अधिकतर देखने में
आता है कि किसी भी शैक्षणिक संस्थान में, बोर्ड में हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में जैसे ही किसी तरह
का बदलाव होता है, वैसे ही न केवल लेखक-संसार में बल्कि
आलोचक वर्ग में भी उथल-पुथल मच जाती है. अभी तक बदलाव का मुख्य विरोध किसी
साहित्यकार के नाम को हटाने, जोड़ने से संदर्भित हुआ करता था.
यह मनुष्य का स्वाभाविक गुण है कि समाज में किसी भी तरह के बदलाव का उसने सदैव
विरोध किया है. साहित्य जगत में बदलाव का विरोध कुछ दिनों से बना हुआ है. खबर आई कि
गोरखपुर विश्वविद्यालय में अब परास्नातक के विद्यार्थी हिन्दी साहित्य में वे
चुनिन्दा उपन्यास पढ़ सकेंगे, जिनको लुगदी साहित्य कहकर
साहित्य की मुख्यधारा से बाहर रखा गया है. इस खबर के आते ही हिन्दी साहित्य जगत
में जैसे कोहराम मच गया. लगातार एक बहस सी मची हुई है. मीडिया, सोशल मीडिया पर अपने-अपने तरह के बयान लगातार आ-जा रहे हैं. यहाँ लोगों
का विरोध एक तो इस बात के लिए है कि सस्ते साहित्यकार कहे जाने वाले या फिर लुगदी
साहित्य कहे जाने वाले उपन्यास, उपन्यासकारों के लिए स्थापित, नामचीन साहित्यकारों को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है. विरोध इसका भी
है कि लुगदी साहित्य के नाम से समाज में चल रहे उपन्यासों के द्वारा किस तरह का
जीवन-दर्शन, जीवन-मूल्य विद्यार्थियों के बीच पहुँचाने का
प्रयास विश्वविद्यालय द्वारा किया जा रहा है.
यहाँ बहुतों को
अभी इसका भान ही नहीं है कि विश्वविद्यालय ने इन उपन्यासकारों को लोकप्रिय साहित्य
की श्रेणी में पाठ्यक्रम में जोड़ा है, किसी भी साहित्यकार को हटाया नहीं है. स्थापित साहित्यकारों ने, साहित्य-जगत ने भले ही इन उपन्यासकारों को, उनके
लेखन को मान्यता न दी हो मगर इसमें कोई दोराय नहीं कि इन उपन्यासकारों के
उपन्यासों ने लोकप्रियता के आयामों को छुआ है. साठ और सत्तर के दशक में गुलशन
नन्दा इस दुनिया के बेताज़ बादशाह रहे. ऐसा कहा जाता है कि वेद प्रकाश शर्मा के
बहुचर्चित उपन्यास ‘वर्दी वाला गुण्डा’ की पहले ही दिन पंद्रह लाख प्रतियाँ बिक
गयी थीं. सुरेन्द्र मोहन पाठक के एक-एक उपन्यास के एक-एक संस्करण में तीस हजार से
अधिक प्रतियों का प्रकाशन हुआ करता है. इस तरह की लोकप्रियता अपने देश में किसी भी
हिन्दी उपन्यास अथवा हिन्दी उपन्यासकार के सन्दर्भ में देखने को नहीं मिलती है.
जहाँ तक बात लुगदी
उपन्यासों के द्वारा विद्यार्थियों में जीवन-मूल्यों, संस्कारों की है तो ऐसा नहीं है कि
इस श्रेणी के सभी उपन्यासों में सेक्स का तड़का रहता हो. किसी समय में अपने दो
मित्रों-राही मासूम रज़ा और इब्ने सईद की बात को चुनौती की तरह लेते हुए इब्ने सफ़ी
ने साफ़-सुथरे जासूसी उपन्यासों की लम्बी कतार लगा दी थी, जिनमें अश्लीलता बिलकुल
नहीं हुआ करती थी. जासूसी उपन्यास लेखन के मामले में जैसी लोकप्रियता इब्ने सफ़ी को
प्राप्त हुई वैसी किसी को नसीब न हुई. एकबारगी इन उपन्यासों की, उपन्यासकारों की लोकप्रियता को साहित्य का मानक न माना जाये मगर इस बहस
के बहाने एक विमर्श और भी शुरू किया जाना चाहिए कि क्या वाकई साहित्य के द्वारा
मूल्यों की स्थापना संभव है? जिन साहित्यकारों को, उनके साहित्य को समाज ने मान्यता दे रखी है, क्या
उनकी सभी कृतियों में, उपन्यासों में उत्कृष्टता का भाव
समाहित है? साहित्य जगत में आधुनिक काल से लेकर वर्तमान तक
स्थापित माने गए तमाम साहित्यकारों की कृतियों से क्या समाज ने मूल्य स्थापना के
लिए, संस्कार ग्रहण करने के लिए, जीवन
को सहज बनाने के लिए वाकई सकारात्मक, सार्थक कदम उठाये हैं?
यहाँ विचार किया
जाना आवश्यक हो जाता है कि किसी पाठ्यक्रम में साहित्य जगत के समस्त साहित्यकारों
को शामिल नहीं किया जा सकता है. ऐसे में जिनको शामिल नहीं किया जा सका है, क्या वे साहित्यकार उच्च कोटि के
नहीं? क्या उनकी रचनाएँ स्तरीय नहीं?
इसके अलावा जिन साहित्यकारों को शामिल किया जाता है क्या उनकी सभी कृतियों को, रचनाओं को पाठ्यक्रम में स्थान मिलता है? इसका क्या
अर्थ निकाला जाये कि जिन रचनाओं को, कृतियों को पाठ्यक्रम
में स्थान नहीं मिला है, वे स्तरीय नहीं हैं? या उनके द्वारा किसी तरह के मूल्यों, संस्कारों की
स्थापना करने में मदद नहीं मिलेगी? इसी तरह यदि शिक्षा जगत
में साहित्य की उपस्थिति का ही आकलन किया जाये, उसके द्वारा
मूल्य स्थापना की बात को स्वीकारा जाये तो क्या साहित्य के विद्यार्थियों के
अतिरिक्त अन्य संकाय के विद्यार्थी मूल्य स्थापना के योग्य नहीं समझे जाते? क्यों नहीं इंजीनियरिंग, चिकित्सा, वाणिज्य, प्रबंधन आदि पाठ्यक्रमों में साहित्य को
पढ़ाया जाता?
इसी बिन्दु के
सापेक्ष इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि आज जिस तरह से हर हाथ में इंटरनेट
सुविधा से संपन्न स्मार्ट फोन है, आज जिस तरह से इंटरनेट के विभिन्न प्लेटफ़ॉर्म पर अश्लील दृश्य, अश्लील भाषा शैली, गालियाँ नितांत अगोपन रूप में
प्रस्तुत की जा रही हैं तब मात्र साहित्य के द्वारा नैतिकता,
संस्कार, सभ्यता, आदर्श की बातें करना कहाँ
तक उचित है. यह हमेशा से कहा जाता रहा है कि साहित्य समाज का दर्पण है. क्या आज का
समाज प्रेमचन्द की नैतिकता को, आदर्शों को स्वाभाविक रूप में
अपने जीवन में उतारता है? लुगदी साहित्य कहकर जिन उपन्यासों
को अभी तक समाज की मुख्यधारा से बाहर रखा गया क्या उनके सापेक्ष इस पर विचार किया
गया कि जो उपन्यास उत्कृष्ट साहित्य के रूप में स्वीकारे गए हैं, वे संस्कार, सभ्यता, शालीनता
का पाठ पढ़ा रहे हैं? यदि साहित्य ही संस्कारों को, आदर्शों को, शालीनता को समाज में स्थापित करने की
क्षमता रखता तो आज आज़ादी के अमृत्काल में समाज में अनेकानेक बुराइयाँ परिलक्षित न
हो रही होतीं.
निःसंदेह जो
साहित्य उत्कृष्ट है,
अनुकरणीय है, विचारपरक है उसका अनुगमन किया जाना चाहिए. इसके
बाद भी समाज की दिशा और उसकी मानसिकता को पहचानते हुए भी आधुनिकता को स्वीकारना ही
होगा. आज की पीढ़ी को अपने अतीत के साथ-साथ वर्तमान से भी परिचित होने का अधिकार
है. इसी बहाने आज की पीढ़ी में आलोचनात्मक दृष्टि का उद्भव होगा. उनके भीतर
कल्पनाशीलता, फैंटेसी, वास्तविकता, संस्कार, शालीनता, अश्लीलता, लेखन, विषय, शोध आदि की व्यापक
समझ पैदा हो सकेगी. ध्यान रखना होगा कि आज के दौर में किसी भी विषय को, वो चाहे नितांत गलत हो, पूर्णतः सही हो एकदम से नकारा
नहीं जा सकता है. यदि किसी भी कृति में पठनीयता है,
कल्पनाशीलता है, दृश्यता है, स्वीकारता
है तो उसका आकलन करने के लिए एक बार उसे भी मुख्यधारा में आने का अवसर देना होगा. एक
बार दिया जाने वाला अवसर पत्थर की लकीर नहीं है, जिसे मिटाया
नहीं जा सकता किन्तु पूर्वाग्रहयुक्त कोई भी निर्णय भ्रम और संशय के ही द्वार
खोलता है.
लोकप्रियता के संदर्भ में आपकी बात ठीक है,लेकिन सिर्फ बिकाऊ है कोई चीज़,उसका बड़ा बाजार है इसका अर्थ ये नही कि वह पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया जाना चाहिये।इंटरनेट के जमाने मे कुछ भी किसी की भी पहुच से बाहर नही है,तो क्या इस तर्क के आधार पर हम पोर्न साइट्स को कक्षाओं में चला सकते है?कोई तो स्तर निर्धारित करना पड़ेगा।हाँ ये ठीक है कि जो लोग पाठ्यक्रम में पढ़ाये जा रहे है वो ही साहित्य का आदि और अंत नही है,बहुत लोग है जिनकी रचनाओं को पहचान देने की आवशयक्ता है,लेकिन सिर्फ बाजार इसका आधार नही हो सकता।
जवाब देंहटाएंबाजार को आधार नहीं बनाया गया है। नई शिक्षा नीति में लोकप्रिय साहित्य के रूप में एक भाग जोड़ा गया है, जिसमें चार पाँच उपन्यासकार हैं और उनके एक-एक उपन्यास।
हटाएंरही बात पोर्न साइट्स की तो कल को यदि सेक्स एजूकेशन की खुली अवधारणा लागू की गई तो सम्भव है कि पोर्न साइट्स भी पाठ्यक्रम में आयें।
वैसे जिन नामचीन साहित्यकारों को पढ़ाया जा रहा है, उनकी कुछ कृतियाँ पोर्नोग्राफी से कम नहीं हैं। बहरहाल, समय के बदलाव में बहुत कुछ बदलेगा और उसे स्वीकार करना भी पड़ेगा।