Pages

14 जून 2020

ज़िन्दगी जीना पड़ती है अन्यथा वह तो सिर्फ गुजरती है

युवा फ़िल्मी कलाकार सुशांत की आत्महत्या ने सोशल मीडिया पर विमर्श का दौर आरम्भ करवा दिया. यह विमर्श उस दौर में आरम्भ हुआ है जबकि हमारा देश प्रतिदिन सैकड़ों मौतों को कोरोना वायरस से होते देख रहा है. यह विमर्श उस देश में शुरू हुआ है जहाँ इस लॉकडाउन के पहले तक हजारों-लाखों की संख्या में एक दिन में दुर्घटना से मौतें हुआ करती थीं. हजारों की संख्या में आत्महत्या के मामले उस दौरान भी आया करते थे. सुशांत की आत्महत्या इसलिए भी विमर्श का आधार बनती है क्योंकि वह रुपहले परदे के कारण समाज में जाना-पहचाना चेहरा था. उस दुनिया से वह व्यक्ति आता था जहाँ पैसा है, प्रसिद्धि है, नाम है, ग्लैमर है और यह सब उस व्यक्ति के पास इस समय मौजूद भी था. ऐसे में उसकी आत्महत्या की खबर ने स्वयं विमर्श का रूप धारण कर लिया.


क्या, क्यों, कैसे में जाने के पहले हम सबको विचार करना पड़ेगा कि हम लोग आत्महत्या जैसे विषय पर विमर्श कर रहे हैं अथवा सिर्फ एक फ़िल्मी कलाकार की मौत पर विमर्श कर रहे हैं? हमें समझना होगा कि हमारे विमर्श के केन्द्र में कौन है? क्या हमारे विमर्श में वे बच्चे हैं जो किसी परीक्षा में कम अंक आने के कारण अथवा कम अंक आने के भय से आत्महत्या कर लेते हैं? क्या इस विमर्श में वे महिलाएँ हैं जो किसी न किसी तरह की हिंसा का शिकार होने के बाद आत्महत्या कर लेती हैं? क्या इस विमर्श में वे परिवार शामिल हैं जो गरीबी, भुखमरी अथवा किसी अन्य कारण से सामूहिक रूप से आत्महत्या कर लेते हैं?


यहाँ इन तमाम सवालों को उठाने का अर्थ किसी भी मौत पर सवाल उठाना नहीं है. हमारी संस्कृति में तो शत्रु तक की मौत पर श्रद्धांजलि दी जाती है, दुःख व्यक्त किया जाता है. यहाँ सवाल हम सबकी मानसिकता का है. हम सब भीड़ में होने के बाद भी अपने साथ वाले को अकेले छोड़ते जा रहे हैं. असलियत यह है कि हम खुद को अकेला बना रहे हैं. हम सभी स्वार्थ की उस मानसिकता में लिपटे हुए हैं जहाँ हमें अपने आसपास अपने अलावा कुछ भी नहीं दिखाई देता है. इसी के चलते व्यक्ति अपने समाज में नहीं बल्कि अपने परिवार में नितांत अकेला होता जा रहा है. इस अकेलेपन से सामान्यतौर पर सामान्य व्यक्ति निकल आता है, ऐसी स्थिति से निपट लेता है मगर समस्या उनको होती है जो तमाम चकाचौंध होने के बाद भी, तमाम शोहरत होने के बाद भी अकेले हैं.

दरअसल यह भी मानवीय स्वभाव में सुपीरियरिटी के साथ मिली-जुली इंफीरियरिटी की भावना होती है. इस भावना के वशीभूत कोई भी व्यक्ति अपने अकेलेपन को बाँटने के लिए सबके बीच में शामिल नहीं हो पाता है. यहाँ सबके साथ घुलने-मिलने में, सामान्य व्यक्ति की तरह धमाचौकड़ी करने में, मौज-मस्ती करने में उसकी सुपीरियरिटी बाधक बनती है. इसी से उपजा अकेलापन उसे अवसाद में ले जाता है, इंफीरियरिटी की तरफ ले जाता है. यह स्थिति व्यक्ति-व्यक्ति के अनुसार अलग भी हो सकती है.

इस युवा की मृत्यु से यदि विमर्श वाकई आत्महत्या जैसे बिंदु के लिए हुआ है तो उस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है. महज विमर्श करके, अपनी-अपनी पोस्ट पर लाइक, शेयर, कमेंट की संख्या की गिनती लगा लेने भर से कोई निष्कर्ष नहीं निकलना है. सबसे पहले तो हमें न केवल अपना अकेलापन दूर करना है बल्कि अपने साथ वालों को भी अकेलेपन से मुक्त करवाना है. हम सबको बिना वजह के अहंकार से मुक्त होने की आवश्यकता है. वर्तमान दौर में हमने एक-दूसरे से बातचीत करना लगभग बंद ही कर दिया है. एक अजब सा अहं हम सबके बीच स्थापित हो चुका है. खुद को दूसरे से श्रेष्ठ समझने की मानसिकता ने हमें भले ही अपने आपमें बहुत ऊपर बैठा रखा हो मगर वास्तविक रूप में ऐसे लोग खोखले हो चुके हैं. यही खोखलापन उनको एक दिन अवसाद की तरफ धकेल देता है.

लोगों से मिलने के लिए घर जाने की स्थिति अब दिखाई नहीं देती है. अपने मित्रों, पड़ोसियों के दुःख-सुख में शामिल होने जैसी मानसिकता अब गायब हो चुकी है. रिश्तों का सम्मान लगातार कम होता जा रहा है. हम तकनीकी रूप से आधुनिक होते जा रहे हैं मगर व्यावहारिक रूप से लगातार पिछड़ते चले जा रहे हैं. हम सबके बीच एक अनजानी सी, अनदेखी सी प्रतिद्वंद्विता चलने लगी है. जहाँ हम जीतना नहीं चाहते बल्कि सामने वाले को हराना चाहते हैं. इस तरह की अबूझ सी स्थिति अन्दर ही अन्दर वैमनष्यता का विकास करती है. इसमें व्यक्ति की जरा सी भी असफलता उसके अन्दर एक तरह का आक्रोश, एक तरह की हार को जन्म देती है. इसी से वह कुंठा, हताशा, निराशा के रास्ते चलता हुआ अवसाद में चला जाता है.

लोगों से अधिक से अधिक मिलिए. खुद को सामान्य ही समझिये. आप किसी भी पद, प्रस्थिति में हैं मगर उसके पहले आप इन्सान हैं. सार्वजनिक रूप से न सही कहीं तो आप खुलकर उसी तरह हँस सकते हैं जैसा कि कभी कॉलेज टाइम में हँसते थे. अपने दोस्तों के साथ कहीं अकेले में तो वही ठहाका लगा सकते हैं जैसा कि आप रोजगार की तलाश में भटकते हुए मित्रों के साथ सड़कों पर लगाते थे. पद, प्रस्थिति आपके कार्यालय के लिए है न कि आपके परिवार के लिए. अपने लोगों को समय देना शुरू करिए, सीखिए. अपने शौक को विकसित करिए. कोई शौक न हो तो किसी शौक को जन्म दीजिए और जुट जाइए. अनावश्यक तनाव से बचने की कोशिश करिए. करके देखिये, दो-चार दिन और महसूस कीजिये फर्क खुद में.

अंत में फिर वही बात कि इस नामचीन आत्महत्या के लिए नहीं वरन देश में होने वाली तमाम आत्महत्याओं के लिए विमर्श करिए. आने वाले दिनों में उनको रोकने के लिए विमर्श करिए. उनमें भी भविष्य की तमाम अपेक्षाएँ छिपी हुईं हैं.

.
#हिन्दी_ब्लॉगिंग

6 टिप्‍पणियां:

  1. सटीक विश्लेषण।
    आपसी विश्वास खत्म होने से अकेलापन ।और यही अकेलापन हमें आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर मजबूर कर रहा हैं।फर्क मैसेज लिखने से नही उस मैसेज की भावनाओं को बातचीत में बोलकर व्यक्त करने से हैं।

    जवाब देंहटाएं
  2. मुद्दा सिर्फ़ सुशांत की आत्महत्या का नहीं है। हर दिन दूसरे दूसरे कारणों से आत्महत्या हो रही है। आमतौर पर पद प्रतिष्ठा पैसा वैभव हो तो माना जाता है कि उसे क्या कमी। लेकिन जहाँ तक मेरी समझ है ऐसे लोग अवसाद में ज़्यादा होते हैं। मजदूर किसान की आत्महत्या उनके पेट और ऋण से संबंधित है। परिस्थिति बिल्कुल भिन्न। वजह भी सभी अच्छी तरह समझते। लेकिन जो अवसाद में जा चुका है वह ख़ुद को इतना बंद कर लेता है कि दूसरा कोई उसकी मनःस्थिति का अंदाज़ा नहीं लगा पाता है। इस विषय पर स्कूल की छोटी कक्षाओं में कार्यशाला होनी चाहिए।

    जवाब देंहटाएं
  3. जो लोग ऐसा करते हैं वो अपने लोगों के लिए नहीं सोचते ,खास तौर पर अपने माता पिता के लिए ,जिन्होंने पालपोस कर बड़ा किया ,उनकी ढेरों उम्मीदें उनसे जुड़ी होती है ,ये बुझदिली का काम है ,सुशांत सिंह के बारे मे सुनकर दुख हुआ ।

    जवाब देंहटाएं