Pages

13 नवंबर 2024

अपने-अपने दायरे में सिमटता समाज

एक कारोबारी ने पत्नी की सहमति के बाद अपने पूरे परिवार को मार डाला. पत्नी, बेटे और दो बेटियों को उसने नींद की गोलियाँ खिलाईं फिर रस्सी से गला कसकर मार डाला. कारोबारी स्वयं भी आत्महत्या की कोशिश करते समय पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. समाज में आये दिन आत्महत्या किये जाने की अनेकानेक खबरें, घटनाएँ हम सभी के सामने आती रहती हैं. कभी गरीबी के चलते, कभी पारिवारिक कलह के चलते, कभी क़र्ज़ के चलते, कभी किसी अन्य कारण से इस तरह के दर्दनाक कदम उठाये जाते हैं. कहीं एक व्यक्ति अकेले इस तरह के कदम उठाता है, कहीं पूरा परिवार एकसाथ मौत के आगोश में चला जाता है.

 

इस तरह की घटनाओं के साथ-साथ समाज में अनेक तरह के आपराधिक कृत्य सामाजिक ढाँचे पर, इंसानों की मानसिकता पर, इंसानियत पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहते हैं. कहीं बहुत ही मामूली सी बात पर हत्या, कहीं किसी महिला की हत्या के बाद उसके टुकड़े-टुकड़े कर देना, कहीं किसी अबोध बच्ची के साथ बलात्कार, कहीं गैंग-रेप और हत्या जैसे जघन्य कृत्य दिल दहलाते रहते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर हम और हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है? मशीनों, रोबोटों, तकनीक भरे दौर में लगने लगा है कि समाज भी मशीन होता जा रहा है. आज के मशीनी युग में व्यक्ति भी मशीन की तरह व्यवहार करने लगा है. समाज का निर्माण इंसानों के समुच्चय द्वारा ही होता है ऐसे में समाज भी व्यक्तियों की मशीनी मानसिकता से अछूता नहीं है. धनोपार्जन की अंधी दौड़ में और उसके चलते दिमाग पर हावी किये मानसिक व्यस्तता के चलते अपने आसपास के वातावरण, माहौल से परिचित होने की आवश्यकता भी महसूस नहीं की जा रही है. हमारे बगल वाले घर-परिवार में क्या चल रहा है, इससे किसी तरह का कोई सरोकार नहीं है.

 



भौतिकतावादी सोच के चलते इंसान संवेदनहीन होता जा रहा है. कुतर्कों के द्वारा वह खुद को बुद्धि, ज्ञान से ऊपर समझते हुए केवल स्वार्थमय सोच में संलिप्त है. ऐसा महसूस होने लगा है कि स्वार्थ में संलिप्त होते जा रहे समाज में किसी को भी दूसरों के हित की, दूसरों के अधिकारों की कोई चिंता नहीं है. इस गम्भीर स्थिति के चलते आए दिन होती वारदातें समाज की संवेदनहीन प्रकृति को ही परिलक्षित करती हैं. यदि कहा जाये कि समाज में संवेदना, मानवता मर चुकी है तो इसमें किसी तरह की अतिश्योक्ति नहीं होगी. अब समाज में सरेआम वारदात ही नहीं हो रही हैं बल्कि उन घिनौने कृत्य को रोकने के स्थान पर उसके वीडियो बनाकर वायरल किये जा रहे हैं. अपराधी बेख़ौफ़ अपने आपराधिक कृत्यों को अंजाम दे रहे हैं. दिन-दहाड़े सड़क चलते हत्या कर देना, खुलेवाम दुकान में घुसकर गला रेत देना, भीड़ भरे स्थान पर किसी पर गाड़ी चढ़ाकर उसकी हत्या कर देना अपराधियों के बुलंद हौसलों को ही दर्शाता है.

 

समाज में इस तरह की स्थितियाँ उत्पन्न होने के कारणों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है. आखिर क्या कारण है कि हमारी युवापीढ़ी इतनी आक्रामक और संवेदनहीन हो गई है? क्या कारण है कि कोई पूरे परिवार सहित आत्महत्या करने को विवश हो जाता है मगर समाज से सहयोग की उम्मीद नहीं करता है? क्या कारण हो सकते हैं कि सड़क किनारे किसी बेटी पर चाकू से वार पर वार करते हुए उसकी हत्या कर दी जाती हो और कोई विरोध के लिए आगे नहीं आता है? क्या लालच, लोभ, स्वार्थ और दिखावे में हम सभी ने एक दूसरे की पीड़ा को समझना बंद कर दिया है? क्या सामाजिक सरोकारों से हम सभी ने अपने आपको अलग कर लिया है? क्या पड़ोस का परेशान परिवार अब हमें एक बोझ के समान नजर आने लगा है? यदि वाकई ऐसा है तो ये समाज में संवेदनहीनता बढ़ने का परिचायक है और ये हम सभी को समझना होगा कि बढ़ती संवेदनहीनता देश, समाज और भावी पीढ़ी के लिए हानिकारक है.

 

सामाजिक सरोकारों के लिए समाज में संवेदनशीलता आवश्यक है. संवेदनाएँ, इंसानियत, समन्वय, सहयोग  ही समाज में सामाजिक सौहार्द्र को बनाये रखती है. इसे ध्यान में रखते हुए समाज में सामाजिक कार्यक्रमों का, आयोजनों का, पर्वों-त्योहारों का आयोजन होते रहना चाहिए. समाज के जिम्मेदार नागरिकों, जनप्रतिनिधियों, प्रशासन द्वारा यथासंभव प्रयास किये जाने चाहिए कि इस तरह के आयोजनों में नागरिकों की भागीदारी तथा सहयोग हो. समाज के प्रत्येक वर्ग को उसकी सामूहिकता का बोध कराते हुए उसके कर्तव्यों से परिचित कराते हुए उसमें पारस्परिक संवेदनाओं के प्रति उत्तरदायित्व का बोध जीवंत किया जाये. परिवार में भी सभी सदस्यों के बीच सहयोग, समन्वय की भावना को विकसित करते हुए उनमें परोपकार की भावना का विकास करना चाहिए. शैक्षणिक संस्थाओं के माध्यम से विद्यार्थियों में सामाजिकता की भावना का विकास करते हुए उनको इंसानियत का, मानवता का बोध कराया जाये.

 

आज की पीढ़ी को ये समझना होगा कि एकाकी भावना के साथ, स्वार्थलिप्सा के द्वारा न तो समाज का वर्तमान सँवारा जा सकता है और न ही भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकता है. अपने-अपने दायरे में सिमटते जा रहे व्यक्तियों, परिवारों के कारण समाज में विकृतियाँ बढती जा रही हैं, अपराध बढ़ते जा रहे हैं, अपराध-बोध का जन्म हो रहा है. ऐसी स्थिति किसी भी समाज के लिए सुखद नहीं कही जा सकती है.

 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें