विश्व मानवाधिकार
दिवस को सभी जगहों पर पूरी औपचारिकता, उत्साह के साथ मनाया गया. इस दिन न केवल अपने देश में बल्कि सम्पूर्ण
विश्व में किसी न किसी तरह के आयोजन किये गए. कदाचित मानवाधिकार दिवस पर वे देश भी
समारोह करते दिखे जो किसी न किसी तरह से युद्ध में, संघर्ष
में संलिप्त हैं. संभवतः यही मानवाधिकारों की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वैश्विक
स्तर पर जिन अधिकारों को लेकर सहमति बनी हुई है उनको लेकर ही वैश्विक स्तर पर
सकारात्मक सक्रियता देखने को नहीं मिलती है. मानवाधिकार इसलिए हमारे पास इसलिये
हैं क्योंकि हम मनुष्य हैं. राष्ट्रीयता, लिंग, राष्ट्रीय या जातीय मूल, रंग, धर्म,
भाषा या किसी अन्य स्थिति के प्रभाव से रहित इन अधिकारों को मानवों
के लिए आरोपित किया गया है. इसके पीछे उद्देश्य यही रहा था कि सभी को जीने का
अधिकार मिले. इस दृष्टि से मानवाधिकारों में मौलिक, जीवन के
अधिकार से लेकर उन अधिकारों को शामिल किया गया है जो जीवन को जीने लायक बनाते हैं.
इसमें व्यक्ति को भोजन, शिक्षा, कार्य
की स्वतंत्रता, स्वास्थ्य और स्वतंत्रता का अधिकार आदि
प्रदान किये गए हैं.
यदि उक्त कतिपय
अधिकारों पर दृष्टिपात किया जाये तो प्रत्येक व्यक्ति तक इन्हीं अधिकारों की
सुगमता नहीं है. सामान्य रूप से भोजन पाने की विवशता, शिक्षा पाने से बहुत बड़े वर्ग का आज
भी वंचित रह जाना, जगह-जगह पर बाल-श्रम, बाल शोषण की स्थिति आज भी बनी हुई है, महिलाओं के विरुद्ध
घरेलू हिंसा सम्बन्धी वातावरण का निर्मूलन नहीं हो सका है, महिलाओं
के, बालिकाओं के शारीरिक शोषण सम्बन्धी घटनाओं में कमी नहीं
आई है, दहेज़ हत्या, बलात्कार, ऑनर किलिंग, कन्या भ्रूण हत्या जैसी घटनाओं का समाज में अस्तित्व बना हुआ
है, मजदूरों-नौकरों के प्रति अमानवीयता की घटनाएँ होती रहती
हैं. न केवल अपने देश में बल्कि वैश्विक स्तर पर सामाजिक विकास की स्थिति में
गिरावट आती जा रही है. आज लगभग सभी देश अपने यहाँ गरीबी, बेरोजगारी,
जातीय-नस्लभेदी संघर्ष, क्षेत्रीय गुटबाजी, साम्प्रदायिक
हिंसा, मानव तस्करी, अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता, जातिगत भेदभाव आदि समस्याओं से जूझ रहे हैं. इसके
अलावा कुपोषण, नशा, सुनियोजित अपराध,
भ्रष्टाचार, विदेशी अतिक्रमण, तस्करी,
आतंकवाद, असहिष्णुता, धार्मिक कट्टरता आदि बुराइयों का
योजनाबद्ध तरीके से सञ्चालन भी मानवाधिकारों के उचित व्यवस्थापन में अवरोधक है.
ये सारी स्थितियाँ
वे हैं जो एक देश की अंदरूनी स्थिति, परिस्थिति के कारण उत्पन्न होती हैं किन्तु विगत कुछ वर्षों से जिस तरह
की स्थितियाँ वैश्विक परिदृश्य में उपजी हैं वे केवल एक देश की आंतरिक नहीं हैं. लम्बे
समय से समूचा वैश्विक परिदृश्य किसी न किसी युद्ध के साये में घिरा रहा है. इन
युद्धों के कारण अनेक परिवारों ने अपने सदस्यों को खो देने का दर्द सहा है.
बहुतायत परिवारों, नागरिकों को पलायन का दंश सहना पड़ा है.
बहुत बड़ी संख्या में युद्ध-बंदी अकारण ही यातनाओं को सह रहे हैं. देखा जाये तो इन
युद्धों से केवल नागरिक ही नहीं बल्कि सैन्य परिवार भी नकारात्मक रूप से प्रभावित
होते हैं. उनके भी मानवाधिकारों का हनन होता है, उनका भी
उल्लंघन होता है. असल में युद्ध महज दो देशों के बीच चल रहा संघर्ष मात्र नहीं
होता है बल्कि इसका नकारात्मक प्रभाव उसके आसपास तो पड़ता ही है, वैश्विक रूप में भी पड़ता है. युद्ध में संलिप्त दोनों देशों के नागरिकों
के हितों, अधिकारों का हनन तो होता ही है इसके साथ-साथ
आर्थिक, व्यापारिक, राजनैतिक
व्यवस्थाओं में नकारात्मकता आती है. स्पष्ट है कि लम्बे समय से जहाँ एक तरफ
मानवाधिकारों की स्थापना की बात की जा रही है वहीं लगातार मानवाधिकारों का उल्लंघन
भी हो रहा है. बहुधा देखने में आता है कि मानवाधिकारों का उल्लंघन राज्य द्वारा भी
किया जाता है. कई बार ऐसा प्रत्यक्ष रूप में दिखता है तो कई बार अप्रत्यक्ष रूप
में. मानवाधिकारों का उल्लंघन एक तरह से राज्य की विफलता कही जाती है. किसी राज्य
की सहायक शक्तियों के द्वारा बहुतायत में मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएँ अक्सर होती
रहती है.
मंच पर बैठकर,
माइक के सामने खड़े होकर अधिकारों की
बात तो की जाती है मगर न तो उनकी रक्षा के लिए कारगर कदम उठाये जाते हैं और न ही
कर्तव्यों की बात की जाती है. सोचने वाली बात ये है कि यदि सभी अधिकार ही माँगते
रहेंगे, अधिकारों का मानवों के लिए होना बताते रहेंगे मगर उनके सफल, सकारात्मक क्रियान्वयन के लिए काम
नहीं किया जायेगा तो फिर ऐसे मानवाधिकारों के होने का लाभ क्या है? मानवाधिकारों की बात करते समय कभी कोई बात नहीं करता कि वह दूसरे के
अधिकारों की रक्षा किस तरह से करेगा. अधिकारों की बात करने के बाद भी एक व्यक्ति
दूसरे व्यक्ति के प्रति हिंसात्मक सोच, विकृत मानसिकता, शोषण का भाव अपनाने लगता है. अपने लाभ को दरकिनार करते हुए किसी दूसरे के
अधिकारों के लिए खड़े होना जीवट का काम है. वर्तमान दौर में जबकि सब एक-दूसरे को
मारने-काटने की बात कर रहे हों, सभी स्वार्थ में लिप्त होकर केवल स्व की सोच में
संलिप्त हों, कर्तव्यों के स्थान पर अधिकारों को प्राथमिकता
दी जा रही हो तब मानवाधिकारों का संकट में घिरा होना नजर आता है, उसके सामने चुनौतियों का उभरना दिखाई देता है.
बहुत अच्छा लिखा है
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