बोर्ड परीक्षाओं
के साथ-साथ घरेलू परीक्षाओं की समाप्ति के बाद भी बच्चे न तो उत्साहित से दिख रहे
हैं और न ही पढ़ाई से मुक्त नजर आ रहे हैं. लगभग सभी बच्चों के चेहरे पर एक तरह का
तनाव सा दिखाई पड़ रहा है. इनको देखकर लग ही नहीं रहा है कि इन्हीं बच्चों ने अभी
कुछ दिन पहले खूब मेहनत करके परीक्षाएँ दी है. ये सारे के सारे बच्चे आज भी किसी
परीक्षा को देते से नजर आते हैं. ये सच भी है, क्योंकि एक समय था जबकि परीक्षाएँ समाप्त होने के बाद कुछ
दिनों तक सभी बच्चे दबाव मुक्त होकर अपनी छुट्टियों को बिताया करते थे. आजकल देखने
में आ रहा है कि परीक्षा के दबाव से निकलते ही उनके ऊपर परीक्षा परिणाम का दबाव
हावी होने लगता है. अंक कैसे आयेंगे? कौन सा ग्रेड मिलेगा?
प्रवीणता सूची में नाम आएगा या नहीं? ऐसे एक-दो नहीं सैकड़ों
सवाल उनके मन-मष्तिष्क पर दबाव बनाने लगते हैं. इस दबाव के साथ-साथ एक दूसरी तरह
का दबाव भी अपनी गिरफ्त बनाने की कोशिश करता है. बच्चों के ऊपर जहाँ परीक्षा
परिणाम का दबाव उनके सामाजिक, पारिवारिक और शैक्षणिक वातावरण
के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है वहाँ एक अन्य प्रकार का दबाव उन पर व्यावसायिक
स्थिति के चलते बनाया जाने लगता है. अभी परीक्षा परिणाम निकला नहीं है मगर शिक्षण
संस्थानों द्वारा अगले सत्र में प्रवेश लेने के लिए युद्ध-स्तर पर तैयारियाँ चलने
लगी हैं. विज्ञापनों, व्यक्तिगत संपर्कों, फोन कॉल्स के द्वारा अभिभावकों पर डोरे डालने का काम शुरू हो गया है.
देखा जाये तो
समस्या न तो परीक्षा है,
न परीक्षाफल और न ही अगली कक्षा में प्रवेश की रस्साकशी, असल
समस्या है बच्चों के हिस्से में आने वाली गर्मियों की छुट्टियों पर डाका डालने की.
सुनने, पढ़ने में ये भले ही अजीब सा,
अलोकतांत्रिक सा लगे मगर सच यही है कि अब बच्चों के हिस्से में वे गर्मियों की
छुट्टियाँ नहीं आती हैं, जिन्हें वास्तविक रूप में छुट्टियाँ
कहा जाता है. परीक्षा परिणाम अभी क्या होगा, इससे किसी तरह
का सरोकार रखे बिना शिक्षण संस्थानों द्वारा बच्चों का प्रवेश अगली कक्षा में कर
लिया जाता है. नए शैक्षिक सत्र के नाम पर चंद दिनों चलाई गई कक्षाओं के बाद बोलचाल
में स्वीकारी जाने वाली गर्मियों की छुट्टियों के लिए बच्चों के बस्तों में इतना
सारा अनावश्यक काम गृहकार्य के नाम पर ठूँस दिया जाता है कि न केवल बच्चा बल्कि
उसके माता-पिता तक भूल जाते हैं कि वे गर्मियों की छुट्टियों का आनंद उठा रहे हैं.
मई-जून माह में
होने वाली गर्मियों की छुट्टियाँ विद्यालयों से दूर रहने वाले दिन अकेले नहीं हुआ
करते हैं बल्कि इन छुट्टियों के द्वारा बच्चों में अपने परिजनों से मिलने, अपने आसपास के वातावरण को
देखने-समझने, देशाटन करने, बिना किसी
तरह का मानसिक बोझ लेकर साथियों संग समन्वय-सामंजस्य आदि की समझ विकसित हुआ करती
है. अब गृहकार्य के नाम पर जिस तरह का मानसिक और किताबी बोझ बच्चों पर लाद दिया
जाता है, उससे बच्चे गर्मियों की छुट्टियों का आनंद उठाना
भूल ही गए हैं. एक पल को रुक कर सोचिए और महसूस करिए कि क्या आज के बच्चे गर्मियों
की छुट्टियों में आम के बगीचों का आनंद ले पा रहे हैं? क्या
वे ग्रामीण अंचलों में रह रहे अपने बाबा-दादी, नाना-नानी अथवा अन्य रिश्तेदारों के
पास जा पा रहे हैं? रातों को खुले आसमान के नीचे
चाँद-सितारों को निहारते हुए किस्से-कहानियों के कल्पना-लोक में विचरण करने जैसा
सुख क्या आज के बच्चे ले पा रहे हैं? क्या आज के बच्चों
द्वारा निष्फिक्र रूप में तालाब, नहर, बम्बा आदि में तैरने
का मजा लिया जा रहा है? क्या ये बच्चे इन छुट्टियों में
खेतों-खलिहानों को वास्तविक रूप में आत्मसात कर पा रहे हैं? ऐसी
स्थिति के चलते आज के बच्चे नैसर्गिक वातावरण से बहुत दूर होते चले जा रहे हैं. यह
वातावरण प्राकृतिक ही नहीं बल्कि पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि भी है.
ऐसा नहीं कि
गर्मियों की छुट्टियों में मिलने वाला गृहकार्य आवश्यक नहीं, इसके द्वारा भी
बच्चों का मानसिक और शैक्षणिक विकास होता है. छुट्टियों के दिनों में दिए गए
प्रोजेक्ट के द्वारा उनके भीतर कुछ न कुछ नया सीखने की ललक पैदा होती है, जिज्ञासा जागती है. बावजूद इसके
क्या आज मिलने वाले गृहकार्य के द्वारा ऐसा हो रहा है?
विद्यालयों से गृहकार्य के नाम पर पाठ्यक्रमों की पूर्ति करवाई जाने लगी है.
लम्बे-लम्बे लिखित किताबी कार्य देकर बच्चों को चौबीस घंटे किताबों में ही घुसे
रहने को मजबूर किया जा रहा है. गृहकार्य के द्वारा अब न बच्चों के सामान्य ज्ञान
को बढ़ाने पर ध्यान दिया जा रहा है, न उनकी हस्तलिपि को
सुधारने पर जोर दिया जा रहा है, न ही कला-संगीत आदि किसी शौक
को विकसित करने की पहल की जा रही है. अधिक से अधिक अंक लाने की अंधी दौड़, प्रवीणता सूची में सबसे ऊपर आने की कशमकश, अधिक से
अधिक किताबी ज्ञान को दिमाग में भर लेने की कवायद के द्वारा बच्चों का बचपन तो
पहले ही छीन लिया गया है, अब गर्मियों की छुट्टियों पर
अप्रत्यक्ष डाका डालकर उनको सामाजिकता, पारिवारिकता, सांस्कृतिकता आदि से भी दूर किया जा रहा है.
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