार में खरीददारी करने में, कार्यालयों में अपने काम से जाने के दौरान उनकी क्रियाशीलता में, क्रियाविधि में सहज भाव नहीं है. लगभग सभी लोग किसी न किसी अप्रत्यक्ष शक्ति के द्वारा नियंत्रित होकर कार्य करने में लगे हैं. कोरोना वायरस के कारण उपजी स्थिति ने जैसे लोगों को मानसिक रूप से बीमार बनाना शुरू कर दिया है. सुरक्षात्मक होने के बजाय लोग पैनिक होते जा रहे हैं. लोगों के आपस में बातचीत करने के विषय बदल चुके हैं. घूम-फिर कर बात कोरोना पर, संक्रमितों की संख्या पर, मरने वालों पर आकर टिक जाती है. मेल-मिलाप के वैसे भी अवसर हाल-फिलहाल नजर नहीं आ रहे हैं, ऐसे में फोन द्वारा भी हालचाल लेने पर कोरोना वायरस ही उछल कर सामने आ जाता है.


यह स्थिति किसी भी रूप में सुखद नहीं है. आज न सही, कल को कोरोना वायरस का इलाज मिल ही जायेगा मगर जिस तरह से लोगों की हरकतें, मानसिक और शारीरिक स्थिति बनती जा रही है, उससे निकल पाना बहुत से लोगों के लिए आसान नहीं होगा. कोरोना वायरस से संक्रमित होने के भय, उसके द्वारा होने वाली मौत की डरावनी कल्पना चिंता का विषय है. ऐसे में सभी को आपस में मिलकर कोरोना के अलावा किसी अन्य विषय पर बातचीत करनी चाहिए. मिलने-जुलने पर, ऑफिस में काम करते समय, फोन से बात करते समय उसी तरह से व्यवहार रखना चाहिए जैसा कि कोरोना आने के पहले हुआ करता था. ध्यान रखना होगा कि कहीं हम सब एक वायरस से लड़ाई जीतने के साथ-साथ अपने लोगों की शारीरिक-मानसिक हालत से न हार जाएँ.

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27 जुलाई 2020

संबंधों की अदालत के बीच अदालतों के सम्बन्ध

आजतक समझ नहीं सके कि ज़िन्दगी में आवश्यक क्या है, संबंधों का निर्वहन या संबंधों का बनाना? हो सकता है कि संबंधों की संकुचित अवधारणा में बहुत से लोगों के लिए संबंधों का कोई अर्थ ही न रह जाता हो. आज भी बहुत से लोगों के लिए संबंधों का अर्थ रक्त-सम्बन्धियों से नहीं बल्कि पति-पत्नी और बच्चों से लगाया जाता है.  को तैयार हो जाते थे कि वो उनके गाँव का है या फिर उनके ससुराल का है. हमारे सन्दर्भ में देखें तो हमारा  पैतृक गाँव और ननिहाल एक ही जिले में है. पिताजी के वकालत पेशे से जुड़े होने के कारण इन दो जगहों के केस आये दिन देखने को मिलते.


उस समय जबकि हम महज नौ-दस साल के थे, हमें अदालती मामलों की समझ न थी. हमारे लिए गाँव से ननिहाल से आने वाला कोई भी व्यक्ति किसी मेहमान की तरह, रिश्तेदार की तरह ही होता था. सत्तर-अस्सी के दशक में आज जैसी भौतिकता भी हावी न हुई थी. मुकदमा लड़ने वाले घर पर ही रुका करते और हमारी अम्मा उन सभी के भोजन, शयन आदि का ख्याल रखतीं. हम सभी भाई उन  के साथ किस्सों-कहानियों में,बाबा-अइया, नाना-नानी की कहानियों में उलझे रहते. इसी में दिन गुजरते रहते, लोग आते रहते, जाते रहते कोई हमारे चाचा होते कोई मामा, कोई भाई होते तो कोई जीजा मगर पिताजी समभाव रूप से सभी के केस निपटाने की कोशिश करते.

आज हम न्यायिक प्रक्रिया से अलग हैं. पिताजी ने लॉ का कोर्स न करने दिया और हमने उनका सम्मान करते हुए लॉ का कोर्स नहीं किया. इसके बाद भी पता नहीं कैसे गाँव में, ननिहाल में ये खबर है कि हम वकालत किये हैं, यह खबर अप्रत्यक्ष हमारे लिए ही लाभकारी है, इसलिए इसका विरोध नहीं किया. ये और बात है कि प्रशासनिक संबंधों के चलते बहुत से मामले, मसले अपने स्तर पर ही निपटा लिए जाते हैं मगर इसका अर्थ कदापि यह नहीं कि हम वकालत पेशे से सम्बद्ध हैं.

इन बातों को कहने का कोई अर्थ नहीं, ये सब इसलिए लिखा कि कोई भी पढ़ने वाला इस बात को समझे कि आज के दौर में भी संबंधों की अहमियत बहुत अधिक है. आज रक्त-सम्बन्धी भले ही मदद करने को आगे आयें या न आयें मगर एक बार सामाजिक रूप में आप जिससे भी सम्बन्ध बनाते हैं, वह आगे अवश्य ही आता है. ये भी संभव है कि सभी दशाओं में ये नियम काम न करे मगर आपने सम्बन्ध ही हमेशा काम आते हैं, इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकेगा.

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26 जुलाई 2020

बीते दिनों की याद दिलाता खामोश शहर

आजकल हमारे जनपद में बाज़ार शाम चार बजे बंद हो रहा है. बंद हुए बाजार में इसके बाद सिर्फ दवा-दारू की दुकानों के खुले रहने की अनुमति है. ये दवा-दारू वह संयुक्त शब्द नहीं जो आमतौर पर किसी बीमार के इलाज के लिए बोला जाता है. यहाँ इस शब्द का तात्पर्य दो तरह की दुकानों से ही है. एक दुकान दवाओं की और दूसरी दुकान शराब की. बाजार बंद होने के बाद यही दो दुकानें खुली मिलतीं हैं. बाजार खुले रहने की स्थिति में दिन भर दिखाई पड़ने वाली भीड़ शाम को गायब रहती है. दिन की तुलना में कहा जाये तो लगभग न के बराबर. कई-कई दिन की घर-बंदी के बाद शाम को अपने स्कूटर पर बैठे-बैठे शहर का आदतन एक चक्कर लगाने के दौरान अथवा शाम के समय किसी अत्यावश्यक काम से निकलने के दौरान या फिर सप्ताह में होने वाले दो दिनों के लॉकडाउन के दौरान मेडिकल कार्य से निकलने पर शहर की जो स्थिति दिखाई देती है वह बीते दिनों को याद करवा देती है.



गिनी-चुनी संख्या में वाहनों का चलना, इक्का-दुक्का व्यक्तियों का टहलना, न के बराबर चार पहिया वाहनों का गुजरना, कोई शोर नहीं, गाड़ियों-दोपहिया वाहनों के हॉर्न का शोर नहीं, इंसानों की चीख-पुकार नहीं, कोई धक्का-मुक्की नहीं. ये सबकुछ देखकर अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं. 80 के दशक में अपने घर से जीआईसी पढ़ने के लिए जाने पर सड़कें कुछ इसी तरह की दिखाई देती थीं. दिन को खुले बाजार में भी उस समय लगभग ऐसी ही भीड़ हुआ करती थी. गिने चुने वाहन सड़कों पर अपना रोब दिखा रहे होते थे. सड़क पर उस समय साइकिल और रिक्शा का ही साम्राज्य हुआ करता था. दिन के अलावा कई बार रात को परिवार के साथ किसी कार्यक्रम में अथवा उरई की टाकीज में कोई फिल्म देखने जाने को मिल जाया करता था तो लगभग ऐसा ही सन्नाटा पसरा हुआ दिखाई देता था. अच्छे से याद है कि उन दिनों में भी गलियाँ निपट सूनी रहती थीं, आजकल भी सूनी दिख रही हैं. उस समय भी इक्का-दुक्का लोग सड़कों पर टहलते दिखते थे, आज भी वैसा ही मंजर दिखाई दे रहा है. उस समय भी शांत वातावरण मन को सुकून देता था कुछ ऐसा ही आज हो रहा है. वातावरण की ख़ामोशी, सन्नाटा, शोर-रहित सड़कें एक अलग तरह का आनंद दे रहीं हैं.

हमारे कुछ व्यापारी मित्र इस व्यवस्था से प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं. उनका कहना है कि कोरोना काल के पहले आपस में व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता होने के कारण दुकान खोले रखने की मजबूरी भी थी. आर्थिक लाभ को अधिकाधिक प्राप्त कर लेने की मानसिकता के कारण भी दुकान को खोलना आवश्यक समझ आता था. आज जबकि नियम के अनुसार सभी दुकानों को एक निश्चित समय पर बंद होना ही है. ऐसे में शाम का बहुत बड़ा भाग उनको अपने संबंधों का निर्वहन करने के लिए मिल रहा है. ये बात और है कि कोरोना काल चलने के कारण किसी तरह के बड़े आयोजन नहीं हो रहे हैं, शादी-विवाह संपन्न नहीं हो रहे हैं मगर मिलने-जुलने की व्यवस्था तो संपन्न हो ही जा रही है. मोहल्ले में आपस में शारीरिक दूरी का पालन करते हुए मिलना हो ही रहा है.

निश्चित ही ऐसी व्यवस्था से आर्थिक रूप से कुछ घाटा अवश्य ही व्यापारिक क्षेत्र से जुड़े लोगों को होगा मगर यदि इस व्यवस्था को एक नियम बनाकर चला जाये तो भविष्य में इसके सुखद परिणाम देखने को मिलेंगे.

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25 जुलाई 2020

ऑनलाइन क्लासेज का शिगूफा

जिस तरह से कोरोना संक्रमण की स्थिति दिखाई दे रही है, उसके अनुसार सरकारों द्वारा लॉकडाउन पुनः लगाये जाने के सम्बन्ध में जिस तरह के कदम उठाये जा रहे हैं, उन्हें देखकर लगता नहीं है कि शिक्षण संस्थान सहज रूप में जल्दी शुरू हो सकेंगे. प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के शिक्षण संस्थानों ने ऑनलाइन पढ़ाई के रूप में अपना तंत्र फैलाना शुरू कर दिया है. उच्च शिक्षा क्षेत्र में अभी तो छूटी परीक्षाओं को पुनः करवाए जाने को लेकर संशय बना हुआ है. नए सत्र के लिए प्रवेश प्रक्रिया पर संशय बना हुआ है. यद्यपि यहाँ भी जल्द से जल्द प्रक्रिया को पूरा करके ऑनलाइन कोर्स आरम्भ करने पर जोर दिया जा रहा है तथापि ऐसा व्यावहारिक रूप में होता समझ नहीं आ रहा है.



बाजार का खोल देना, कार्यालयों का खोल देना, कंपनियों को फिर से शुरू कर देना एक अलग स्थिति है और शिक्षण संस्थानों को खोलना एक बिलकुल अलग स्थिति है. यहाँ किसी भी रूप में बच्चों को सामाजिक दूरी के नियम में बाँधना मुश्किल कार्य है. ऐसे में निजी संस्थानों ने अपने अस्तित्व को बनाये, बचाए रखने के लिए ऑनलाइन क्लासेज का एक नया शिगूफा छोड़ दिया है. प्रतिदिन कुछ वीडियो डालकर उनको देखने का काम बच्चों के भरोसे छोड़ दिया जाता है. यहाँ बच्चे कम उनके अभिभावक ज्यादा लगे रहते हैं ऑनलाइन क्लासेज के चक्कर में. होमवर्क को रोज डाउनलोड करना, बच्चों के द्वारा किये जाने वाले काम को अपलोड करना आदि काम अभिभावकों के मत्थे ही मढ़े गए हैं.

निजी शैक्षणिक संस्थानों ने अभिभावकों से फीस वसूलने के लिए ऑनलाइन क्लासेज का नया चलन शुरू कर दिया मगर क्या किसी भी निजी संस्थान में इससे पहले किसी भी बच्चे को फाइल बनाना, अपलोड करना, डाउनलोड करना, वेबसाइट चलाना आदि बताया गया था? ये हमारा अपना व्यक्तिगत अनुभव है कि रोज ही दसियों अभिभावकों को, अपने परिचितों को, मित्रों को इस बारे में जानकारी दे रहे हैं. निजी संस्थानों ने आदेश देकर अपने शिक्षकों को इस काम में झोंक दिया है. शिक्षकों ने भी इसे बस एक काम समझ कर सोशल मीडिया के द्वारा अथवा किसी अन्य रूप में बस खानापूर्ति करना समझ लिया है. देखा जाये तो ऑनलाइन क्लासेज का असल अर्थ न तो इन संस्थानों को ज्ञात है और न ही इस काम में लगे शिक्षकों को. सबके सब बस एक खानापूर्ति करने में लगे हैं. उनको न बच्चों के वर्तमान से कोई लेना देना है न ही भविष्य से. उनको न बच्चों के शारीरिक विकास से कोई मतलब है न ही उनके मानसिक विकास से.

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24 जुलाई 2020

पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले.....

एक बहुत पुराना मधुर गीत है, पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही. इस गीत को जितनी बार सुनो, एक अलग तरह का सन्देश देता है. अब यह सन्देश सभी सुनने वालों के लिए एक जैसा होता होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता. इस गीत को दो तरह से समझने की आवश्यकता है. एक तरफ यदि इस गीत को देखा जा रहा है तो यह गीत विशुद्ध रूप से दो व्यक्तियों के बीच की आपसी स्थिति को दर्शाता है. इन दो लोगों में एक प्रेमी है, एक प्रेमिका है; एक स्त्री है, एक पुरुष है. देखने के सन्दर्भ में इस गीत के मायने प्रेमी-प्रेमिका के बीच की स्थिति से जुड़ते हैं. यही दृश्य समूचे गीत को प्रेमी-प्रेमिका वाले प्रेम के साथ संदर्भित भी करता है. देखा जाये तो यह गीत भी इसी तरह के दृश्य की पूर्ति करता हुआ आगे बढ़ता है.



इसके सापेक्ष यदि इस गीत की आरंभिक पंक्ति पर ध्यान दिया जाये तो यह गहन अर्थ का सन्दर्भ देती है. पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही, यह पंक्ति महज प्रेमी-प्रेमिका के दृश्य को उद्घाटित नहीं करती है. यदि इस एक पंक्ति के सन्दर्भ निकाले जाएँ, भावार्थ निकाले जाएँ तो समझ आता है कि प्यार को पाने के लिए कोई व्यक्ति कितना लालायित है, भले ही वह झूठा प्यार ही क्यों न हो. आखिर लोगों के जीवन में प्यार की इतनी कमी कैसे हो गई है? या फिर प्यार का सन्दर्भ महज प्रेमी-प्रेमिका के प्यार से लगाया जाने लगा है? क्या व्यक्ति का एकाकी होना उसके प्यार में कमी का परिचायक बनता जा रहा है? क्या व्यक्ति का अकेलापन उसके भीतर प्यार की कमी का एहसास करवा रहा है?


देखा जाये तो लगता है कि इस कोरोना काल में ही नहीं वरन बहुत पहले से व्यक्ति खुद में निपट अकेलापन महसूस करता रहा है. इस अकेलेपन में उसे कोई ऐसा साथ चाहिए होता है जो उसकी भावनाओं को समझ सके, उसके साथ दो पल हँस कर बिता सके. यहाँ समर्पण, विश्वास, प्रेम की बहुत आवश्यकता होती है. जिस तरह का समाज, जिस तरह की दुनिया विगत वर्षों में हम बना चुके हैं उसे देखते हुए लगता है कि व्यक्ति अकेले रहने में बहुत स्वतंत्र है, खुश है मगर वास्तविकता इसके कहीं उलट है. जीवन के तमाम सुखद पलों के बीच भी एक पल ऐसा आता है जबकि प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी साथी की, किसी न किसी दोस्त की आवश्यकता महसूस होती है. इसी आवश्यकता के सन्दर्भ में इस गीत की पहली पंक्ति महत्त्वपूर्ण समझ आती है. कोई अकेला व्यक्ति कैसे किसी के प्यार को पाने की चाह रखता है, भले ही वह दो पल का हो, भले ही वह झूठा ही हो.

ये समय ऐसा है जबकि हम सभी निपट अपने में ही समय नहीं बिता रहे हैं या कहें कि बिता नहीं पा रहे हैं. ऐसे में हमें अपने आसपास के लोगों का, अपने साथियों का, अपने दोस्तों का भी ध्यान रखने की आवश्यकता है. उसे भी हमारे साथ की, हमारे प्यार की आवश्यकता है. उसकी यह आवश्यकता दो पल की न हो, झूठी न हो इसका हमें ध्यान रखना होगा. यदि इतना ध्यान हम सभी रख सके तो सभी एक-दूसरे का प्यार, साथ पा रहे होंगे, वो भी सच्चा वाला, सदा-सदा के लिए.


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23 जुलाई 2020

काव्य रचनाओं में उभर आती है दिल की बात

उस उम्र में पहली कविता लिखी गई जब कविता की समझ बाल-कविताओं के रूप में ही विकसित हो रही थी.  न केवल लिखी बल्कि पिताजी के प्रयास से दो समाचार-पत्रों में प्रकाशित भी हुई थी. तत्कालीन पाठ्य-पुस्तकों में, समाचार-पत्रों के बच्चों का कोना, बाल सभा जैसे साप्ताहिक स्तंभों, बाल पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं के द्वारा कविताओं को सिर्फ पढ़ा ही जा रहा था. न ऐसा विचार था और न ही कहीं मन में था कि कभी कविताएँ भी लिखी जाएँगी. अपनी पहली कविता के प्रकाशन बाद भी जबकि बड़ों से आशीर्वाद; साथियों से, छोटों से स्नेह मिला तब भी ऐसा विचार मन में नहीं आया था. नौ-दस वर्ष की उम्र में पहली कविता के लेखन-प्रकाशन के बाद भी कविताएँ लिखते रहने जैसा कोई भाव मन में नहीं जागा.


आज जबकि गद्य के साथ-साथ पद्य लेखन भी लगातार हो रहा है इसके बाद भी ऐसा लगता है कि कविता लिखी नहीं जा सकती है. जी हाँ, हमारे साथ यही वास्तविकता है. आज भी हम कविता लेखन के नाम पर कविता लिख नहीं पाते हैं. यह एक स्वतः स्फूर्त प्रक्रिया है जो क्षणिक भाव-बोध के साथ आरम्भ होती है और किसी रचना के रूप में इतिश्री को प्राप्त होती है. हमारा व्यक्तिगत रूप से ऐसा मानना है कि काव्य-लेखन कोई प्रक्रिया नहीं है वरन मन की अनुभूति है. कविता, गीत, ग़ज़ल आदि विभिन्न काव्य-विधाओं का लेखन हमसे कभी सायास नहीं हुआ. ऐसा कभी नहीं हुआ कि सोच-विचार कर कागज-कलम लेकर बैठे और एक काव्य-रचना का जन्म हो गया. हमारे साथ ऐसा अनायास होता है. कभी ट्रेन-बस में यात्रा करते समय, कभी घर से महाविद्यालय आते-जाते समय, कभी बाजार में नितांत आवारगी से टहलते हुए, कभी देर रात बिस्तर पर सोने की कोशिश करते समय.

सभी काव्य-रचनाओं के केन्द्र में कोई न कोई घटना, स्थिति, व्यक्ति रहा है. प्रेम सम्बन्धी काव्य-रचनाओं पर हमारे साथियों का, पाठकों का, श्रोताओं का एक मासूम सा सवाल हमसे हमेशा रहा है कि ये रचनाएँ किसके लिए लिखी गईं? यह सत्य है कि कुछ रचनाएँ अपने उस अतीत को याद करते हुए लिखी गईं, जो हमारा वर्तमान नहीं बन सका. यह भी सच है कि कुछ काव्य-रचनाओं में उस प्रेम की खुशबू है जो हमारे साथ न होकर भी हमारे जीवन में घुली-मिली है. चूँकि हमें अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सहज और प्रभावित करने वाला माध्यम काव्य समझ आता है. बहुत ही कम शब्दों में किसी भी बात को दिल की गहराइयों तक बहुत ही आकर्षक और आलंकारिक रूप में उतारा जा सकता है. यही कारण है कि हमने अपनी कविताओं के द्वारा अपने मन की, अपने दिल की बात कहने का प्रयास किया है. इसी के चलते अतुकांत रचनाओं का लेखन भी खूब हुआ है. अतुकांत होने के बाद भी उनमें एक तरह लयबद्धता बनी रहे, इसका प्रयास लगातार किया है. बहुत सी रचनाओं में व्याकरणिक अनुशासन दिखाई नहीं देता है. इसके पीछे हमारा स्वयं का मानना है कि जब कोई रचना स्वान्तः-सुखाय के रूप में हो, अनायास भावबोध के कारण जन्मी हो, अनुभूतियों का प्रस्फुटन हो तो उसे किसी बंधन से मुक्त ही माना जाना चाहिए, रखा जाना चाहिए. शेष तो बस लिखने का प्रयास अभी भी है, लगातार है.

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22 जुलाई 2020

एक और अनावश्यक पहल

एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है, इसे सुनते रहे मगर देखने को अब मिल रहा है। एक प्राइमरी शिक्षक फर्जी मिला तो समूचे प्रदेश के शिक्षकों के कागज जाँचने की प्रक्रिया शुरू हो गई। जो शिक्षिका कई-कई जगहों पर नौकरी करती पाई गई उसके खिलाफ तो कार्यवाही हो गई मगर क्या वह बिना तंत्र के ऐसा करने में सक्षम थी? ऐसी कोई खबर नहीं आई कि उसके कागज़ जाँचने वाले, उसको जगह-जगह नियुक्ति पत्र निर्गत करने वाले, नियुक्त करवाने वाले, वेतन निकलवाने वाले किसी भी व्यक्ति पर कार्यवाही हुई।


इसी घटना का आधार बनाकर प्रदेश सरकार ने पूरे प्रदेश के नियमित शिक्षकों की जाँच हेतु समितियाँ बना दीं। ऐसा लगा जैसे प्रदेश में फर्जी नियुक्ति पाने वाले एकमात्र शिक्षक ही हैं। पूरे प्रदेश में यदि फर्जीवाड़ा जाँचा जाए तो सभी स्तर पर मिल जाएगा। एक-दो नहीं सैकड़ों लोग अलग-अलग नौकरियों में फर्जी नियुक्ति के आधार पर, फर्जी कागजों के आधार पर काम करते मिल जायेंगे।


शिक्षकों की नियुक्ति को जाँचने के नाम पर समितियाँ अपना ही अलग नाटक करने में लगी हैं। ऐसे-ऐसे कागजातों की माँग की जा रही है, जिनकी आवश्यकता न इस समय है और न किसी समय हुआ करती थी। सरकार द्वारा कुछ बिन्दुओं पर जाँच के आदेश निर्गत किये गए हैं मगर समितियाँ स्वयं को स्वयंभू सरकार समझते हुए अनावश्यक रूप से परेशान करने में लगी हैं। यहाँ एक सबसे बड़ी विडम्बना यह सामने आ रही है कि महाविद्यालय के शिक्षकों से ग्रेड में, संवर्ग में एक पायदान पीछे के प्रशासनिक अधिकारी जाँच करने हेतु नियुक्त किये गए हैं। प्रथम दृष्टया यह व्यवस्था ही गलत है मगर इसके खिलाफ भी कहीं से कोई आवाज़ नहीं उठी। शिक्षक हितों के नाम पर संघर्ष (पदों का) करने वाले तमाम संगठन भी चिमाई साधे बैठे रहे। ऐसा लगा कि अब संघर्ष आर्थिक मोर्चे तक ही सीमित रह गया है। 'शिक्षक राष्ट्र निर्माता है' की मलाई चटवाकर सरकार कहीं न कहीं शिक्षक को एक पायदान नीचे ही खिसका चुकी है।

सवाल ये है कि जो शिक्षक कार्यरत हैं क्या वे ही फर्जी हो सकते हैं?

जो पिछले वर्षों तक में रिटायर हुए, क्या वे फर्जी नहीं हो सकते?

आयोग से चयन, मानदेय से विनियमितीकरण के दौरान कागजों को देखने का काम क्या नहीं किया गया?

मान लो कि इस जाँच से कोई शिक्षक फर्जी निकल आता है तो क्या आयोग में, क्षेत्रीय कार्यालय में, निदेशालय में उसके कागजों की जाँच करने वाले पर भी कार्यवाही होगी?

यदि पूरे प्रदेश में कोई शिक्षक फर्जी न निकला तो क्या सरकार पर 'राष्ट्र निर्माता' की मानहानि करने की कार्यवाही शिक्षक संगठनों द्वारा की जाएगी?

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21 जुलाई 2020

रामलला हम आ रहे, अबकी मंदिर ही बना रहे

इधर लगातार खबरें आ रही हैं कि पाँच अगस्त को अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर की आधारशिला रखी जानी है. इस खबर में कितनी सत्यता है, कितनी नहीं ये तो खबर प्रसारित करने वाले जानें मगर दिल को बहुत शांति मिली इस खबर के बाद. पिछले कई दशकों में अपने ही देश में अपने ही आराध्य को लेकर जिस तरह की जलालत झेलनी पड़ी है, वह असहनीय रही. इस खबर के बाद याद आ रहा है वह दौर जबकि किसी भी व्यक्ति के लिए अपना कैरियर बनाने का समय होता है. उस दौर में हमारे समय के लोगों को एक तरफ आरक्षण सम्बन्धी कानून की मार से जूझना पड़ा साथ में अपने मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा को बचाने के लिए लड़ना पड़ा.



उन दिनों को याद करते हुए आँखों में बार-बार नमी आ जाती है जबकि उन दिनों के अपने मित्रों के, अपने कार्यों को याद करते हैं. ये ईश्वर का आशीर्वाद कहा जायेगा कि हम लोग श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण देखने के लिए जीवित हैं, बहुत से कारसेवक ऐसे हैं जो किसी और के नेत्रों से इस दृश्य को देख रहे होंगे. उन दिनों जैसे जूनून सिर पर हावी था. कारसेवकों की सूची बनानी हो, लोगों को अयोध्या के सम्बन्ध में जागरूक करना हो, श्रीराम जन्मभूमि के बारे में जानकारी देना हो सब ऐसे होता था जैसे ये जीवन के लिए अनिवार्य हो. ऐसा नहीं कि सभी साथी इसी में अपने आपको झोंक दिए हों मगर कुछ साथी ऐसे थे जिनके लिए यही एकमात्र काम था. न भविष्य की चिंता, न कैरियर की चिंता, न नौकरी की चिंता बस दिमाग में एक ही बात रहती कि कैसे भी अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि का सपना सच करवाना है.

हमारे हॉस्टल के बहुत से साथियों ने अपना सक्रिय योगदान इसमें दिया. बहुत से लोग दिन-रात एक करके इसी में लगे हुए थे. छोटे-छोटे ग्रुप बनकर सपने को सच करवाने के लिए लगे हुए थे. उस समय बस एक सपना सच हुआ कि एक विवादित ढाँचा गिरा. उसके बाद सपनों भरी आँखों ने और अधिक सपने सजा लिए. अबकी उन सपनों में मंदिर का निर्माण था. सपने समय के साथ सच होते हैं, ऐसा सुना था मगर आज देख लिया. तमाम कानूनी दांवपेंच, अवरोध दूर होते रहे और अब खबर आने लगी श्रीराम मंदिर निर्माण की. इन्हीं आँखों ने विवादित ढाँचा गिरते देखा था, यही आँखें श्रीराम मंदिर निर्माण भी देखेंगी.

जय श्रीराम


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20 जुलाई 2020

'दिल के करीब' अमेज़न किंडल पर उपलब्ध

तकनीक का लाभ समय-समय पर लेते रहना चाहिए. पिछले दिनों आत्मकथा कुछ सच्ची कुछ झूठी के प्रकाशन के सम्बन्ध में बहुत परेशानी उठानी पड़ी. ये और बात है कि अंततः वह प्रकाशित हो ही गई. तकनीक के दौर में इसका लाभ इसलिए भी लेते रहना चाहिए क्योंकि इससे प्रचार-प्रसार सहज हो जाता है. किसी भी सामग्री की, उत्पाद की पहुँच अधिक से अधिक लोगों तक हो जाती है. विगत वर्षों में कई पुस्तकों का प्रकाशन करवाया गया, बहुत सी सामग्री का ऑनलाइन प्रकाशन वेबसाइट अथवा ब्लॉग के माध्यम से हुआ, जिनके अनुभव के आधार  कहा जा सकता है कि प्रिंट से ज्यादा पाठक वर्तमान में इंटरनेट पर हैं. इसी तकनीक का लाभ लेने का विचार काफी समय से चल रहा था.


विचारों का क्रियान्वयन करते हुए अपने कविता संग्रह दिल के करीब को अमेज़न पर किंडल संस्करण के रूप में प्रकाशित कर दिया. यह हमारा पहला काव्य-संग्रह है जो अमेज़न पर किंडल संस्करण के रूप में आया है. आप सभी लोगों से अनुरोध है कि इसे अधिक से अधिक स्नेह प्रदान करके हमें प्रोत्साहित करने का कष्ट करें.




फोटो पर क्लिक करके भी दिल के करीब पहुँचा जा सकता है.
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19 जुलाई 2020

यादों का हटाया जाना सहज होता तो....

यादें समय-असमय चली आती हैं, कभी परेशान करने तो कभी प्रसन्न करने. इनको आने के लिए न तो किसी से अनुमति की आवश्यकता होती है और न ही इनके आने का कोई समय निर्धारित होता है. क्या घटना है, क्या स्थिति है, कैसी परिस्थिति है इससे भी कोई लेना-देना नहीं, बस इन यादों का मन हुआ और आकर सामने खड़ी हो जाती हैं. अब जबकि ये समय अनलॉक की स्थिति के बाद भी नितांत अपने आपमें ही व्यतीत हो रहा है तब इन यादों ने जैसे दिल-दिमाग पर अपना ही कब्ज़ा कर रखा है. इस समय जीवनशैली नियमित होने के बाद भी, अनुशासित होने के बाद भी कहीं न कहीं थोड़ी सी अनियमित है, थोड़ी सी अनुशासनहीन है. ऐसे में कोई काम पूर्ण मनोयोग से संपन्न नहीं हो पा रहा है. किसी भी काम को करते समय उससे सम्बंधित किसी न किसी तरह की यादें अपना स्वरूप निर्मित कर लेती हैं.



आज की आईएस तकनीकी भरी दुनिया में बहुत सारे इंस्ट्रूमेंट बाजार में उपलब्ध हैं. इनमें से बहुतों के साथ मेमोरी का चक्कर जुड़ा होता है. कई बार उनको कार्यशील बनाये रखने के लिए पुरानी संग्रहित फाइल्स को हटाना होता है, उसमें जमा पुरानी, अनुपयोगी सामग्री को भी हटाना होता है. कई बार मन में आता है कि ऐसा कुछ दिमाग के साथ, दिल के साथ क्यों नहीं है? क्यों इनके साथ ऐसी कोई प्रक्रिया जुड़ी नहीं है जो दिल-दिमाग को भी फोर्मेट कर दे, उसके भीतर जमा अनुपयोगी, बेकार सामग्री को, यादों को हमेशा के लिए डिलीट कर दे.

ऐसा विचार इसलिए आता है क्योंकि हर एक याद ख़ुशी देती हो ऐसा नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि हर एक याद का अपना कोई महत्त्व हो. बहुत बार लगता है कि दिमाग, दिल बहुत सी ऐसी यादों को अपने में समेटे है जिनका होना सिर्फ दुःख ही देता है. ऐसी बहुत सी यादें हैं जिनका होना सिर्फ दुःख का कारण होता है. लगता है कि यदि उनका हटाया जाना सहज होता तो शायद बहुत से लोगों का जीवन सुखमय हो सकता था.

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18 जुलाई 2020

बिना पढ़े लिखने का सुख

बहुत बार ऐसा होता है कि दिमाग में खूब सारे विचार उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं मगर जब लिखने बैठो तो लगता है जैसे सबकुछ साफ़ हो गया है. दिमाग किसी कोरे कागज़ सा नजर आने लगता है जहाँ कुछ भी लिखा नहीं है. लिखने का मन होने के बाद भी कुछ न लिख पाना, विचारों का आधिक्य होने के बाद भी उनको शब्दों का रूप न दे पाना जैसे सामान्य सी घटना हो जाती है. ऐसा बहुत बार उस समय भी होता है जबकि किसी विशेष आयोजन पर कोई साहित्यिक रचना लिखनी हो. किसी अवसर विशेष पर पद्य रचना लिखनी हो. ऐसे समय में लिखने की मुश्किल से लगता है कि अभी और बहुत सारा पढ़ने की आवश्यकता है.


ऐसे विचार आते समय ऐसे बहुत से लोग दिमाग में कौंध जाते हैं जो आये दिन अपने लेखन से परिचय करवाते हैं. अपनी तमाम रचनाओं को सुनाते हुए अपने आपको साहित्यकार की श्रेणी में शामिल बताते हैं. ऐसे में उनकी तारीफ करते हुए यदि जानकरी ली जाये कि वे किसे पढ़ते रहे हैं, हाल-फ़िलहाल किसे पढ़ रहे हैं तो इधर-उधर झाँकने लगते हैं. उनसे जानकारी की जाये कि कौन-कौन सी साहित्यिक रचनाओं को पढ़ा है, किस-किस पुस्तक को पढ़ा है तो वे भौचक से बस मुँह खोले खड़े रह जाते हैं.


हमारी समझ से परे है कि आखिर बिना पढ़े लिखने की आदत कैसे बन जाती है? आखिर बिना कुछ पढ़े लोग लिख भी कैसे लेते हैं?



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17 जुलाई 2020

ये प्रीत भी मेरी है

ये हार भी मेरी है
ये जीत भी मेरी है, 
ये दिल भी मेरा है
ये प्रीत भी मेरी है...

😍❤



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16 जुलाई 2020

इस बार तुमने रुला दिया अशीम

उस दिन बहुत से चेहरों से दो दशक से अधिक समय बाद मिलना हो रहा था. बहुत से चेहरे तो ऐसे थे जिनसे पहली बार मिलना हो रहा था. उस दिन के पहले न कभी भी, कहीं भी मुलाकात हुई थी, न कभी कोई बात हुई थी, न फोन से कोई बात हुई थी इसके बाद भी उन तमाम नए चेहरों पर सम्मान भाव झलक रहा था, आदर का भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था.


कॉलेज के उस कैम्पस में, जिसे छोड़े हुए चौबीस साल हो गए थे बहुत सारे जाने-अनजाने चेहरों से आत्मीयता के साथ मिलना हुआ. उन्हीं पहली बार मिलने वाले चेहरों में से एक चेहरा ऐसा सामने आया जो बस परेशान सा करता दिख रहा था. परेशान करने का अंदाज भी ऐसा जिसमें परेशानी नहीं बल्कि अपनेपन का बोध झलक रहा था. लोगों के साथ हँसी-मजाक करने का ऐसा स्वरूप जो उस चेहरे के खिलंदड़ बोध को बता रहा था.

हॉस्टल मीट के दौरान चाय-नाश्ते के इंतजाम में खुद तत्पर अशीम 

उसकी तमाम उलटी-सीधी हरकतों के बीच हमारी चाय पीने की इच्छा को वह जग भर चाय लेकर पूरी करने आ गया. अपने उस परिवार में बड़े होने के हमारे बोध ने उस चेहरे के प्रति आकर्षण नहीं जगाया मगर इतना संकेत अवश्य करवाया कि ये व्यक्ति चुपचाप बैठने वालों में से नहीं है. चाय-नाश्ता बनने के दौरान उसकी तमाम हरकतों के बीच उस नए-नवेले चेहरे का परिचय अपने पुराने साथियों से लिया तो मालूम चला कि उस चेहरे का नाम अशीम है, अशीम प्रकाश जैन. उसकी तमाम हरकतों को देखते हुए मन ही मन एक प्रतिक्रिया उभरी कि हमारे परिवार का ये भी एक बवाली सदस्य समझ आ रहा है.


चूँकि उस दिन हम सभी हॉस्टल मीट के आयोजन पर दो दशकों से अधिक समय बाद मिल रहे थे तो सभी एक-दूसरे से मिलने, पुराने दिनों को याद करने, आपस में सबकी टांग खिंचाई में लगे थे. उसी दौरान अशीम की अपनी स्वाभाविक सी हरकतों के बीच किसी ने हमारी तरफ इशारा करते हुए उसे टोका भी कि न हुए तुम इन भाईसाहब के समय में न तो भूल जाते सब नौटंकी. उसकी प्रतिक्रिया में उसकी हँसी पर हम सब मुस्कुरा कर उसकी हरकतों का आनंद लेते रहे.

कॉलेज के हॉल में बैठने के बाद आपसी संवाद, परिचय, कार्यक्रम के दौरान अशीम की गतिविधियाँ निरंतर बिना किसी गतिरोध के, बिना किसी झिझक के चलती रहीं. मंच संचालक युवक-युवती से माइक छीन कर अपनी बात कहने लगना, परिचय के दौरान अपने साथियों पर कमेंट करना आदि हास्यबोध के रूप में बराबर बना रहा. उस दौरान उसे यह कहते हुए टोका कि अशीम अब न माने तो अभी मंच पर सबके सामने तुम्हारी रैगिंग ले ली जाएगी. इसी दौरान एक बड़े भाई द्वारा उसे एक टिप्पणी पर बुरी तरह से डाँट भी पड़ी मगर अशीम जैसे किसी सीमा में बंधा ही नहीं था. उसकी बालसुलभ हरकतें लगातार ज़ारी रहीं.


वो दिन सबके हंगामा काटने का ही दिन था, सबको एक-दूसरे को देखकर उत्साहित होने के दिन था, सबको पुराने दिनों में गोते लगाने का दिन था इसलिए सब अपनी ही रौ में मगन थे. उस दिन के बाद अशीम से मुलाकात का माध्यम सोशल मीडिया के मंच बने रहे. कभी-कभी उसकी वही हास्य से भरी इक्का-दुक्का टिप्पणी पढ़ने-देखने को मिलतीं, कभी-कभी फोटो-वीडियो से मुलाकात हो जाती मगर उस दिन के बाद आमने-सामने मिलना न हो सका.

इसके बाद भी जिस बंधन में हम सभी हॉस्टल के भाई बंधे हुए हैं वह आपस में आत्मीयता बनाये रहा. उसी आत्मीय माला के एक मोती के रूप में आज अशीम के सीमामुक्त हो जाने का समाचार मिला. एकबारगी विश्वास ही न हुआ. अभी महज बारह-पंद्रह दिन पहले उसके वीडियो देखे थे. आपस में टीका-टिप्पणी भी हुई थी और आज ये खबर. विश्वास न होने के कारण इधर-उधर संपर्क साधा गया और अंततः बुरी खबर के सत्य होने की पुष्टि हुई. हॉस्टल के भाइयों की माला का एक फूल असमय सूख गया. अचानक से 8 अप्रैल 2017 का वह दिन और अशीम की तमाम हरकतें आँखों के सामने घूम गईं.

उस दिन के बाद से हॉस्टल बगिया के दो फूल असमय मुरझाकर हम सबको रुला गए. बहुत कुछ सोचते थे, बहुत कुछ बस विचारों में ही रह गया. अब न अशीम को मिलना है, न उसकी उन हास्यबोध से भरी हरकतों से सामना होना है, न उससे रैगिंग लिए जाने की बात कह पाना है. अब बस वो हम सबकी यादों में है, यादों के सहारे ही हम सबके बीच है. जहाँ भी रहो, हमेशा वैसे ही हँसते-हँसाते रहो.


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15 जुलाई 2020

प्रेम का शबनमी एहसास

पता नहीं लोगों की निगाह में इसे प्रेम माना भी जाता है या नहीं पर हमारे लिए तो प्रेम ही था, आज भी है. उसको जब भी देखा तो ऐसा नहीं हुआ कि देखते ही रह गए हों. ऐसा भी नहीं हुआ कि किसी विशेष आकर्षण भाव से उसे पसंद किया हो. कॉलेज समय की बात थी, देखा और एक-दो मुलाकातों के बाद दोनों लोग अपनी-अपनी जगह, अपने-अपने काम में लग गए. चूँकि किसी तरह का ऐसा भाव भी नहीं जगा कि कहा जाये कि आपस में प्रेम हो गया है. उस एक छोटी सी मुलाकात के कई साल बाद मिलना हुआ. अबकी हम दोनों ही किशोरावस्था से एक कदम आगे निकल कर युवावस्था के साथ टहलकदमी कर रहे थे. अब हम दोनों की अपनी ही दुनिया थी. अपने-अपने सपने थे और उन सपनों की अपनी-अपनी दुनिया थी.



वास्तविक दुनिया के इस मिलन ने अबकी सपनों की दुनिया में दस्तक दी. दोनों की ऑंखें मिलीं और अबकी लगा कि पिछली बार की तरह सिर्फ परिचय नहीं है, सिर्फ आपसी मुलाकात नहीं है वरन इससे भी आगे जाकर कुछ और भी है. मिलना लगातार भले न होता हो पर लगभग नियमित होता था. मिलने पर खूब हँसी-मजाक, खूब इधर-उधर की बातें, उसके कॉलेज के किस्से, हमारे भविष्य की कहानियाँ. नज़रों और दिल की भाषा को समझ रहे थे मगर सब कुछ कहने, बोलने, बतियाने के बाद बस वही न कहा गया जो कहना बाकी रह गया था. बंधनों में हम दोनों ही जकड़े हुए थे. उसके सामने परिवार, संस्कारों का बंधन था और हमारे सामने पारिवारिकता की, सामाजिकता की मजबूरी थी. प्यार तो एहसासों की धरती पर पल्लवित हो सकता है जो उचित वातावरण न मिलने पर यथार्थ के धरातल पर सूख भी सकता है. आकर्षण का शबनमी एहसास वास्तविकता की धूप में मर जाता है.


बड़े सपनों को पूरा करने की चाह छोटी हकीकत को अपनाने को तैयार नहीं थी. अंततः समाज की बनी-बनाई परम्परा, परिपाटी पर प्यार पिछड़ गया. आँखों में तमाम अनकहे सवाल लिए एक-दूसरे को बस देखते ही रहे, सिर्फ देखते ही रहे. प्यार की सपनों भरी दुनिया से निकल कर जब वास्तविकता से परिचय किया तो दिलों के बीच दूरी भले ही न बढ़ी हो पर बीच में इतनी दूरी हो चुकी थी कि मिलने पर आँखों की शांत मुस्कराहट ही आपस में सारा हाले-दिल बयान करने लगती.

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14 जुलाई 2020

बहुत ज्यादा प्यार भी अच्छा नहीं होता

आज की पोस्ट का बस इतना ही सार है.... 



कोई भी हो हर ख्वाब तो सच्चा नहीं होता,
बहुत ज्यादा प्यार भी अच्छा नहीं होता,
कभी दामन छुड़ाना हो तो मुश्किल हो,
प्यार के रिश्ते टूटें तो, प्यार के रस्ते छूटें तो
रास्ते में फिर वफाएं पीछा करती हैं.


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12 जुलाई 2020

तन्हा, एकाकी समाज का आधार रखते हम नागरिक

क्या आने वाले दिनों में ऑनलाइन समारोह समाज की पहचान बनेंगे? क्या आने वाले दिनों में लोगों का विचार-विनिमय का माध्यम ऑनलाइन ही होगा? क्या आने वाले दिनों में हम सभी को अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों का ही उपयोग करना होगा? समाज जिस तरह से एकाकी रूप में बदलता जा रहा था क्या इस चीनी वायरस कोरोना के चलते इस व्यवस्था को सहज स्वीकृति मिल जाएगी? जी तरह से सभी लोग स्वार्थ में लिप्त होकर सिर्फ और सिर्फ खुद के लिए ही काम करने में लगे थे क्या भविष्य में इसी सोच को स्वीकार्यता मिल जाएगी?



ऐसे और भी बहुत से सवाल हैं जो विगत तीन महीनों में दिमाग में कौंधते रहे. पिछले दिनों एक कार्यालय में अत्यावश्यक कार्य से जाना हुआ. वहाँ एक अत्यंत वृद्ध व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक ऊँची एक सीढ़ी चढ़ने में दिक्कत हो रही थी. वे लगभग तीन-चार मिनट से प्रयास कर रहे होंगे, ऐसा उनकी हालत देखकर लग रहा था. उनके आसपास खड़े लगभग दस-पंद्रह लोगों में से किसी ने उनका हाथ पकड़ कर उनको ऊपर चढ़ाने में सहायता नहीं की. इत्तेफाक की बात कि उसी सीढ़ी से हमें भी चढ़ना था. अपने साथ-साथ एक हाथ से खुद को और एक से उन बुजुर्ग सज्जन को सहारा देकर ऊपर चढ़ाया. इस पर सबसे पहली टिप्पणी यही मिली कि अपने हाथ सेनेटाइज कर लीजिये, आपने इनको छू लिया है. समझ न आया कि आखिर हम किस तरह के पढ़े-लिखे समाज में पहुँचा दिए गए, एक वायरस के द्वारा?


कोरोना वायरस को समझना किसी राकेट साइंस का हिस्सा नहीं इसके बाद भी हम सभी जबरदस्त तरीके से एक-दूसरे को भ्रमित करने में लगे हैं. बहरहाल, आज कोरोना पर नहीं वरन उससे उपजी मानसिकता पर इतनी बात कहनी है कि इसने उन सभी स्वार्थी लोगों को मजबूत किया है जो कभी भी किसी की सहायता नहीं करते थे. वे अब कोरोना संक्रमण के नाम पर खुद को अलग किये हुए हैं. ऐसे लोग जो मदद के लिए आगे आते थे, उनको ऐसे लोगों ने कोरोना से सम्बंधित आँकड़ेबाजी में उलझाकर दूर कर दिया है. ऐसी स्थिति में बहुत कम लोग बचे हैं जो इस स्थिति में भी सहायता के लिए आगे आ रहे हैं. समझना होगा कि कोरोना आज नहीं तो कल चला ही जायेगा. भले ही समाप्त न हो मगर बहुत हद तक नियंत्रण में आ जायेगा मगर सोचना होगा कि हम आज इस दौर में किस तरह का भावी समाज निर्मित करने में लगे हैं?

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11 जुलाई 2020

विश्व जनसंख्या दिवस पर....

आज विश्व जनसंख्या दिवस है. समझ नहीं आ रहा कि इस दिवस पर बधाई, शुभकामना दी जाएँ या फिर जिस तेजी से हम बढ़ते जा रहे हैं, उसके लिए दुःख प्रकट करें? सोचियेगा, क्या किया जाये? 



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10 जुलाई 2020

एक गलती की इतनी बड़ी सजा

किसी गलती की क्या सजा हो सकती है? ये गलती पर निर्भर करता है या सजा देने वाले की मानसिकता पर? अब सजा देने वाले के मन की कोई क्या जाने मगर जहाँ तक हमारी व्यक्तिगत राय है तो कोई भी सजा उसकी गलती के आधार पर ही निर्धारित होनी चाहिए. ऐसा इसलिए क्योंकि सजा देने वाले की मानसिकता में परिवर्तन होते रह सकते हैं मगर गलती एक जैसी ही होगी, वह चाहे किसी भी जगह हो, किसी के साथ हो. गलती कई बार जानबूझ कर होती है, कई बार अनजाने में हो जाती है. इसके अलावा कई बार गलती करने के पीछे एक उद्देश्य होता है. यह उद्देश्य दो तरह से हो सकता है, एक सकारात्मक और एक नकारात्मक. अब आप कहेंगे कि गलती भी की जा रही और वह भी सकारात्मक. जी हाँ, ऐसा होता है.


सकारात्मक गलतियाँ हम सभी ने की होंगी, आज भी करते होंगे. याद करिए अपने बचपन को. याद आया कुछ, जब आप मित्र-मंडली किसी ऐसे काम को करके आते हैं कि जिस पर कुछ न कुछ सजा मिलनी निश्चित है तब उस समय उस गलती की जिम्मेवारी कोई ऐसा व्यक्ति अपने सिर ले लेता है जो कम से कम सजा का भागी बनेगा. एक घटना अपनी याद आती है, जबकि हम लोग स्कूल में से समोसे खाने के लिए अपने मित्र को बाहर निकालते थे. उस गलती कि क्लास छूट रहा, पकडे गए तो सजा उसी मित्र को मिलेगी, हम सभी मित्र करते थे. वह बालपन की अबोध गलती थी, पता नहीं आज इसे गलती कहा जायेगा या कि कुछ और. बहरहाल, उन दिनों की तरह दिल युवावस्था में भी अबोध बना रहा, गलतियाँ करता रहा.


बचपन की तमाम गलतियाँ भुला दी गईं, उनकी कहीं न कहीं माफ़ी भी मिल गई मगर एक गलती ऐसी हो गई जिसकी माफ़ी मिलती न दिख रही. वह गलती भी सकारात्मक विचार के कारण पैदा हुई. असल में स्वभावगत एक कमी हमारे अन्दर हमेशा से रही है कि दोस्ती में सबकुछ कुर्बान कर देने तक की मंशा रखते हैं. हमारे घरवालों को बहुत बार हमारे इस स्वभाव से बहुत ज्यादा परेशानी होती है. इसके बाद भी न घरवाले अपनी आदत से बाज़ आते हैं और न हम ही अपनी आदत छोड़ पाते हैं. इसी आदत के चलते दो दोस्तों या कहें दोस्तों से ज्यादा वाली स्थिति के बीच समन्वय बनाने बैठ गए. अब बैठे तो बस बैठे ही रह गए. इस समन्वय के बीच ऐसी ग़लतफ़हमी उपजी कि हम आज तक अपराधी बने सजा भुगत रहे हैं.

इस बारे में कहना कुछ नहीं क्योंकि हम मानते हैं कि गलती हमारी है. गलती ये कि दो लोगों के बीच में कभी नहीं आना चाहिए भले ही सबकी आपस में मित्रता है. गलती ये कि कभी भी संबंधों को बचाए रखने का प्रयास नहीं करना चाहिए भले ही सम्बन्ध आपस में ही क्यों न बिखरते हों. गलती ये भी कि कभी ये नहीं समझना चाहिए कि जो आपके करीब है वो आपकी बात को महत्त्व देगा. खुद को हमेशा सबसे अलग हाशिये पर समझना चाहिए और अपने आपको बचाने की कोशिश करनी चाहिए. फ़िलहाल तो सबक मिला है, इस घटना से. आगे अपने स्वभाव को देखते हैं कि नियंत्रण में आता है या नहीं.

