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20 जून 2020

सोशल मीडिया को आवश्यकता है सम्पादकीय व्यवस्था की

कई बार लगता है कि सोशल मीडिया की ऐसी स्वतंत्रता अब बंद की जानी चाहिए. एडिट फ्री व्यवस्था ने जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है वहीं विचारों की गंदगी भी फैला रखी है. किसी समय अपने आलेख, साहित्यिक रचनाओं के सम्पादक के धन्यवाद पत्र के साथ वापस आने पर बुरी तरह गुस्सा आता था. कई बार मन में आता था कि किसी न किसी जुगाड़ के बिना पत्र-पत्रिकाओं में छपना संभव नहीं. इसी में कई बार अपने बीच के कई साथियों को प्रकाशित होना देखते, बहुत सी ऐसी प्रकाशित रचनाओं को देखते और अपनी रचनाओं की उनसे तुलना करते तो विश्वास होता कि जुगाड़ से ज्यादा रचना काम करती है. बाद में बिना किसी जुगाड़ के अपनी रचना प्रकाशित करने पर इस धारणा का भी खंडन हुआ. 


उस दौर के बाद जब ब्लॉग लेखन का, सोशल मीडिया का दौर देखा तो लगा कि अब कम से कम सम्पादकों का अनावश्यक हस्तक्षेप समाप्त होगा. उनका एक तरह का एकाधिकार समाप्त होगा. आरंभिक दौर में ऐसा देख कर अच्छा भी लगा. सोशल मीडिया पर, ब्लॉग पर बहुत ही सारगर्भित सामग्री पढ़ने को मिलती. वैचारिक भिन्नता के बीच वैचारिक मतभेद देखने को मिलता मगर सामग्री के सन्दर्भ में गिरावट देखने को नहीं मिलती. ब्लॉग को इस सन्दर्भ में बहुत ही समृद्ध कहा जा सकता था. कालांतर में जैसे-जैसे सोशल मीडिया का विकास होता रहा, हर एक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती रही सामग्री की गंभीरता का लोप होता रहा. आज स्थिति ये है कि सिवाय आपसी कटुता के बहुत कुछ देखने को नहीं मिल रहा है.


सोशल मीडिया के दौर ने, माइक्रो ब्लॉगिंग के रूप ने ब्लॉग संसार को भी दिग्भ्रमित किया है. अब यहाँ भी चोर दिखाई देने लगे हैं. यहाँ भी विरोध के नाम पर मानसिकता हावी है. यहाँ भी अधजल गगरी छलकत जाए वाली बात सिद्ध हो रही है. सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों की स्वतंत्रता ने लोगों को पढ़ने से दूर कर दिया है. अब उनका एकमात्र काम बस लिखना, अपनी विचारधारा से इतर व्यक्तियों को अपमानित करना, अपनी ही प्रशंसा की फोटो-सामग्री को पोस्ट करना रह गया है. यहाँ अब बड़े-छोटे का लिहाज समाप्त हो गया है. यहाँ अब रिश्तों की, अनुभव की, उम्र की मर्यादा का लोप हो चुका है. यहाँ बाप-दादा की उम्र का हो वो भी फ्रेंड है, बेटे-बेटी की उम्र का हो वो भी फ्रेंड है. इसमें भी किसी तरह का सम्पादकीय प्रतिबन्ध नहीं है, किसी भी तरह के एडिटोरियल बोर्ड से गुजरना नहीं है सो चाहे जो मन आये लिख दिया जाता है, चाहे जो मन में आता है छाप लिया जाता है.

इसी का दुष्परिणाम है कि अब गंभीर सामग्री का विलोपन हो चुका है, उसकी जगह पर गालियाँ देखने को मिलती हैं. वैचारिक रूप से कुंद व्यक्ति एक-दूसरे को ही गाली नहीं दे रहे हैं बल्कि देश के प्रधानमंत्री को, मुख्यमंत्रियों को भी गाली देने में लगे हैं. किसी व्यक्ति की पोस्ट के खिलाफ आप कुछ बोलते हैं तो आपके ऊपर व्यक्तिगत, पारिवारिक आक्षेप लगाये जाते हैं. यदि सच्चे सबूत नहीं मिलते हैं तो फोटोशॉप का सहारा लिया जाता है. कुल मिलाकर सोशल मीडिया की स्वतंत्रता दूसरों को अपमानित करने के लिए रह गई है. किसी समय एडिटोरियल बोर्ड जैसी व्यवस्था को, सम्पादकीय जैसी व्यवस्था को कोसने की गलती हमने भी की थी मगर अब लगता है कि ये अत्यंत अनिवार्य व्यवस्था है. इस व्यवस्था के कारण अश्लीलता रुकी हुई थी, भ्रामक सामग्री रुकी हुई थी, आपसी कटुता रुकी हुई थी. अब लगता है कि सोशल मीडिया पर, ब्लॉगिंग पर भी सम्पादकीय व्यवस्था लागू की जानी चाहिए.

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

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