लॉकडाउन
के इस सीजन में शैक्षणिक संस्थानों के सामने छूटी परीक्षाओं को करवाने का संकट
मुँह बाए खड़ा है. इससे बचने का तो कोई उपाय है ही नहीं. संकट ने मुँह खोला है तो
कुछ न कुछ करेगा ही. कहीं-कहीं से ऐसी खबरें भी आने लगीं हैं कि जून में, कहीं
जुलाई में शेष रह गयी परीक्षाओं को करवाकर बच्चों का भला किया जायेगा. एक तरफ
कोरोना से बचने के लिए दूरी बनाये रखने के उपाय समझाए जा रहे हैं, दूसरी तरफ परीक्षाओं
के लिए कमर कसी जा रही है.
इधर
एक तरफ संस्थाएँ परीक्षा करवाए जाने के लिए चिंतित हैं दूसरी तरफ इन्हीं संस्थानों
में ऑनलाइन क्लासेज को लेकर नए नाटक चल रहे हैं. इसे नाटक ही कहेंगे, क्योंकि सबको
मालूम है कि बाजार बंद है, स्टेशनरी मिलनी नहीं इसके बाद भी होमवर्क को नोट बुक पर
करके अपलोड करना है. यहाँ न नोट बचे और बुक बाजार में हैं ही नहीं. बहरहाल, सरकार
को दिखाने के लिए, अभिभावकों से फीस वसूलने के लिए, अध्यापकों को वेतन दिए जाने के
बदले काम करवा लेने के संतोष के चलते ऐसा करना आवश्यक समझ आ रहा होगा.
ये
सब अभी कोरोना, लॉकडाउन के चक्कर में शुरू हो गया है मगर देखा जाये तो भारतीय समाज
में पढ़ाई को लेकर कुछ ज्यादा ही नौटंकी होने लगी है. छोटे-छोटे बच्चों की पीठ पर
बोझ डालकर अभी से उनको बोझ उठाने की आदत डलवा दी जा रही है. भारी-भरकम पाठ्यक्रम
के द्वारा सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही सिविल सेवा में चयनित करवाने
की होड़ मची रहती है. आज बच्चों को पढ़ाई के बोझ से दबे देखते हैं तो अपना दौर याद आ
जाता है. आज के दौर में बच्चों को दो-दो बोर्ड परीक्षाओं से पार होना पड़ता है,
जबकि हमें तीन बोर्ड परीक्षाओं को पास करना पड़ा था. सुन कर आज के बच्चों को अजूबा
लग रहा होगा सुनकर.
अजूबा
आज के लिए हो सकता है मगर आपमें से बहुत से लोगों ने बोर्ड परीक्षा के तीन दौर
निपटाए होंगे. कक्षा पाँच की परीक्षाएँ आने वाली थीं. स्कूल की दीदियाँ हम लोगों
को समझाती थीं कि खूब पढ़ा करो, बोर्ड परीक्षा होगी. तब उस मासूमियत भरी उम्र में हम
लोग समझ रहे थे कि बोर्ड में लिखना होगा. होते-करते वो दिन भी आ गया जबकि हमारी बोर्ड
परीक्षाओं की शुरुआत हुई. सभी बच्चे निश्चित समय पर अपने स्कूल पहुँचे. वहाँ से दो
अध्यापकों के साथ हम बच्चे पास के एक दूसरे स्कूल ले जाए गए. अपने स्कूल से अलग
किसी स्कूल में परीक्षा देने का अपना ही आनंद समझ आ रहा था. परीक्षा से ज्यादा
ध्यान उस स्कूल में लगे पेड़-पौधों की तरफ जा रहा था.
जिस
तरह से परीक्षा होनी थी, हुई. तीन-चार दिन में कक्षा पाँच की और हमारी पहली बोर्ड
परीक्षा संपन्न हुई. बचपन की उस बोर्ड परीक्षा का कोई महत्त्व आने वाले दिनों के
लिए नहीं था मगर जिस बोर्ड परीक्षा का महत्त्व आने वाले दिनों के लिए था, वे भी
उसी मस्ती और अल्लहड़ तरीके से पूरी की गईं. परीक्षा देने के समय ही हम दोस्तों के
बीच निर्धारित कर लिया जाता था कि किस मैदान में क्रिकेट खेलने पहुँचना है, किस
जगह पर बैडमिंटन की चिड़िया उड़ानी है.
मस्ती और बेफिक्री के उस दौर के वापसी की बस
कल्पना ही है और आये दिन उसी कल्पना में घूम-टहल लेते हैं.
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#हिन्दी_ब्लॉगिंग
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंओ तेरे कि , तीन तीन बोर्ड परीक्षाएं | ये तो कमाल की बात बताई आपने | आठवीं कक्षा के बोर्ड की बाबत तो हमने भी सुनी थी , मगर पांचवी कक्षा में ही | हालांकि हमने तो एक ही बोर्ड परीक्षा दी थी और उसी में लम्ब लेट हो गए थे | बहादुरी के साथ तृतीय श्रेणी में रो पीट कर पास हो पाए थे | रोचक यादें राजा साहब
जवाब देंहटाएंआठवीं बोर्ड की बात तो हमने भी सुनी थी पर वो हमें देखने को न मिली।
हटाएंबोर्ड परीक्षा तो जैसे भूत-प्रेत है, बच्चों को ऐसे डराते हैं. मुझे लगता है कि स्कूल की परीक्षा हो या बोर्ड की, पढ़ना और पास करना तो दोनों में है. अगर पढाई ठीक है तो क्या फ़र्क पड़ता. पर अब तो नर्सरी से ही पढ़ाई को हौआ बना दिया गया है. दो-तीन महीना लॉकडाउन में न पढेंगे तो क्या हो जाएगा? बेवजह ऑनलाइन क्लास हो रहे हैं.
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने. ऑनलाइन क्लासेज के द्वारा बच्चों पर अनावश्यक बोझ डाला जा रहा है. किताबें, कॉपी, अन्य स्टेशनरी के लिए बाजार खुले नहीं हैं. उस पर नोटबुक में होमवर्क करना, उसकी PDF बनाकर वेबसाइट पर अपलोड करना आदि सिवाय उलझाने के कुछ नहीं है.
जवाब देंहटाएंवो भी एक ज़माना था ... पाँचवीं, आठवीं और फिर दसवी फ़ोर बारहवीं ... बस बोर्ड ही बोर्ड ... पर अफ़सोस ऐसा होता था की नम्बर क्यों। अबि आते ... और आज ज़्यादातर ६०-६०-८०% से ऊपर नम्बर लाते हैं ...
जवाब देंहटाएंहम तो आठवीं से बच गए थे. नंबर तो ऐसे आते थे जैसे उसके लिए भी पासपोर्ट, वीजा की आवश्यकता हो.
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