हर फ़िक्र को धुँए
में उड़ाता चला गया, एक
गीत की इस पंक्ति ने युवाओं को बहुत प्रभावित किया है. उनके लिए इस पंक्ति का
सन्दर्भ उन्मुक्त रूप से धुँआ उड़ाना भर है. इसके वशीभूत युवाओं की बहुत बड़ी संख्या
जगह-जगह कहीं छिपे रूप
में, कहीं उन्मुत भाव से
धुआँ उड़ाती नजर आती है. ऐसे युवाओं को गीत की इस पंक्ति ने जितना प्रभावित किया है
उतना इसके अगले भाग ने नहीं किया है. धुँए से खेलती इस पीढ़ी को मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया, वाला दर्शन याद नहीं है. रील बनाने में खोयी
रहने वाली, अपने आपको
स्वतंत्रता से उद्दंडता की तरफ ले जाती पीढ़ी को कतई भान नहीं है कि किसी भी गीत की
पंक्तियों का अनुसरण करना और ज़िन्दगी की वास्तविकता को समझना दो अलग-अलग स्थितियाँ
हैं. ज़िन्दगी को जीने के अंदाज, ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बनाये
रखने की कार्य-शैली से इतर आज का युवा नशे की दुनिया में हँसते-मुस्कुराते हुए
प्रवेश कर रहा है. उसके लिए ये किसी खतरे का सूचक नहीं बल्कि एक तरह का एडवेंचर
है, जिसे वह किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहता है.
सामाजिक रूप से यह
स्थिति चिंताजनक है कि जिस उम्र में किशोरों, युवाओं को अपने दैहिक सौष्ठव की तरफ,
बौद्धिक विकास की तरफ, अध्ययन की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए
उस उम्र में वे नशे का शौक पालने में लगे हैं. शौक-शौक में कभी-कभी ही नशे की तरफ
बढ़े कदम कब उनकी मजबूरी बन जाते हैं, उनको इसकी भनक तक नहीं लगती है. शौकिया उठाये गए कदम
की मजबूरी में फँसकर वे इसे ज़िन्दगी जीने का तरीका समझने लगते हैं. अपनी मस्ती, अपनी दुनिया, अपनी स्वतंत्रता में इनको आभास ही नहीं होता है कि
वे कब ज़िन्दगी को जीने की कोशिश में ज़िन्दगी से खिलवाड़ करने लगे हैं.
ऐसी स्थितियों के
लिए पूरी तरह से युवाओं को अथवा किशोरों को दोष देना भी उचित नहीं है. देखा जाये
तो भौतिकतावादी दौड़ में ऐसे बच्चों के अभिभावक भी शामिल हैं. आधुनिकता की अंधी दौड़
में दौड़ते-दौड़ते अनुशासन का पाठ सिखाने वाले, जीवन की जिम्मेदारियों से परिचय कराने वाले अभिभावक अपने ही
बच्चों के मित्र रूप में परिवर्तित हो गए. मैत्री भरे कथित वातावरण में अब बच्चों
को किसी भी संसाधन की, उत्पाद की महत्ता समझाने के बजाय उसकी
सहज उपलब्धता करवाई जा रही है. अनुशासन-मुक्त लाड़-प्यार में उपलब्ध संसाधनों के
चलते ऐसे बच्चों को न तो धन की महत्ता समझ आती है, न समय की, न कैरियर की और न ही अपनी ज़िन्दगी की. इसी मानसिकता
के कारण समाज का बहुसंख्यक युवा वर्ग गैर-जिम्मेदारी का परिचय देते हुए उद्दंड नजर
आने लगा है. इसी का दुष्परिणाम है कि अधिकांश बच्चों में आपराधिक प्रवृत्ति पनप
रही है, वे गलत रास्तों
की तरफ बढ़ जाते हैं, नशे की गिरफ्त में आ जाते हैं.
नशा-मुक्त समाज की
संकल्पना समाज के प्रत्येक जागरूक व्यक्ति की चाह है. इसके बाद भी, नशे के दुष्प्रभाव की जानकारी
होने के बाद भी युवाओं में ही नहीं बल्कि समाज में नशे के प्रति आसक्ति लगातार
बढती ही जा रही है. शादी-विवाह के समारोह, किसी भी
हर्ष-उमंग का अवसर होना, युवाओं की अपनी मस्ती आदि अब
बिना नशे के पूरी नहीं हो पाती है. कहीं न कहीं समाज में इस तरह के नशे को
स्वीकार्यता मिल चुकी है. किसी भी तरह का आयोजन हो, छोटे-बड़े
स्तर के क्लब या होटल हों सभी में किसी न किसी रूप में नशे की उपस्थिति देखने को
मिलने लगी है. बहुत सी जगहों पर खुलेआम या चोरी-छिपे ड्रग्स पार्टियाँ, हुक्का बार आदि जैसी संकल्पना धरातल पर देखने को मिलती है. दुर्भाग्य यह
है कि ऐसे आयोजनों में बहुतायत में किशोरों का, युवाओं का
सम्मिलन रहता है. आधुनिकता के परिवेश में लिपटी ऐसी पार्टियों में सिगरेट, शराब की आड़ में नशीले तत्त्वों, विभिन्न ड्रग्स की सहज पहुँच बनी होती
है.
नशा-मुक्त समाज की
अवधारणा को पूरा करने के लिए सर्वप्रथम तो ऐसे नशीले पदार्थों की आवक पर ध्यान
देने की जरूरत है; उसके
स्त्रोतों को पकड़ने की जरूरत है; इनको बाज़ार में खपाने
वाले तत्त्वों को खोजने की जरूरत है. इसके साथ-साथ यह भी समझना होगा कि आखिर नशे
की गिरफ्त में विशेष रूप से युवा वर्ग क्यों आ रहा है? इसके लिए समाज में युवाओं की, किशोरों की
समस्याओं पर विचार करने की आवश्यकता है. औद्योगीकरण, वैश्वीकरण
की परिभाषा इस तरह से चारों तरफ घेर दी गई है कि सिवाय लाखों के पैकेज के युवाओं
को और कुछ सूझ नहीं रहा है. आपस में बढ़ती गलाकाट प्रतियोगी भावना, जल्द से जल्द सफलता की अधिकतम ऊँचाइयों को प्राप्त कर लेने की लालसा, कम से कम प्रयासों में अधिकतम प्राप्ति की चाह आदि ने युवा वर्ग को अंधी
दौड़ में शामिल करवा दिया है. इस दौड़ में एक बार शामिल हो जाने के बाद उनको न तो
अपना भान रहता है और न ही सामाजिकता का. इसके अलावा ग्रामीण इलाकों के युवाओं के
समक्ष कार्य के अवसरों के अत्यल्प होने के कारण से अवसाद जैसी स्थिति है. लाभ के, उन्नति के, समर्थ कार्य करने आदि के कम से कम
अवसरों के कारण यहाँ के युवा निराश तो रहते ही हैं साथ ही महानगरों की चकाचौंध
उनको हताश भी करती है.
सरकार
को, समाज के जागरूक लोगों को नशा मुक्ति के साथ-साथ
युवाओं के लिए अवसरों की अनुकूलता बढ़ाने की आवश्यकता है. जो युवा वर्ग भौतिकता की
अंधी दौड़ में फँस गया है उसको समझाने की, सँभालने की
जरूरत है. यदि हम अपनी युवा पीढ़ी को सही-गलत का अर्थ समझा सके, सामाजिकता-पारिवारिकता का बोध करा सके, कर्तव्य-दायित्व
को परिभाषित करा सके तो बहुत हद तक नशा-मुक्त समाज स्थापित करने में सफल हो
जायेंगे.
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