Pages

05 फ़रवरी 2025

दिल्ली विधानसभा चुनाव का खेल

दिल्ली विधानसभा चुनाव का मतदान समाप्त होते ही कई एजेंसियों ने अपने एग्जिट पोल जारी किये. कुछ प्रमुख एजेंसियों में से सात ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और दो ने आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार का अनुमान दिखाया है. कांग्रेस को किसी ने गम्भीरता से नहीं लिया है. देखा जाये तो कांग्रेस पिछले चुनाव से ही दिल्ली में हाशिए पर है. वर्तमान चुनावों का अंतिम परिणाम क्या होगा ये मतगणना के बाद ही स्पष्ट होगा किन्तु दिल्ली विधानसभा चुनाव की स्थिति का आकलन करने के लिए कांग्रेस का भी आकलन करना होगा, बिना इसके विधानसभा चुनावों की सही तस्वीर सामने नहीं आएगी. इसके लिए विगत तीन विधानसभा चुनावों का आकलन करना होगा.

 

दिल्ली विधानसभा 2015 और 2019 के चुनावों में जिस तरह से कांग्रेस पूरे परिदृश्य से गायब हुई उसे देख कहा जाने लगा कि कांग्रेस का विकल्प आप है. 2013 में आप ने अन्ना आन्दोलन लहर के साथ पहली बार चुनाव में उतरते ही सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा. 70 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा 32 सीटों के साथ पहले स्थान पर, आप 28 सीटों के साथ दूसरे और सत्ताधारी कांग्रेस महज 08 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर आई. भाजपा विरोधी मानसिकता के कारण कांग्रेस ने आप को समर्थन देकर सरकार बनवाई जबकि अन्ना आन्दोलन से जन्मी आप का सबसे बड़ा विरोधी दल कांग्रेस ही बना था.

 



पहली बार में ही अपनी उपस्थिति को इस रूप में देखकर अरविन्द केजरीवाल को भ्रम हो गया कि वे भ्रष्टाचार के नाम पर कहीं भी, कैसी भी जीत, किसी के खिलाफ प्राप्त कर सकते हैं. विधानसभा में भी उनकी जीत कांग्रेस की सशक्त नेता और दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ थी. इसी सोच के चलते महज 49 दिन की सरकार चलाने के बाद केजरीवाल लोकसभा चुनाव की तरफ मुड़ गए. लोकसभा चुनावों के पश्चात् दिल्ली ने 2015 में दोबारा चुनावों का मुँह देखा. दिल्ली विधानसभा 2015 चुनाव परिणाम सोचने वाले थे कि आप या अरविन्द केजरीवाल ने महज 49 दिन में ऐसे कौन से काम कर डाले थे कि 2013 चुनाव में 28 सीटें जीतने वाली आप ने इन चुनावों में 63 सीटें हासिल कीं? यह भी सोचने वाली बात थी कि जिस भाजपा की स्थिति कांग्रेस या शीला दीक्षित के कार्यकाल में बुरी नहीं रही, उसने महज 49 दिन में ऐसे कौन-कौन से गलत कदम उठाए कि उसे मात्र तीन सीट पर सिमटना पड़ा?

 

इन सभी सवालों का जवाब चुनाव परिणामों में ही छिपा हुआ था, जिसे देखकर भी अनदेखा किया गया. 2013 के चुनाव परिणामों के मुकाबले आप को 2015 में सभी सत्तर सीटों पर अधिक मत प्राप्त हुए. यह महज संयोग नहीं कहा जायेगा कि कांग्रेस को 2013 के चुनाव के मुकाबले 2015 में दो सीटों, मंगोलपुरी और मतिया महल को छोड़ शेष 68 सीटों पर बहुत ही कम मत मिले. यहाँ कांग्रेस के मतों का कम होना उतना आश्चर्यचकित नहीं करता जितना इस बात के लिए करता है कि बहुत सी सीटों पर यह कमी दो से पाँच गुनी तक रही. इस आँकड़े के परिदृश्य में भाजपा ने 2013 के मुकाबले 2015 में महज 17 सीटों पर कम मत प्राप्त किये. इनमें कुछ सीटों पर यह अंतर सौ मतों से भी कम का रहा. क्या इसे महज संयोग कहकर अनदेखा किया जा सकता है?

