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19 फ़रवरी 2023

दबाव न बनायें बच्चों पर

मौसम में बसंती रंग चढ़ने को है और बच्चों के सामने परीक्षा किसी भय की तरह खड़ी होने लगी है. विभिन्न बोर्ड परीक्षाएँ आरम्भ होने लगी हैं. बच्चों की परीक्षाएँ आरम्भ होने पर और उसके पूर्व भी उनके अभिभावकों द्वारा बालमन पर अतिरिक्त दबाव डाला जाने लगता है. सार्वजनिक रूप से भले ही अभिभावक इसे न स्वीकारें किन्तु सत्य यही है कि उनके द्वारा अपने बच्चों पर प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष दबाव बहुत बुरी तरह से डाला जाता है. बचपन में ही अध्ययन को लेकर अतिरिक्त सजगता दिखाना, ज्यादा से ज्यादा अंक लाने की चाह, कक्षा में-विद्यालय में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित होने की कामना करना, अन्य दूसरे बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना का नकारात्मक रूप विकसित करना आदि बच्चों के कोमल मन-मष्तिष्क पर असर डाल रहा है. ये सारा दबाव समूचे वर्ष भर तो काम करता ही है किन्तु इसका विकृत और भयावह रूप परीक्षाओं के समय देखने को मिलता है. दिन-दिन भर, गई रात तक, अलस्सुबह जगाकर बच्चों के दिमाग में किताबों को लगभग ठूँस देने की मानसिकता बहुतायत अभिभावकों में देखी जा रही है.


आजकल जिस तरह से कॉन्वेंट पद्धति का विकास हुआ, जिस तरह से अत्यधिक किताबों का बोझ बच्चों पर लादा जा रहा है, जिस तरह से कठिन से कठिन पाठ्यक्रम को मंजूरी दी जा रही है, जिस तरह से कमीशन के लालच में निजी प्रकाशकों की बहुतायत किताबों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है वो चिंता का विषय होना चाहिए. ये सब कुछ अकेले विद्यालय प्रबंधन की मंशा से नहीं हो रहा है, ऐसा अकेले निजी प्रकाशकों की मंशा से नहीं हो रहा है, ऐसा शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले दलालों-माफियाओं की मंशा से नहीं हो रहा है वरन इसमें कहीं न कहीं अभिभावकों की मंशा भी अन्तर्निहित है. वे एकदम से अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठ देखना चाहते हैं. वे एकदम से अपने बच्चों में विश्व के सभी क्षेत्रों का ज्ञान समाहित हुए देखना चाहते हैं.




अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने का प्रयास अपेक्षित है किन्तु घर में दवाब भरा माहौल बना देना उचित नहीं. बहुतायत में ये बच्चे अपने-अपने विद्यालयों में एक तरह का अनुशासनात्मक माहौल का बिगड़ा हुआ स्वरूप देखते हैं. क्लासरूम का माहौल, शिक्षा पद्धति का मानक स्वरूप न होना, अत्यधिक पाठ्यक्रम, रटने की मानसिकता आदि से बच्चों में स्कूलों के वातावरण के प्रति एक भय दिखता है. लगभग उसी तरह का माहौल वह अपने घर में देखता है, अपने अभिभावकों में भी शिक्षक का अनुशासन देखता है, अधिकाधिक अंक लाने का दबाव देखता है तो बच्चा अनजाने ही अवसाद की स्थिति में चला जाता है. ऐसी स्थिति के आने पर ऐसे बच्चे गुमसुम, शांत, बिना किसी अतिरिक्त क्रिया-प्रतिक्रिया के देखे जा सकते हैं. डरे-सहमे से ये बच्चे किसी अनजान व्यक्ति के सामने सहजता से व्यवहार नहीं कर पाते हैं. न केवल उनके साथ बल्कि हमउम्र बच्चों के साथ भी उनको समन्वय करने में, सहयोग करने में समस्या होती है. ये स्थितियाँ आगे चलकर बच्चों में एकाकीपन की, अकेलेपन की भावना पैदा करती हैं. घर-स्कूल का दबाव ही कहा जायेगा जबकि नौनिहाल आत्महत्या जैसा जघन्य कदम उठाने लगे हैं, घरों से भागने लगे हैं.


