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03 अगस्त 2020

संबंधों के साथ खेल, सही सही है, गलत गलत है

सम्बन्ध का निर्वहन सबसे कठिन होता है, इसे सुना था मगर ज़िन्दगी में जान भी गए. कुछ स्थितियाँ ऐसी होती हैं जबकि समय से पहले कुछ अनुभव मिल जाया करते हैं. जनपद मुख्यालय में निवास स्थान होने के कारण गाँव से, ननिहाल से किसी भी समस्या से सम्बंधित लोगों के आने का एकमात्र माध्यम पिताजी हुआ करते थे. ऐसा इसलिए भी होता था क्योंकि वे वकालत से सम्बद्ध थे. पता नहीं आज वकीलों के बारे में आम राय क्या है मगर किसी समय वकीलों को बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था. उस दौर में जबकि सरकारी नौकरियाँ बहुत ही सहज थीं, पिताजी को कई-कई अच्छी सरकारी नौकरियों से बाबा जी ने महज इसीलिए रोक रखा था कि वे पारिवारिक मुकदमों को देख सकें, उनका निस्तारण कर सकें. कई बार बाबा जी से इस सन्दर्भ में बात होती तो बाबा गर्व के साथ बताते कि हमारे पिताजी का किस-किस नौकरी के लिए चयन हुआ मगर घर की स्थिति के कारण नहीं भेजा. उसके आगे वे कहते कि वकील साहब कहने में जिस साहब का भाव उभरता है वह डीएम के लिए साहब कहने में भी नहीं उभरता है. आज इस वाक्य का सत्य क्या है, ये तो आज के लोग जानें मगर हमने बाबा जी के इस वाक्य की सत्यता अपनी आँखों देखी है.



बहरहाल, संबंधों की सत्यता आज जैसी दिखती है, उस दौर में नहीं दिखती है. हमने कभी भी पिताजी के मुँह से इस सम्बन्ध में नकारात्मक टिप्पणी नहीं सुनी. पिताजी तो चलो अपने परिवार के लिए यह त्याग कर रहे थे, हमने आज तक अम्मा के मुँह से ऐसी स्थिति के लिए कभी नाराजगी नहीं देखी, नकारात्मक टिप्पणी नहीं देखी. पारिवारिक माहौल का प्रभाव ही कहा जायेगा कि हम संबंधों का ख्याल रखने की भरसक कोशिश करते हैं. हमारी कोशिश होती है कि किसी को भी हमारी तरफ से परेशानी का अनुभव न हो. हमसे जितनी संभव हो मदद उसे मिल जाये. ऐसा हम न केवल अपने परिचितों के साथ करते हैं बल्कि अपरिचितों के साथ भी ऐसा व्यवहार रहता है.

हमारे इसी व्यवहार के कारण कई बार हमें अपने घर में डांट भी पड़ी. स्वाभाविक है, कोई माता-पिता अपने पुत्र के लिए किसी स्थायित्व की बात पर विचार कर रहे हों, उनके मन में किसी बड़ी योजना की रूपरेखा बनी हुई हो और उनका वह पुत्र अनर्गल कार्य करते फिर रहा हो, तो नाराजगी स्वाभाविक है. हम अपनी योजनाओं के साथ आगे बढ़ते रहे, परिवार की अपनी योजनायें बनी रहीं. इन्हीं तमाम सारी योजनाओं में मित्रों की, परिचितों की योजनाओं ने भी अपना पाला संभाल लिया. कुछ को हम पूरा कर सके, कुछ में हम असफल रहे. बस यही हमारी ज़िन्दगी का सबसे ख़राब पहलू बनकर सामने आया. जहाँ हम सफल रहे वहाँ तो किसी ने क्रेडिट न दिया मगर जहाँ हम असफल रह गए वहाँ सभी ने हम पर दोषारोपण करना शुरू कर दिया. पता नहीं असल सत्य क्या है?

हमारे कुछ ख़ास मित्र, हमारे परिजन भी हमारी इस कार्यशैली से नाराज हैं. उनके वक्तव्य, उनके विचार हमारे प्रति इस तरह नकारात्मक बन चुके हैं कि कई बार तो हमें खुद में ऐसा आभास होता है कि कहीं हम वाकई नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तो नहीं बनते जा रहे? बहरहाल, वे लोग बताते नहीं कि हम कहाँ गलत हैं और हमें समझ आता नहीं कि हम कहाँ गलत हैं. फ़िलहाल तो दोनों तरफ से गलत-गलत खेला जा रहा है, कौन सही है ये तो समय बताएगा.

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

2 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसा अंतर्द्वंद हर उस व्यक्ति के भीतर चल रहा होता है सर जो अपने निर्णय खुद लेकर उन्हें सही साबित करता है | आप दिल की सुनने वालों में से हैं और दिल की आवाज़ तो ऊपर ईशवर तक ज्यूँ की त्यों पहुँच जाती है

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  2. जटिल सोच को आसानी से लिख दिया आपने.

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