जीवन को लेकर जिस तरह से बहुत सारे विद्वानों,
दार्शनिकों आदि ने अपने-अपने विचार रखे हैं, देखा जाये तो वे जीवन के प्रति दृष्टि
को सुलझाने से ज्यादा उलझाते ही हैं. उनके विचारों को पढ़ने-सुनने पर प्रतीत होता
है कि जीवन को सिरे से नकारते हुए आगे बढ़ना है. जीवन के सुख-दुःख से नितांत परे
होकर बस आगे ही आगे बढ़ते जाना है. संभव है कि उनका अपना अनुभव ऐसा रहा हो जहाँ
निरपेक्ष भाव से आगे चलते रहने में ही जीवन का वास्तविक आधार हो.
ऐसे दार्शनिकों, विचारकों, विद्वानों के
विचारों से किसी भी तरह का तर्क-वितर्क न करते हुए सभी को अपने अनुभवों के आधार पर
ही जीवन को जीते रहने का प्रयास करना चाहिए. यहाँ ऐसा इसलिए कहना हो रहा है
क्योंकि समाज में एक-एक व्यक्ति अपने आपमें नितांत व्यक्तिगत इकाई है. एक
माता-पिता की सभी संतानें भी गुणों के, चरित्र के, व्यवहार के आधार पर एक जैसी
नहीं होती. उनके बीच भी तमाम असमानताएँ स्पष्ट रूप से देखने को मिलती हैं. उनके
अपने-अपने जीवन के अपने-अपने अनुभव होते हैं. बहुतायत स्थिति में एक जैसी
परिस्थिति में भी उनके बीच के अनुभव अलग-अलग होते हैं. ऐसे में ये कैसे संभव है कि
दो अलग-अलग लोगों के जीवन का चाल-चलन एक जैसा हो? उनके जीवन के अनुभव दूसरों के
जीवन पर खरे उतरें? उनकी जीवन-शैली कैसे दूसरे की जीवन-शैली बने?
प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन है, अपनी
जीवन-शैली है, अपने अनुभव हैं. ऐसे में उस व्यक्ति के अपने अनुभवों के आधार पर ही
उसे अपने जीवन का आकलन करना चाहिए. दूसरे का जीवन, चाहे वह एकदम सामान्य है, सादा
है अथवा तड़क-भड़क वाला है उसका अनुसरण दूसरे व्यक्ति के लिए कष्ट का विषय ही बनता
है. इस तरह की स्थितियों में व्यक्ति कभी भी संतुलन की, सामंजस्य की स्थिति में
नहीं रहता है.
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