हिन्दी
से सम्बन्धित दिवस, सप्ताह आदि का आयोजन शुरू होते ही सभी जगह हिन्दी की बात होने
लगती है. हिन्दी को लेकर हिन्दी भाषियों और अहिन्दी भाषियों के द्वारा हिन्दी
विकास के लिए अपने स्तर पर चर्चा आरम्भ हो जाती है. आज हिन्दी दिवस के अवसर पर
हिन्दी के विकास, उसकी उन्नति, राष्ट्रभाषा बनने की राह में आते अवरोध, वैश्विक
भाषा बनने की राह, हिन्दी उपन्यास को बुकर मिलने, हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ
में भाषाई मान्यता मिलने आदि पर चर्चा न करके कुछ ऐसे बिन्दुओं पर चर्चा करते हैं,
जिन पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता है. आज बहुत से हिन्दी शब्द सामान्य प्रयोग से
बाहर होते जा रहे हैं या कहें कि बाहर किये जा रहे हैं. इनकी जगह पर अंग्रेजी
शब्दों को सहजता से इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसी स्थिति के लगातार स्वीकार्यता
मिलने से बहुत सारे हिन्दी शब्दों का विलोपन देखना पड़ सकता है.
देखा
जाये तो शब्दों की अपनी ही निराली दुनिया है. इस शाब्दिक दुनिया में ऐसे बहुत से
शब्द हैं जिनका कोई विशेष अर्थ नहीं हैं मगर वे बहुतायत में बोले जाते हैं, आपसी
वार्तालाप में प्रयोग किये जाते हैं. ऐसे शब्दों के अर्थ व्यक्तियों की बातचीत के
सन्दर्भ में स्वतः निर्धारित हो जाते हैं. ग्रामीण अंचल में सहज रूप से बोलचाल में
आने वाला शब्द ‘ठलुआ’ राजनीति में उस समय खूब चर्चा में रहा जबकि एक राजनैतिक महाशय
ने इसे चर्चा के केन्द्र में ला दिया था. शब्दों के ऐसे प्रयोग के साथ-साथ
शब्द-संकुचन, शब्द-विस्तार जैसी अवधारणा सहज देखने को मिलती
है. हमारे आसपास बहुत से शब्द ऐसे हैं जो अपने मूल अर्थ से अधिक विस्तार पा गए. ‘डालडा’, ‘टुल्लू’, ‘ऑटो’, ‘तेल’
आदि ऐसे ही शब्द हैं जिनका अपना विशेष सन्दर्भ है किन्तु आज ये व्यापकता के साथ
प्रयुक्त किये जा रहे हैं. वनस्पति घी के एक ब्रांड के रूप में सामने आये डालडा को
आज ब्रांड नहीं वरन उत्पाद के रूप में देखा जाता है. इसी तरह तेल शब्द का अभिप्राय
उस उत्पाद से है जो तिल से निकलता है. आज इसका विस्तार होकर अनेक तरह के पदार्थों
के लिए प्रयोग में लाया जाने लगा. शब्दों की इसी व्यापकता के सन्दर्भ में आज एक
शब्द ‘निर्भया’ भी चर्चा में है. दिल्ली में दिल दहलाने
वाली घटना के बाद निर्भया शब्द चलन में आया और आज इसे अन्य दूसरी घटनाओं के साथ भी
जुड़ा हुआ पाते हैं. बिना उसका मर्म जाने, बिना शब्दों का मूल
भाव जाने उसे व्यापक सन्दर्भों में प्रयुक्त किया जाना भाषाई विसंगति ही है.
शब्द-विस्तार
की तरह शब्द-संकुचन की स्थिति भी देखने में आती है. इसके उदाहरण के रूप में ‘कमल’
को लिया जा सकता है. कमल के विविध पर्यायों के अलग-अलग सन्दर्भ, अलग-अलग अर्थ हैं वो चाहे ‘सरोज’ हो, ‘पंकज’ हो या
फिर ‘नीरज’ आदि हो. इसके बाद भी किसी भी स्थान विशेष पर खिले हुए कमल-पुष्प को
सिर्फ कमल से ही पुकारा जाता है. दरअसल शब्द-संकुचन अथवा शब्द-विस्तार की स्थिति
व्यक्ति की उस मानसिकता के कारण उपजती है जहाँ वो किसी भी शब्द अथवा स्थिति के मूल
में जाना पसंद नहीं करता. किसी शब्द के मूल अर्थ की जानकारी लेने का प्रयास नहीं
करता है, वहाँ भी ऐसी स्थिति देखने को मिलती है. इनके अलावा
भाषाई स्तर पर शब्दों के विलुप्त होने की स्थिति भी अब आम हो चली है.
शब्दों
का विलुप्त होना उनके चलन में न रहने के कारण, शब्द
विशेष के कार्यों, वस्तुओं आदि के चलन में न रहने के कारण, उनसे गँवईपन का बोध होने के चलते उनको किनारे किये जाने के कारण से होता
है. बहुत सारे ऐसे शब्द हमारे बीच से इस कारण गायब हुए क्योंकि उनसे सम्बंधित
सेवाओं का, वस्तुओं का प्रचलन ही समाज में नहीं हो रहा है. इनमें ‘भिश्ती’,
‘मसक’, ‘ठठेरा’, ‘सिल-बट्टा’,
‘मूसल’ आदि शब्दों को लिया जा सकता है. किसी समय ग्रामीण अंचलों में
धड़ल्ले से बोले जाने वाला ‘फटफटिया’ शब्द ‘मोटरसाईकिल’ से होता हुआ ‘बाइक’ पर आकर रुक गया. इसी तरह से सामान्य
बोलचाल में हिन्दी शब्दों की उपलब्धता के बाद भी अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से भी
बहुत से शब्द या तो चलन से बाहर हो गए हैं या फिर उसी राह पर हैं. घर में काम आने
वाली ‘तश्तरी’ अब ‘प्लेट’ में बदल चुकी है. ‘प्याले’ भी
‘कप’ में बदल गए हैं. ‘फीवर’, ‘वीकनेस’, ‘डॉगी’, ‘केयर’, ‘टेस्टी’, ‘वीसी’, ‘रजिस्ट्रार’,
‘एडमीशन’, ‘लिस्ट’ आदि सहित ऐसे अनेक शब्द हैं जो बहुत तेजी से आम बोलचाल में
शामिल होकर मूल हिन्दी शब्दों ‘बुखार’, ‘कमजोरी’, ‘कुत्ता’, ‘स्वादिष्ट’, ‘कुलपति’,
‘कुलसचिव’, ‘प्रवेश’, ‘सूची’ आदि को चलन से बाहर करने में लगे हैं.
भाषाई
स्तर पर ये स्थिति चिंताजनक है, होनी भी चाहिए क्योंकि ऐसे
अनेक मूल हिन्दी शब्द अपने अस्तित्व में होने के बाद भी धीरे-धीरे चलन से बाहर
होते जा रहे हैं. अपने अस्तित्व में होने के बाद भी शिक्षा क्षेत्र से ‘भौतिकी’, ‘रसायन
विज्ञान’ आदि जैसे कुछ शब्द अब चलन से बाहर ही हैं. इनकी जगह पर सहजता से ‘फिजिक्स’,’
केमिस्ट्री’ का प्रयोग होने लगा है. कई बार लगता है कि जब इन्सान ने अपने रिश्तों, संबंधों, परिवार तक को विलुप्त होने की स्थिति
में पहुँचा दिया है तो फिर शब्दों की बिसात ही क्या है. तकनीकी के बढ़ते जा रहे
प्रभाव के चलते एक अबोल स्थिति इंसानों के मध्य पनपती जा रही है. सूचना तकनीकी
क्रांति ने बातचीत को भी लगभग समाप्त कर दिया है. संदेशों का आदान-प्रदान करके
कर्तव्यों की इतिश्री की जाने लगी है. ऐसी अबोल स्थिति में जबकि संवाद विलुप्त हैं, बातचीत में ही शब्द विलुप्त हैं तो फिर भाषाई विलुप्तता से घबराहट किसलिए?
वाह सरजी उत्तम विश्लेषण 🙏🙏
जवाब देंहटाएंसत्य और सुंदर लिखा है सर 🙏🙏
जवाब देंहटाएंसर आपसे हमेशा बहुत कुछ सीखने को मिलता है ।आपने यह विश्लेसड बहुत अच्छा और गहरा किया है जो हम पाठक जानो के लिए आंखे खोलने के समान है।
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