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14 मई 2020

लौटे हो किस कारण कहो, भूख से या मौत से डर कर

यह पोस्ट बहुत से लोगों को दुःख दे सकती है, दे क्या सकती है, देगी ही. ये मानवीय स्वभाव है जो किसी के दुःख में दुखी होने लगता है. खासतौर से उस समय और तेजी से ऐसा होता है जबकि किसी और के दुःख से व्यक्ति को किसी दूसरे की बुराई करने का अवसर मिले. कोरोना संक्रमण से बचने-बचाने के लिए लॉकडाउन किया गया. इसके कुछ दिन बाद देश भर से मजदूरों का अपने गृह स्थान के लिए पलायन शुरू हो गया. रोज ही सैकड़ों तस्वीरें सोशल मीडिया पर, मीडिया पर दिखाई जाने लगीं जिनमें हजारों-हजार मजदूर पैदल अपने घरों की तरफ लौट रहे हैं.


लॉकडाउन के कारण सभी तरह के काम, सभी तरह के उद्योग एकदम बंद हैं. ऐसे में दिहाड़ी मजदूरों, कामगारों के सामने समस्या आना स्वाभाविक है. घरों तक में काम बंद करवा दिए गए हैं. इसके चलते भी आमदनी रुकी है. इसी सबने आर्थिक संकट के साथ-साथ भोजन का संकट भी पैदा कर दिया हो. ऐसी स्थिति के होने में किसी तरह का अविश्वास नहीं होना चाहिए मगर जिस तरह से लगभग सभी राज्यों से सभी राज्यों के लिए मजदूरों का, कामगारों का आना हो रहा है वह अवश्य ही सोचने को मजबूर करता है. क्या ये सभी वाकई भोजन न मिलने के कारण वापस आ रहे हैं? क्या इनको वाकई भूखे पेट रहना पड़ रहा था? क्या इन्हें वास्तविक रूप में किसी ने खाद्य-सहायता उपलब्ध नहीं करवाई? यदि यही भी सत्य है तो रोज ही सैकड़ों फोटो, वीडियो कहाँ के हैं जो खाद्य-सामग्री का वितरण कर रहे हैं? रोज ही आने वाली खबरें कहाँ की हैं जिनमें खाना दिए जाने की बात कही जा रही है? यदि यह भी सही है तो फिर खाना किसे बाँटा जा रहा है? खाद्य-सामग्री किसे वितरित की जा रही है?


ऐसा संभव ही नहीं कि सभी राज्यों की सरकारें, प्रशासन, सामाजिक कार्यकर्त्ता एकदम नाकारा हो जाएँ. ऐसा भी संभव नहीं कि सभी जगहों से भ्रामक फोटो-ख़बरें आने लगें. मजदूरों के पैदल आने की खबरों, फोटो को भी झुठलाया नहीं जा सकता है. यहाँ मनोवैज्ञानिक रूप से समझने की आवश्यकता है. असल में अपने घर से सैकड़ों-हजारों किमी दूर रह रहे इन मजदूरों के अन्दर कोरोना से होने वाली मौतों का भय बैठा हुआ है. ऐसे में ये अपनी मौत के बाद अपने परिवार, बच्चों के लिए चिंतित रहे होंगे. इसी मनोवैज्ञानिक भय ने इनको अपने कार्यस्थल से पलायन करने को मजबूर नहीं किया बल्कि प्रेरित किया. इनके मन में अपने घर पहुँचने, अपने घर में मरने, अपनी मिट्टी में मरने, अपने लोगों के बीच मरने की स्थिति जन्म ले रही थी. ये सभी अपने प्रति नहीं बल्कि अपने उस परिवार के प्रति निश्चिन्त होना चाहते हैं, जो उनके साथ है. यदि वाकई इन्हें परिवार की, अपनों की, अपने घर-मिट्टी की चिंता होती तो चंद रुपयों के लिए ये अपना गृह स्थान छोड़कर नहीं गए होते.

आज जो दशा मजदूरों की दिखाई जा रही है, वह निश्चित ही चिंता का विषय है मगर इसके साथ ही चिंता का विषय यह भी है कि आखिर राहत सामग्री का वितरण कहाँ हो रहा है? चिंता की बात ये भी है कि क्या ये मजदूर हालात सही होने के बाद पुनः अपनी जमीन छोड़कर पलायन नहीं करेंगे? किये रहो चिंता क्योंकि चिता करना कहीं ज्यादा आसान है, काम करने से.

फ़िलहाल ये पंक्तियाँ

जब आवश्यकता थी जमीन, घर-परिवार को तुम्हारी,
सिक्कों की खनक में सबको रोता-बिलखता छोड़ गए थे.
भूख के कारण  नहीं मौत से डर कर आये हो तुम,
किसी दिन सिक्कों की खनक सुन फिर न भाग जाओगे.

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

3 टिप्‍पणियां:


  1. जब आवश्यकता थी जमीन, घर-परिवार को तुम्हारी,
    सिक्कों की खनक में सबको रोता-बिलखता छोड़ गए थे.
    भूख के कारण नहीं मौत से डर कर आये हो तुम,
    किसी दिन सिक्कों की खनक सुन फिर न भाग जाओगे
    बहुत बढ़िया ,सच से रु-ब-रु कराती हुई मार्मिक पोस्ट ,नमस्कार

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  2. बहुत सा सच कहा। सच कह देने से लोग बुरा भी मान जाते हैं।

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