 

दरअसल ये पूरा खेल मत-स्थानांतरण का था. मतदाताओं का एक दल से दूसरे दल की तरफ, एक प्रत्याशी से दूसरे प्रत्याशी की तरफ स्विंग कर जाना कोई नई घटना नहीं थी मगर समूची विधानसभा के मतदाताओं का स्विंग कर जाना साधारण घटना नहीं थी. भाजपा या कि मोदी विरोधियों ने एहसास कर लिया कि अन्ना आन्दोलन से मिले समर्थन और उसके बाद 2015 में मतों के ट्रांसफर से भाजपा विरोध में आप को कांग्रेस का विकल्प अथवा उसकी टीम बी बनाया जा सकता है. इसी कारण से दिल्ली में मोदी विरोध में, भाजपा विरोध में सभी दल किसी न किसी रूप में एकजुट बने रहे. इन दलों ने खुलकर मोदी का विरोध किया, भाजपा का विरोध किया मगर आपस में एक-दूसरे का विरोध करने से बचते रहे. अरविन्द केजरीवाल के वे सारे सबूत कहीं गायब हो गए जो शीला दीक्षित के खिलाफ मंचों से दिखाए जाते रहे थे. इस खेल में किसी तरह की कमी नहीं आई बल्कि उसे और मजबूती प्रदान की गई. इसमें केन्द्र सरकार के निर्णयों को आधार बनाकर अनावश्यक विरोध किया गया.

 

इसके बाद भी विधानसभा 2019 में आप अपना पिछला कारनामा दोहराने में असफल रही. 2015 के चुनाव के मुकाबले इस बार मात्र 35 सीटों पर ही ज्यादा मत प्राप्त हुए. भाजपा को 201के मुकाबले 57 सीटों पर अधिक मत प्राप्त हुए. कांग्रेस ने कुल 06 सीटों पर अधिक मत प्राप्त किये. इसे भी संयोग कहकर टाला नहीं जा सकता कि 70 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को मात्र 08 सीटों पर पाँच अंकों में मत प्राप्त हुएउनमें भी महज तीन सीटों में वह बीस हजार या उसके आसपास सिमट गई. ये और बात है कि भाजपा इसके बाद भी महज आठ सीटों पर ही विजय हासिल कर सकी. 

 

आप की बढ़ती सीटों के पीछे भाजपा की कार्यप्रणाली, उसके नेतृत्व की स्थितियाँ भी प्रभावी रही होंगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु इसकी चर्चा किये बिना, परिणामों के आपसी सह-सम्बन्ध को परखे बिना आप को कांग्रेस का विकल्प बता देना अभी जल्दबाजी होगी. आप विशुद्ध रूप से कांग्रेस की टीम बी के रूप में देखी जा सकती है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि जहाँ-जहाँ कांग्रेस चुनावों में पराजित हुई है वहाँ उसके द्वारा ईवीएम पर ऊँगली उठाई गई, केन्द्र सरकार पर आरोप लगाये गए लेकिन दिल्ली के दो विधानसभा चुनावों में शून्य सीटें लाने के बाद भी उसकी तरफ से ऐसा कुछ नहीं किया गया. कांग्रेस का विरोध करके जमीन बनाने वाली आम आदमी पार्टी को पहली बार में ही समर्थन देकर सरकार बनवाना, एक भी सीटें न मिलने के बाद भी ईवीएम पर हो-हल्ला न मचाना, एकाएक कांग्रेस के मतों में जबरदस्त गिरावट आना और उसी अनुपात में आम आदमी पार्टी के मतों का बढ़ना इसे कांग्रेस का विकल्प नहीं बल्कि अवसरवादी राजनीति सिद्ध करता है.

 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें