इन दिनों फिल्मों को केन्द्र में रखकर चर्चाओं का दौर बना हुआ है. विगत कुछ
वर्षों में आये तकनीकी परिवर्तन ने फिल्मों को कल्पनाशीलता से भी ऊपर लेकर एक अलग
ही रंग दिया है. जबरदस्त कम्प्यूटर इफेक्ट के चलते भी फिल्मों ने खुद को
वास्तविकता के करीब बताने के बाद भी वास्तविकता से बहुत दूर कर दिया है. समाज की
कहानी होने के बाद भी एक तरह की फैंटेसी अब फिल्मों में देखने को मिलने लगी है. फिल्मकारों
द्वारा कहानी को,
फिल्मांकन को, संवादों को, दृश्यों को
इस तरह से प्रस्तुत किया जाने लगा है कि वे अब दर्शकों की मानसिकता से खेलते नजर
आने लगे हैं. देशभक्ति के नाम पर बनी फ़िल्में हों, दो देशों के बीच प्रेम-संवाद की
स्थापना को दिखाती फिल्म हों या फिर समाज की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हकीकत को सामने
लाने वाली फ़िल्में हों सभी में वास्तविकता से कहीं अधिक उस मनोस्थिति का चित्रण
होता है जिसे दर्शक देखना पसंद करता है.
फिल्म क्षेत्र में लगातार बदलाव आते रहे हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है मगर इस बदलाव ने अब हिंसा, विकृति, यौन-संबंधों को इस तरह परोसना शुरू कर दिया
है जैसे यही समाज की हकीकत हो. फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विकास आरंभिक दौर से
ही हो रहा था और अपनी तरह का नया स्वरूप भी सामने आ रहा था. इसी का परिणाम था कि गूँगी
फिल्मों को आवाज मिली. बोलती फिल्मों की तकनीक विकसित होते ही फिल्म निर्माण का ढर्रा
भी बदला. अनेक फिल्म कम्पनियों के द्वारा प्रयोजनपूर्ण फिल्मों का निर्माण किया जाने
लगा. हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बनी रोटी, साहित्यिक कृति पर बनी चित्रलेखा, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन पर आधारित धरती के
लाल आदि फिल्मों का निर्माण सोद्देश्यपूर्ण विषय-कहानी जैसी विचारधारा रखने वालों के
कारण ही हो सका था.
इन सबके बीच कुछ निर्माताओं-निर्देशकों ने व्यवस्था की पोल खोलते हुए प्रशासनिक,
राजनीतिक भ्रष्टाचार को सामने रखते हुए
वास्तविकता को प्रदर्शित करने का हौसला दिखाया. अपने आसपास के भ्रष्टाचार, अत्याचार का पर्दे पर समाधान होता देखकर दर्शकों
ने इसे पसंद किया तो निर्माता-निर्देशकों ने वास्तविकता का, जीवन की सच्चाई की ताना-बाना कसते हुए इस सार्थकता के
बीच भौंड़ापन पसार कर रख दिया. जीवन की सच्चाई दिखाने के नाम पर आम आदमी का पर्दे के
पीछे का जीवन पर्दे पर उभरने लगा. सेक्स का, देह का खुला प्रदर्शन, अश्लील गीतों-नृत्यों-भावभंगिमाओं के साथ अश्लील संवादों
की अतिरंजिता फिल्मों में दिखाई देने लगी. कभी अश्लील और द्विअर्थी संवादों के लिए
विवादास्पद रहे दादा कोंड़के से भी ऊपर जाकर वर्तमान फिल्मकारों ने इस अश्लीलता और द्विअर्थी
शब्दावली को सीधे-सीधे फिल्मों में स्थान दे दिया. चोली के पीछे क्या है, एक चुम्मा तू मुझको उधार दे दे, सरकाय लेओ खटिया, ए गनपत चल दारू लगा जैसे गानों के बोल और फिल्मों की
संवाद अदायगी ने बोलती फिल्मों को वाचाल स्वरूप प्रदान किया.
