विगत
कई वर्षों से उरई नगर पालिका की राजनीति में उतार-चढ़ाव जैसी स्थिति बनी रही. न तो
राजनैतिक दल समझ सके कि ये हो क्या रहा है और न ही मतदाताओं की समझ में आया कि वे
करते क्या हैं? मतदाताओं ने मूड बनाया तो किसी एक दल को जिता दिया और अगली ही बार
दूसरे दल के हाथ में अध्यक्ष पद को सौंप दिया. नामांकन, मतदान से लेकर मतगणना तक
के शोर-शराबे के बाद मतदाता एक आवाज़ नहीं उठाते कि क्या सही हो रहा, क्या गलत हो
रहा.
वर्तमान
नगर पालिका अध्यक्ष के कार्यकाल को शुरू हुए अभी एक-दो महीने ही बीते हैं कि
उठापटक शुरू हो गई है. पिछले अध्यक्ष द्वारा शहर की बहुत सी सड़कों पर डिवाइडर का
निर्माण करवाया गया था. इन सड़कों में विशेष रूप से कालपी रोड था, जहाँ पहले तो
अपनी मनमर्जी से सड़क पर गड्ढे खुदवा कर डिवाइडर बनवाने का विचार था. बाद में ऊपर
से हथौड़ा चला तो अध्यक्ष जी अपना हथौड़ा भूल गए. बावजूद इसके न्यायालय को छोड़कर शेष
सड़क पर डिवाइडर का निर्माण करवा दिया गया. आज देखने को मिला कि वे सारे के सारे डिवाइडर
उखड़े पड़े हुए हैं. सड़क के किनारे टूटे-उखाड़े हुए डिवाइडर का पड़ा होना अपने आपमें
कहानी है.
इस
समय शहर में सुन्दरीकरण के नाम पर तोड़-फोड़ मची हुई है. कहीं प्रशासन द्वारा पिछले
बजट को ठिकाने लगाया जा रहा है, कहीं वर्तमान नगर पालिका अध्यक्ष द्वारा नए बजट की
जुगाड़ की जा रही है. इस पूरे प्रकरण में, पूरी प्रक्रिया में कोई नहीं पूछ रहा कि आखिर
बने-बनाए उचित निर्माण को क्यों तोड़ा जा रहा है? यदि इन्हीं डिवाइडर की बात करें
तो कहीं से कोई सवाल नहीं उछला कि ये क्यों तोड़े जा रहे? यदि पिछले अध्यक्ष द्वारा
बनवाए गए डिवाइडर गलत थे तो तत्कालीन जिलाधिकारी अथवा उच्चाधिकारियों ने इसका
विरोध क्यों नहीं किया? इसका अर्थ यही लगाया जाये कि उनका निर्माण सही था. यदि
निर्माण सही था तो अब तोड़े जाने का किसी उच्चाधिकारी द्वारा विरोध क्यों नहीं किया
गया? क्या माना जाये कि बजट को ठिकाने लगाने में ऊपर से नीचे तक सब मिले हुए हैं?
वैसे
देखा जाये तो उरई में डिवाइडर का खेल कोई नया नहीं है. सबसे पहले लोहे के डिवाइडर
लाये गए थे, जो अस्थायी थे और उनको उपयोगिता के अनुसार कहीं भी लगाया जा सकता था.
सैकड़ों की संख्या में बने वे डिवाइडर कब कबाड़ में बदल गए पता ही नहीं चला. उनकी
जगह पत्थर के डिवाइडर बनवाए गए, जो छोटे-छोटे हिस्सों में थे. वे भी लोहे वालों की
तरह की टूट-फूट का शिकार होते हुए कबाड़ का हिस्सा बनते रहे. अभी कुछ पत्थर के
डिवाइडर कोंच रोड पर अंतिम साँसें भरते देखे जा सकते हैं. लोहे के बने डिवाइडर में
से कुछ अपनी अंतिम साँसें गिनते हुए कभी मेडिकल पर, कभी किसी चौराहे पर अपने
अस्तित्व को दिखाते मिल जाते हैं.
बहरहाल,
नगर पालिका अध्यक्ष हों या फिर प्रशासनिक उच्चाधिकारी, सभी अपने आपमें प्रशासन
हैं. इसलिए जो हो रहा वो सही. हम जैसे लोग तो वैसे भी अडंगा लगाने वाले, उँगली
करने वाले कहे जाते हैं. आगे भी कहे जाते रहेंगे मगर खामोश नहीं बैठेंगे.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें