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30 जनवरी 2009

बसंत पंचमी का मेला:बचपन की यादें

कल बसंत पंचमी का पर्व है और आज यही सोचते हुए बाजार की तरफ जाना हुआ तो अपने बचपन की अनेक घटनायें याद आ गयीं। घर के पास ही एक मंदिर है, मंदिर आज तो बहुत ही अप्छी दशा में है किन्तु उस समय जबकि हम छोटे-छोटे थे मंदिर बहुत ही जीर्ण-शीर्ण स्थिति में हुआ करता था। उस मंदिर के हाते में ही एक छोटा सा मेला लगा करता था, मेला तो आज भी लगता है और आज उसी मेले की तैयारी होते देख अपना बचपन याद आ गया।
उस समय मेले में कई छाटे-बड़े झूले, बहुत सी छोटी-छोटी दुकानें आया करतीं थी। दुकानें आज भी लगतीं हैं किन्तु अब इनकी संख्या में लगातार कमी होती जा रही है। हालांकि दुकानों के स्तर में बहुत सुधार नहीं हुआ है। उस समय भी महिलाओं के साज-श्रृंगार से सम्बन्धित सामग्री की दुकानें अधिक हुआ करतीं थीं, आज भी हैं। बस फर्क आया है तो खरीददारी और बिकवाली का।
बहरहाल ये तो आधुनिकता का तकाजा है। आज मेले के लिए आये कुछ दुकानदारों और झूले वालों को तैयारी करते देख लगा कि उनमें भी कल के मेले को लेकर किसी तरह का उत्साह नहीं बचा है। कुछ दुकानदार अपने व्यवसाय की परम्परा का पालन कर रहे हैं तो कुछ इसी बहाने भगवान की सेवा करने का बहाना निकाल रहे हैं। हमें बहुत अच्छी तरह याद है कि उस समय मेले का रूप छोटा सा हुआ करता था किन्तु उसमें रौनक बहुत रहती थी। बच्चों के अतिरिक्त बड़ों में भी उत्साह देखते बनता था। मंदिर के दर्शन बड़ों के लिए आवश्यक होता था तो हम बच्चों के लिए भगवान के दर्शन प्रसाद पाने का बहाना हुआ करता था। मंदिर के पुजारी के हाथों मिलती मिठाई, फल आदि में एक अजब सा स्वाद होता था जो किसी भी भगवान में आस्था न रखे बिना भी बहुत मजेदार हुआ करता था।
इधर अब बहुत सालों से उस मंदिर में जाना नहीं हुआ। मंदिरों का भी लगातार आधुनिकीकरण होता जा रहा है और वे भी व्यावसायिकता को किसी न किसी रूप में स्वीकारते दिख रहे हैं। कुछ दुकानदारों से बात करने पर पता चला कि अब मंदिर परिसर पर कुछ अवांछित तत्वों का कब्जा हो गया है जो दुकान का किराया बसूलने लगे हैं। इधर लोगों का ध्यान भी पारम्परिक पर्वा-त्योहारों से अलग हट कर कुछ विशेष करने की तरफ जा रहा है। बसंत पंचमी का महत्व कम से कम तब तक तो लोगों के लिए नहीं है जब तक कि उसे किसी विदेशी द्वारा प्रचारित प्रसारित न किया जाये। किसी कार्ड बनाने वाली कम्पनी से इस उपलक्ष्य में ग्रीटिंग कार्ड न बेचना शुरू किये जायें। जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक हमारे बचपन के प्यारे से मेले में रौनक नहीं होगी, उस छोटे से मंदिर के प्रसाद में अपनत्व की महक नहीं होगी।
क्या कभी ऐसा होगा कि हम फिर से बसंत पंचमी को लगने वाले इस मेले में बचपन की तरह झूले में झूल सकेगे? मंदिर के पुजारी से बिना किसी आस्था के सिर्फ प्रसाद लेने के लिए मंदिर जाया करेंगे?

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपका मुझे मेरे बचपन में ले गए,
    कितना आचछा था वो समय जब हम माँ शारदे की पूजा के लिए टोली-टोली इस पंडाल से उस पंडाल घूमा करते थे..कोलकाता में बिताया हर बसंत पंचमी का पल याद आ गया
    आपका मेरे ब्लॉग को भी देखे
    http://www.som-ras.blogspot.com

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