यही सिनेमाई शक्ति, विचारों
और आदर्शों का प्रचार-प्रसार आज कम होता दिख रहा है. जहाँ रंग दे बसंती, तारे जमीं पर, थ्री इडियट्स, वेलकम टू सज्जनपुर, न्यूयार्क जैसी साफ सुथरी और विषय-विशेष को आधार बनाकर
बनी फिल्मों से सुखद अनुभूति होती दिखती है वहीं कमीने, कम्पनी, एनिमल, कबीर जैसी फिल्मों की प्रेतछाया डराती भी है. इसी प्रेतछाया
से अब एक और नया शब्द अपने अत्यंत हिंसात्मक स्वरूप में समाज के बीच जगह बनाने लगा
है. जबरदस्त हिंसा और नकारात्मकता को अपने में समेटे एनिमल फिल्म के द्वारा अल्फ़ा
मेल की उपस्थिति हुई. अपने मूल अर्थ से बहुत दूर इस शब्द को फिल्मकार ने हिंसात्मक
रूप में प्रदर्शित किया है.
ऑक्सफोर्ड लर्नर्स डिक्शनरी के मुताबिक, किसी खास समूह का वह शख्स जिसके पास सबसे अधिक ताकत हो,
वो अल्फा मेल कहलाता है या यूँ कहें कि
एक ऐसा व्यक्ति, जो सामाजिक और
व्यावसायिक स्थितियों पर अपनी पकड़ रखता है, वह अल्फा मेल है. यदि इस परिभाषा के सापेक्ष फ़िल्मी
अल्फ़ा मेल की छवि देखेंगे तो दर्शकों को, समाज को निराशा ही हाथ लगेगी. अल्फा मेल शब्द का प्रयोग 1960
के दशक से पहले नहीं किया जाता था. एनिमल
किंगडम से लिए गए इस शब्द को बाद में इंसानों पर अप्लाई किया गया. जो पावरफुल व्यक्ति
के व्यवहार को बताने के लिए था. सामान्य रूप में अल्फा पुरुष को अपने समूह के नेता
के रूप में जाना जाता है. वह ऐसा व्यक्ति होता है जिसका प्रत्येक व्यक्ति आदर
करता है. अल्फा गुण जन्मजात नहीं होते बल्कि आत्मविश्वास, अनुशासन, सकारात्मकता और सहानुभूति के द्वारा कोई भी अल्फा बन सकता है. इस सन्दर्भ में
फ़िल्मी अल्फ़ा समाज में नकारात्मकता फ़ैलाने का ही काम कर रहा है. एक पल को रुक कर
सोचिये कि विगत वर्षों में जिस तरह से फिल्मों ने समाज को प्रभावित किया है, अपनी वेशभूषा,
जीवन-शैली से युवाओं को आकर्षित किया है उसी तरह से यह फ़िल्मी अल्फ़ा युवाओं को, समाज को किस रास्ते ले जायेगा?
पारिवारिक हिंसा,
हत्या, अत्याचार, अपराध आदि के द्वारा
जिस अल्फ़ा को चित्रित किया गया है वह मानसिक विकृति का सूचक है. हिंसा, अत्याचार, अपराध से घिरा समाज ऐसे फ़िल्मी अल्फ़ा मेल
के चलते सुधार के रास्ते तो नहीं ही जायेगा. ऐसी स्थितियों से दर्शक ही भयभीत नहीं
है वरन् अच्छी फिल्में भी इनके भय से विलुप्त सी हो रही हैं. सामाजिक विद्रूपता को
फिल्मकार द्वारा एक नये प्रकार का चमकदार मुलम्मा चढ़ाकर पेश किया जा रहा है. बुद्धिजीवी
सुसुप्तावस्था में पड़े फिल्मों की वाचालता देख समाज में होता व्याभिचार देख रहे हैं.
खामोशी समाज के जागरूक वर्ग के होठों पर है और समाज की वास्तविकता का मायाजाल दिखाकर
समाज को भरमाने वाले फिल्मकारों की जुबान बोलती है और कहती है- गोली मार भेजे में,
भेजा शोर करता है.
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