Pages

19 फ़रवरी 2022

बच्चों का हिंसात्मक होते जाना चिंताजनक

इस बात पर बहुत से लोगों को आपत्ति हो सकती है कि इन्सान की मूल प्रवृत्ति हिंसक है लेकिन यदि अपने आसपास की तमाम घटनाओं पर नजर दौड़ाई जाये तो ऐसा सच समझ आता है. आदिमानव से लेकर वर्तमान महामानव बनने तक के सफ़र में इन्सान ने बहुत कुछ छोड़ाबहुत कुछ अपनाया मगर वो अपनी हिंसक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ सका. विकास की अवस्थाओं की नित नई परिकल्पनाओं के बाद भी उसे जब भी अवसर मिला उसने हिंसात्मक आचरण अपनाया है. इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि किसी भी इन्सान को जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी भी तरह के पाठ्यक्रम में हिंसा करना नहीं सिखाया जाता है जबकि प्रत्येक कालखंड मेंउम्र के अलग-अलग पड़ाव पर उसे प्यारस्नेहअपनत्वअहिंसाशांति आदि के पाठ बराबर पढ़ायेरटाये जाते हैं. आवश्यक नहीं कि कोई इन्सान किसी की हत्या करके ही अपनी हिंसात्मक मनोवृत्ति को दर्शाएआवश्यक नहीं कि कोई इन्सान किसी के साथ मारपीट करके ही अपनी हिंसात्मक प्रवृत्ति को सामने लाये. उसके हावभावउसके बोलचालउसकी क्रियाविधि आदि से भी उसके हिंसक होने के प्रमाण मिलते हैं. सड़क चलते किसी वस्तु में पैर की जबरदस्त ठोकर मार देनाबगीचेपार्क आदि में टहलते समय अनावश्यक रूप से किसी छड़ीडंडी आदि के द्वारा पेड़ों-पौधों की पत्तियों-फूलों को गिरा देना आदि भी इसी तरह की मनोवृत्ति का परिचायक है.

 

बहुतायत में इन्सान की हिंसक गतिविधि कुछ समय पूर्व तक एक उम्र विशेष के बाद देखने को मिलती थी. किशोर अवस्था के बाद से लेकर एक लम्बे समय तक किसी भी इन्सान की गतिविधियाँ हिंसात्मक रूप से घटती-बढ़ती देखी जा सकती हैं. इधर वर्तमान परिदृश्य में ऐसा बहुतायत में देखने को मिलने लगा है कि बच्चे भी हिंसात्मक प्रवृत्ति को अपनाते देखे जाने लगे हैं. ऐसा नहीं है कि बच्चों में पहले हिंसात्मक प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती थी या फिर वे हिंसात्मक तरीकों को नहीं अपनाते थे मगर अब जिस तरह की हिंसा बच्चों द्वारा दिखाई जा रही हैवह चिंताजनक है. पहले खेलकूद के दौरानस्कूल में आपसी प्रतिद्वंद्विता के दौरानकिसी भी बात पर खुद को आगे रखने की चेष्टा में एक-दूसरे से झगड़ जानाएक-दूसरे से लड़ जाना बचपने की आम प्रवृत्ति होती थी. ऐसा न केवल दोस्तों में वरन सगे भाई-बहिनों के बीच भी देखने को मिलता था. ऐसा कभी सुनाई भी नहीं देता था कि कोई बच्चा किस दूसरे बच्चे की हत्या महज इसलिए कर देता है कि उसकी मृत्यु से स्कूल में छुट्टी हो जाएगी. गुड़गाँव के रेयान इंटरनेश्नल स्कूल की यह घटना अभी मन-मष्तिष्क से धूमिल भी न हो सकी थी कि कुछ इसी तरह की वारदात लखनऊ में अंजाम दी गई थी. यहाँ के एक स्कूल में कक्षा सात में पढ़ने वाली एक छात्रा ने कक्षा एक में पढ़ने वाले एक बच्चे पर इसलिए प्राणघातक हमला किया कि उसकी मृत्यु से स्कूल में छुट्टी हो जाएगी.

 



ये सिर्फ चिंताजनक स्थिति नहीं है वरन बालमन-मष्तिष्क के शोध करने की स्थिति है कि आखिर उनके दिमाग में इस तरह की हत्यारी हिंसात्मक प्रवृत्ति का जन्म कैसेकबक्यों होने लगा हैइस तरह न केवल मनोविज्ञानियों को वरन समाजशास्त्रियों को भी सजग होने की आवश्यकता है. यदि इस तरह की मनोवृत्ति बच्चों में पनपने लगी तो समाज में अपराधियों का जन्म बचपन से ही होने लगेगाजिसे एकबारगी भले ही शिक्षा या फिर किसी तरह के अनुशासन के द्वारा बढ़ने न दिया जाये पर वो कभी न कभी अपना स्वरूप दिखा ही देगा. वर्तमान में ऐसी घटनाओं के लिए तुरत-फुरत में प्रथम दृष्टया आरोप सोशल मीडिया पर लगा दिया जाता हैइंटरनेट पर लगा दिया जाता हैमाता-पिता की व्यस्तता पर लगा दिया जाता हैआधुनिकीकरण पर लगा दिया जाता है. देखा जाये तो ये सब अवस्थाएं मात्र हैं न कि मूल जड़. वर्तमान में जिस तरह से तकनीक का विकास होने के साथ-साथ आमजनमानस की आवश्यकता बन गया हैउस दौर में टीवीमोबाइलकंप्यूटरइंटरनेट आदि को समाप्त कर पानानकार देना संभव ही नहीं है. तो क्या माना जाये कि इनके माध्यम से हिंसात्मक प्रवृत्ति बच्चों में पनपने दी जाये?

 

इन सबसे अलग एकबारगी बच्चों की परवरिशउनके आसपास का माहौलपरिवार में उनकी सहभागिताउनके साथ सामान्यरूप में होने वाले व्यवहारउनके साथ होने वाली बातचीतबच्चों की दैनिक गतिविधियोंउनकी क्रियाशीलता आदि को भी गौर किया जाना आवश्यक है. वर्तमान जीवनशैली को देखा जाये तो वह कंक्रीट के जंगल में सिमट कर रह गई है. इस जीवनशैली में न तो खेलकूद के मैदान बचे हैंन ही रिश्तों की बुनियाद. ऐसे में बचपन फुट और मीटर की नाप में सिमट कर रह गया है. खेलने के लिए उसके सामने गैजेट्स हैंरिश्तों के नाम पर उसके सामने या तो कार्टून्स हैं या फिर कोई पालतू जानवर. आपसी सामंजस्य बनाने से ज्यादा उसे सिखाया जाता है कि उसे उसके साथी से अधिक अंक कैसे लाना है. सहयोग करने की बजाय उसे समझाया जाता है कि उसका समय सबसे ज्यादा कीमती हैजिसे बर्बाद न किया जाये. रिश्तों के प्रति संवेदित होने के बजाय उसे समझाया जाता है कि सारे सम्बन्ध-नाते मतलब के हैं. इस अकेलेपन और गैजेट्स के सहारे अपने बचपन को घुटते देखते बच्चों के भीतर इंसानी मूल प्रवृत्ति पनपने लगती है. यह प्रतिकूल स्थिति और उसकी आक्रामकता लोगों का ध्यान अपने प्रति खींचने के लिए बच्चों से आपराधिक कृत्य करवा बैठती है.

 

आवश्यकता आज इसकी है कि बच्चों को कमरे से बाहर खेलने-कूदने के लिए भेजा जाये. खेलने-कूदने से उन बच्चों के भीतर पनप रहे आक्रोशहिंसाअराजकता को बाहर निकल जाने का अवसर मिलेगा. उनके शैक्षणिक बोझ को कम करके उनके मानसिक विकास की तरफ गौर किया जाये. इससे न केवल वे अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकेंगे वरन अपने आसपास के वातावरण कोमानसिकता को समझने में परिपक्व हो सकेंगे. माता-पिता का अंधाधुंध धन कमाने की दौड़ से बाहर निकल कर अपने नौनिहालों की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए. अभिभावकों को समझना होगा कि उनके बच्चे ही उनकी अनमोल निधि हैंजिसका विकास पारिवारिक संरचना में सम्मिलित रहकर ही किया जा सकता है. इसके अलावा सहजसरल जीवनशैली को अपनाकर भी बच्चों को हिंसा सेहिंसात्मक वृत्ति से बचाया जा सकता है. 

 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें