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03 जुलाई 2023

हिंसा के मूल में मानवीय स्वभाव

फ्रांस में सत्रह वर्षीय किशोर नाहेल की मौत के बाद देश में हुई हिंसक घटनाएँ अभी भी जारी हैं. पुलिस के द्वारा अभी तक तीन हजार से अधिक लोगों की गिरफ्तारियाँ हो चुकी हैं, जो इन हिंसक घटनाओं में शामिल रहे हैं. बताया जा रहा है कि नाहेल पुलिस द्वारा की जा रही वाहन चेकिंग के लिए रुका नहीं. उसने अपनी कार आगे बढ़ा दी, इस पर पुलिसकर्मियों ने पॉइंट-ब्लैंक पर उसे गोली मार दी. इससे नाहेल की मौत हो गई. इस घटना ने फ्रांस को झकझोर कर रख दिया. इस घटना के बाद सही-गलत को एक पल के लिए हाशिये पर रखते हुए इसका आकलन किया जाये कि क्या मानवीय समाज इतना व्यग्र, संयमहीन हो चुका है कि ऐसी किसी भी घटना के लिए शासन-प्रशासन से न्याय की उम्मीद करने से बेहतर खुद ही हिंसा करना समझता है? क्या फ़्रांस में जिस तरह से विगत कई दिनों से हिंसक घटनाएँ हो रही हैं, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाया जा रहा है, उससे क्या नाहेल को न्याय मिल गया?

 

असल में फ़्रांस की ये वर्तमान हिंसा हो अथवा ऐसी किसी भी घटना पर सम्पूर्ण विश्व में होती हिंसा हो, सभी के मूल में सम्बंधित व्यक्ति के लिए न्याय पाना नहीं होता है बल्कि ये समाज के द्वारा अपनी मानसिकता को सार्वजनिक करना होता है. इस तरह की हिंसक वारदातें, चाहे वे बड़े रूप में हों या फिर छुटपुट घटनाओं के रूप में, अपने देश में भी आये दिन होती हैं. किसी घटना का सहारा लेकर धर्म, जाति आदि के लोगों पर हमला बोल देना, सार्वजनिक संपत्ति को लूटना, उसका नुकसान कर देना आदि समाज की उस क्रूर मानसिकता के कारण होता है जिस पर लोगों का ध्यान बहुत कम ही जाता है.  

 



क्या हम लोगों ने कभी इस पर विचार किया कि इंसानी स्वभाव के मूल में क्या है? क्यों उसे सदियों से प्रेमसौहार्द्र का पाठ पढ़ाना पड़ रहा है? बावजूद इसके वह सिर्फ और सिर्फ हिंसा की तरफ ही बढ़ता जा रहा है. फ़्रांस जैसी व्यापक हिंसक घटना को छोड़ भी दें तो भी एक ऐसे समाज में जहाँ सड़क चलती महिलाओं, लडकियों, बच्चियों को छेड़ा जाता हो; जहाँ बेटी समाज के साथ-साथ गर्भ तक में असुरक्षित हो; जहाँ पल-पल में महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाया जा रहा हो; जहाँ डकैती, हत्याएँ, अपराध आम बात हो गई हो; जहाँ खुलेआम घरों में घुसकर कब्ज़ा ज़माने की प्रवृत्ति काम कर रही हो; जहाँ भेदभाव अपने चरम पर हो; जहाँ व्यक्ति-व्यक्ति में धार्मिक, क्षेत्रीय, जातीय भावनाएँ फूट डाल रही हों वहाँ पर सभ्य समाज की परिकल्पना बेमानी सी लगती है. इसे महज दो पक्षों के बीच की स्थिति कहकर विस्मृत नहीं किया जा सकता. दरअसल हिंसाअत्याचारक्रूरता इंसानी स्वभाव का मूल है. इसे किसी समाजविज्ञानीमनोविज्ञानी की दृष्टि से समझने की आवश्यकता तो है ही साथ ही सामान्य इंसान के रूप में भी इसे देखा-समझा जाना चाहिए. यदि इतने विस्तृत फलक को न देखते हुए हम पारिवारिक माहौल में देखें तो छोटे-छोटे बच्चों को अकारण ही जमीन पर रेंगने वाले कीड़े-मकोड़ों को मारते देखा जा सकता है. मोहल्ले की गलियों में जरा-जरा से बच्चों को गलियों में टहलते जानवरों के पीछे डंडा लेकर उन्हें भगानामारना सहज रूप में दिखाई देता है. इंसानी जीवनक्रम में मारपीटलड़ाईगाली-गलौज सहज रूप में उम्र बढ़ने के साथ-साथ दिखाई देने लगती है. इस व्यवहार में कमी न होकर वृद्धि ही होती रहती है.

 

देखा जाये तो वर्तमान समाज इतने खाँचों में विभक्त हो चुका है कि उसे मानवीय समाज कहने के बजाय कबीलाई समाज कहना ज्यादा उचित होगा. प्रत्येक वर्ग के अपने सिद्धांत हैंअपने आदर्श हैंअपने विचार हैंअपनी विचारधारा है. सबकी विचारधारासबके आदर्श दूसरे की विचारधाराआदर्श से श्रेष्ठ हैं. ऐसे में श्रेष्ठताहीनता का बोध भी इंसानी स्वभाव पर हावी हो रहा है. आक्रोश की छिपी भावना के साथ-साथ स्वयं को श्रेष्ठ समझने और दूसरे को सिर्फ और सिर्फ हीन समझने की खुली भावना समाज में विकसित हो चुकी हो तब हिंसात्मक गतिविधियों को देखने-सहने के अलावा और कोई विकल्प हाल-फ़िलहाल दिखाई नहीं देता है. महज ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ बना लेने से, मँहगी-मँहगी कारों में सफ़र कर लेने से, उन्नत किस्म की तकनीकी के सहारे जीवन व्यतीत कर लेने मात्र से ही समाज की सभ्यता का पता नहीं लगता है. संवेदनाओं, सहयोग, समन्वय, परोपकार आदि भावनाएँ मृत सी दिख रही हैं. अपनी आने वाली पीढ़ी को हम बताना भूल गए कि जीवन-मूल्य क्या हैं. उसे हम बताना भूल गए कि इंसानी बस्ती में स्नेह, प्रेमभाव आदि ही वे भावनाएँ हैं जिनके द्वारा समाज सभ्य कहलाता है. जरा-जरा सी बात पर उग्र हो जाना, इंच-इंच भूमि के लिए हत्याएँ कर देना आदि हमें कबीलाई संस्कृति की तरफ ले जा रहे हैं. 

 

समाज अनादिकाल से शांति, अहिंसा, सौहार्द्र, स्नेह आदि-आदि सिखाने वाला रहा है और उसी के सापेक्ष समाज में अशांति, हिंसा, वैमनष्यता, बैर आदि का भी समावेश बना रहा है. यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि इंसान को कदम-कदम पर सीख दी गई कि उसे आपस में सद्भाव से रहना चाहिए. उसे सबके साथ प्रेम से रहना है. उसे कभी नहीं सिखाया गया कि कैसे हिंसा करनी है. उसे नहीं बताया गया कि सामने वाले की हत्या कैसे करनी है. इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि जो पाठ उसे सदियों से पढ़ाया जाता रहा, परिवार द्वारा पढ़ाया जाता रहा, समाज द्वारा पढ़ाया जाता रहा इंसान उसी पाठ को कायदे से नहीं सीख पाया. इसके सापेक्ष जिस पाठ को किसी ने नहीं सिखाया वह कार्य न केवल भली-भांति सीख रखा है वरन वह उन्हें तीव्रता के साथ करने भी लगा है. समझने वाली बात है जब आक्रोश की छिपी भावना के साथ-साथ स्वयं को श्रेष्ठ समझने और दूसरे को सिर्फ और सिर्फ हीन समझने की खुली भावना समाज में विकसित हो रही हो तब हिंसात्मक गतिविधियों को देखने-सहने के अलावा और कोई विकल्प हाल-फ़िलहाल दिखाई नहीं देता है. सरकार, प्रशासन, समाज, व्यक्ति सबके सब असहाय बने खुद पर हमला होते देख रहे हैं. विडम्बना ये है कि यही सब अपने हमलावर भी बने हुए हैं. 






 

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