28 अप्रैल 2020

लिखने का कीड़ा और छपास का रोग

लिखने का कीड़ा बचपन में ही काट गया था. उस समय हम लगभग दस-ग्यारह साल के रहे होंगे, उस समय पहली कविता लिखी थी. वह कविता न केवल लिखी गई बल्कि प्रकाशित भी हुई. बाद में पढ़ाई का, परीक्षाओं का सोंटा चला तो लिखने का कीड़ा कहीं दुबक गया. यह कीड़ा कभी-कभी कुलबुला जाता और इधर-उधर काट कर वापस सुसुप्तावस्था में चला जाता.


यद्यपि आज के जैसा दौर नहीं था जहाँ कि बच्चे चौबीस घंटे बस पढ़ाई और कैरियर के लिए चिंताग्रस्त दिखते हैं तथापि इतना अवश्य था कि पढ़ना है, पास होना है. क्या बनना है जैसा सवाल हर पल बदलता रहता था. नब्बे के दौर में स्नातक के अध्ययन के दौरान भी कैरियर के प्रति गंभीरता नहीं आ सकी, हाँ इतना अवश्य हुआ कि ये समझ आने लगा कि स्नातक के कुछ दिन बाद आजीविका के लिए कुछ करना अवश्य पड़ेगा. इस में ध्यान दिया, लोगों से राय ली, पूछा-ताछी की गई तो हमें अपने मनमाफिक सिविल सेवा में जाना लगा. ये जब तक दिमाग में आता उसके पहले ही लिखने वाला कीड़ा वापस बाहर आ गया. आखिर अब पढ़ाई का सोंटा घर की तरफ से पड़ना बंद हो गया था.


एक तरफ सिविल सेवा की तैयारी चल रही थी दूसरी तरफ लिखने वाला कीड़ा अपने रूप को विस्तार देने का विचार बना रहा था. लिखा तो जा रहा था पर छपना? कीड़े ने फिर काटा, अबकी छपास रोग साथ में लेकर आया. सबसे आसान लगा सम्पादक के नाम पत्र में लिखना और छप जाना. इसे चुनने के पीछे दो कारण भी रहे. एक तो समसामयिक विषयों पर त्वरित टिप्पणी दी जा सकती थी और खुद अपने आपको अपडेट रखा जा सकता था. समाचार-पत्रों में पत्र छपना शुरू हो गए. पत्रिकाओं में साहित्यिक रचनाएँ भी प्रकाशित होती रहीं.


उन्हीं दिनों अमर उजाला समाचार पत्र ने पत्र कॉलम में प्रकाशित एक विशेष पत्र को ख़ास ख़त नाम से प्रकाशित करना आरम्भ किया. हमारे पत्र लगातार प्रकाशित हो रहे थे. उन पत्रों के प्रकाशन ने खूब नाम दिया, पहचान दी. इसके बाद जब ख़ास ख़त का प्रकाशन होने लगा तो उसमें भी पत्र प्रकाशन नियमित रूप से होने लगा. लम्बे समय तक यह व्यवस्था अमर उजाला की तरफ से चलती रही और हमारा प्रकाशन उसमें चलता रहा. कालांतर में लेखन की दिशा बदली. सामायिक, साहित्यिक विषयों के साथ-साथ शोध-पत्रों के लेखन की तरफ मुड़ना हुआ. पी-एच०डी० के लिए शोध कार्य में जुटना पड़ा. धीरे-धीरे पत्र कॉलम में लिखना कम होते-होते बंद हो गया.

उन सभी प्रकाशित पत्रों को संग्रहीत करके रखा हुआ था. कालांतर में ख़ास ख़त कॉलम में प्रकाशित समस्त पत्रों को ख़ास ख़त नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित भी करवाया. इस लॉकडाउन के फुर्सत भरे समय में स्मृति वन में भटकना, टहलना लगातार हो रहा है. आज टहलते-टहलते पत्रों की उसी दुनिया में पहुँच गए, जिसने हमारी पहचान बनाई, जिसने हमें व्यापक क्षेत्र में परिचित करवाया. इसका सुखद अनुभव भी उसी दौर में हम ले चुके थे.



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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

4 टिप्‍पणियां:

  1. लिखना और उसका प्रकाशित ही जाना इससे जो सुख मिलता है वो लेखक ही समझ सकता है । लेखन जारी रखें ।

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  2. मुझे भी यही लगता है कि ये कीड़ा भी सबको बचपन मे ही काट लेता है और फिर वो ताउम्र शब्दों का सेवक प्रेमी होकर रह जाता है । ये कीड़ा बरकरार रहे राजा साहब ।

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  3. इतिहास लेखन का ही परिणाम है, लेखन होना चाहिए !

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  4. अच्छा आलेख ... लिखने का सफ़र सफल रहा आपके ही एक अच्छी बात है .. हम जैसे तो छपास लोगों की श्रेणी में ही नहि आते ...

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