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09 जुलाई 2020

खातिरदारी नहीं सार्वजनिक सजा मिले अपराधियों को

इसे शायद मानवाधिकार का उल्लंघन माना जायेगा मगर हमारा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि दुर्दांत अपराधियों को, आतंकियों को सार्वजनिक रूप से अत्यंत कष्टकारी और दुखद मौत देनी चाहिए. उनको दी जाने वाली सजा इतनी भयावह और दर्दनाक हो कि आने वाले समय में लोग अपराध करने से डरें. फाँसी या फिर आजीवन कारावास किसी भी रूप में कोई सजा नहीं. फाँसी के बाद अपराधी तो सभी तरह के कष्टों से मुक्त हो गया, भुगतता है उसका परिवार. इसी तरह से आजीवन कारावास में अपराधी बड़े ही चैन की नींद लेते हैं. दुर्दांत अपराधियों का और उनके रसूख की जानकारी आज जन-जन को रहती है, ये और बात है कि व्यक्ति अपनी और अपने परिवार की जान की चिंता करते हुए उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं करता है.



व्यक्तिगत स्तर पर हमारा मानना है कि किसी भी तरह के ऐसे अपराधियों को, जिनका बहुत सारे केस में हाथ है, जिनका आपराधिक इतिहास भी प्रमाण सहित प्रशासन के पास है उनके सम्बन्ध में किसी तरह की रियायत नहीं होनी चाहिए. अपराधियों को जिन्दा बनाये रखना, उनकी खातिरदारी करते रहना किसी भी तरह की अकलमंदी नहीं है. ये कहना कि उनके द्वारा सबूतों को इकठ्ठा कर लिया जायेगा, रसूखदार लोगों पर शिकंजा कस लिया जायेगा, सिर्फ टहलाने की बातें हो सकती हैं. देश में बहुत से अपराधी ऐसे हैं जिनको अभी तक जिन्दा रखा गया है, जिनसे बहुत सारे प्रमाण मिल चुके हैं मगर कोई बताये कि किस रसूखदार के गिरेबान में आज तक पुलिस ने हाथ डाल पाया है? हत्या, अपहरण, बलात्कार सहित ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें संरक्षण गृह की बालिकाओं तक के साथ अपराध किया जाता है, किस मामले में आजतक किसी रसूखदार व्यक्ति की गिरफ़्तारी हुई है? किसी एक केस का नाम लेकर बाकी दूसरे केसों को कमजोर बताना यहाँ मकसद नहीं है, यहाँ बस यही बताना है कि सबूतों का इकठ्ठा किया जाना, अपराधियों के बयानों पर रसूखदारों पर शिकंजा कसने की बातें बस जनता को टहलाने के लिए हैं.

एक-दो बार नहीं, अनेक बार ऐसी खबरें सामने आई हैं जबकि रसूखदारों से सम्बन्ध रखने वाले अपराधियों को जेल में वीआईपी सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाती रही हैं. बहुत से अपराधी ऐसे हैं जिनके बारे में साफ़ तौर पर मीडिया में आता रहा है कि वे जेल से भी अपने आपराधिक कृत्यों को सहजता से संचालित करते रहते हैं. आये दिन जेल में मोबाइल का मिलना, अन्य सामानों का मिलना इसी बात की तरफ इशारा करता है. ऐसे में किसी भी दुर्दांत अपराधी को जिन्दा रखते हुए, उसकी खातिरदारी करते हुए किसी न किसी रूप में प्रशासन को ही हतोत्साहित करना है. प्रशासन की अपनी ही जिम्मेवारियाँ कम नहीं हैं, ऐसे में अपराधियों की खातिरदारी करवाने से बचना चाहिए. यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि जिस तरह का तंत्र हमारे समाज में अब स्थापित हो चुका है, वहाँ किसी भी रसूखदार पर हाथ डालना सहज नहीं. ऐसे में अपराधियों से मिलने वाले सबूतों, प्रमाणों का अचार डालने से बेहतर है कि उनको सार्वजनिक रूप से ऐसी सजा दी जाये जिसे देखकर, सुनकर बाकियों के हाथ-पैर काँप जाएँ. न सही पूरी तरह से मगर बहुत हद तक अंकुश लगेगा अपराध पर, ऐसा हमारा व्यक्तिगत रूप से मानना है. हाँ, इसके लिए अपराधियों के मानवाधिकारों की चिंता करना बंद करना होगा.

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08 जुलाई 2020

एक बार अंतिम युद्ध कर लो, शायद जीत जाओ

फिल्म इंडस्ट्री में एक कलाकार ने आत्महत्या क्या की, ऐसा लगने लगा जैसे देश की पहली आत्महत्या है. कुछ लोग इसे हत्या भी बता रहे. एक पल को इस पर विचार कर लिया जाये, तब भी जिस तरह से समाज की युवा पीढ़ी इस पर अपना दिमाग केन्द्रित किये है, लग रहा है जैसे देश में पहला केस है जो हत्या से संदर्भित है. इसी अवधि में कई और हत्याएँ हो चुकी हैं. पूरे के पूरे परिवार को नृशंस तरीके से मौत के घाट उतार दिया है मगर एक कलाकार के लिए धरती हिला देने वालों के दिमाग पर जरा भी फर्क नहीं पड़ा इन हत्यायों से.


बहरहाल, सभी का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है, सभी से अपनी तरह का लगाव होता है, संभव है कि उस कलाकार से भी वैसा लगाव रहा हो. इस एक आत्महत्या की घटना के पहले भी और इसके बाद भी समाज में इधर आत्महत्याओं का एक सिलसिला सा चल पड़ा है. कहीं किसी शिक्षक द्वारा, कहीं किसी पत्रकार द्वारा, कहीं किसी बेरोजगार द्वारा, कहीं किसी परिवार के मुखिया द्वारा ऐसा किये जाने की खबरें आ रही हैं. सबके अलग-अलग हालात रहे होंगे, इससे इंकार नहीं मगर एक सवाल उठता है कि उसके आत्महत्या करने से क्या हालात सुधर गए होंगे? क्या जिन परिस्थितियों से हारकर उसने आत्महत्या की होगी, वे स्थितियाँ अब सही हो गई होंगीं? परिवार को जिस कष्ट में न देख पाने के कारण किसी व्यक्ति ने अपनी जान ले ली क्या अब वे परिजन उस कष्ट से मुक्त हो गए होंगे? यहाँ बस इतना हुआ कि व्यक्ति स्वयं जिस कारण से परेशान रहा होगा वह उनसे मुक्त हो गया. उसके बाद उसके परिजन किस कष्ट से जूझ रहे होंगे, उसे अब कोई चिंता नहीं. उसके बीवी, बच्चे अब किस गली में भीख माँग रहे होंगे, उसे किसी की चिंता नहीं. उसके बूढ़े माँ-बाप किसके सहारे अपना जीवन गुजारेंगे इसके बारे में भी कोई फ़िक्र नहीं.


आत्महत्या करके वह व्यक्ति खुद को सभी कष्टों से मुक्त कर लेता है या कहें कि कायराना हरकत दिखाते हुए दुनिया से, समाज से मुँह छिपा लेता है. अपने आपको कमजोर साबित करते हुए अपनी भी परेशानियों को अपने परिजनों के सिर पर थोप जाता है. हमारी नजरों में यह निश्चित ही कोई वीरतापूर्ण कदम नहीं कहा जायेगा, शेष सबकी अपनी राय. इसी संबंध में हमारा मानना है कि हारने या आत्महत्या के पहले एक बार अंतिम युद्ध कर लो, शायद जीत जाओ.

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