बच्चों द्वारा असफलता के भय से अथवा कुछ प्रतिशत अंक कम आने के चलते मौत की राह चले जाना समूची व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है. इक्कीसवीं सदी में जहाँ एक तरफ अधिकारों, स्वतंत्रता, फ्री-सेक्स, हैप्पी टू ब्लीड, लिव-इन-रिलेशन आदि जैसी अतार्किक चर्चाओं में बुद्धिजीवियों से लेकर मीडिया तक निमग्न हैं, वहाँ बच्चों पर लादे जाने वाले अनावश्यक, अप्रत्यक्ष बोझ को दूर करने के लिए किसी तरह की चर्चा नहीं होती है. ये सम्पूर्ण समाज के लिए क्षोभ का विषय होना चाहिए कि एक बच्चा कुछ प्रतिशत कम अंक आने के भय से अथवा कम अंक आने के कारण मृत्यु को चुन लेता है. समाज के विभिन्न क्षेत्रों में, विभिन्न विषयों में अपनी सक्रियता दिखा रहे समाजशास्त्री, मनोविज्ञानी इस दिशा में संज्ञाशून्य से नजर आते हैं. घर से लेकर स्कूल तक, अभिभावकों से लेकर शिक्षक तक सभी अपनी-अपनी मानसिकता का बोझ बच्चों के मन-मष्तिष्क पर लाद रहे हैं. अपने अतृप्त सपनों को, अपने उस कैरियर को जो वे नहीं बना सके, बच्चों के माध्यम से पूरा करने पर जोर लगाये हैं. अपने बच्चों को साक्षर, शिक्षित, संस्कारित बनाने से ज्यादा ध्यान इस तरफ है कि वे कैसे अधिक से अधिक अंकों से सफलता प्राप्त करें. वे बच्चों की शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने के स्थान पर उनके मन में अधिकाधिक ‘पैकेज वाली जॉब’ को पाने का लालच भरने में लगे हैं. इसके चलते अभिभावकों, शिक्षकों के असफल अतीत को अपने भविष्य द्वारा पूरा करने के चक्कर में बच्चों द्वारा अपना वर्तमान दोषपूर्ण बना लिया जाता है.


संभव है कि वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण के दौर में बच्चों को उन्नत तकनीक से, उच्चतम शिक्षा से, आधुनिक संसाधनों से सज्जित करना अभिभावकों की मजबूरी हो गई हो; ये भी संभव है कि बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा के चलते बच्चों में अधिकाधिक अंक लाने का दबाव बनाया जाने लगा हो किन्तु ये सब बच्चों के भविष्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है. अभिभावकों को चाहिए कि अपने व्यस्ततम समय में से कुछ समय निकालकर अपने बच्चों के साथ बिताने का काम करें. आज के दूषित वातावरण में बच्चों के लिए खेलने को पार्कों, मैदानों की कमी लगातार होती जा रही है तो इसका अर्थ ये नहीं कि बच्चों को सिर्फ कंप्यूटर, मोबाइल, टीवी के भरोसे ही छोड़ दिया जाये. उनकी भावनाओं को समझने के लिए, उनमें सहयोग की भावना विकसित करने के लिए, उनमें विश्वास जगाने के लिए अभिभावकों को बच्चों के साथ घुलना-मिलना चाहिए. इसके साथ-साथ अभिभावक इसका ध्यान अवश्य रखें कि बच्चों का वर्तमान यदि सशक्त होगा तो वे भविष्य की बुलंद इमारत अवश्य बनेंगे और यदि उनका वर्तमान ही भयग्रस्त, विश्वासरहित हुआ तो सुखद भविष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. बच्चों को विश्वास में लेने की जरूरत है. उनके भीतर से खोखलापन हटाकर आत्मविश्वास भरने की जरूरत है. उन पर अनावश्यक दवाब बनाकर उनके जीवन को असमय समाप्त करने के स्थान पर उनको खिलखिलाते रहने के अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है. अंकों की प्रतिस्पर्धा के बजाय उनमें स्वावलंबन की, सहयोग की, समन्वय की भावना का विकास करने की जरूरत है. यदि हम आने वाले समय में ऐसा कर पाए तो अवश्य ही विकास की राह प्रशस्त कर पायेंगे, अन्यथा कष्ट तो दिनों-दिन बढ़ते ही जाना है. 

 






 

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