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03 मई 2020

इक पगली मेरा नाम जो ले... तो ये हाल हो जाए

सर्दी की कड़कड़ाती सुबह थी. चाय की तलब के आगे सर्दी, गर्मी, बरसात कहीं नहीं लगती थी. एक आदत बुरी यही पड़ी है, चाय पीने की. सुबह और शाम को एक बार पीनी ही पीनी है, चाहे क़यामत आ जाये. उस दिन सुबह शाल लपेट चाय पीने के लिए निकल पड़े. हॉस्टल के गेट से सड़क तक पहुँचने के लिए दो-ढाई सौ मीटर का रास्ता तय करना पड़ता था. सोचिये, कितनी कठिन तपस्या करनी पड़ती थी. सर्दी की कंपकंपाती सुबह, चाय की घनघोर तलब और इतना लम्बा रास्ता. चले जा रहे थे मुँह में चाय का स्वाद बनाते हुए. उसी समय सड़क पर कुछ डायोड, ट्रांजिस्टर जैसे अंग पड़े हुए थे. विज्ञान प्रगति, अविष्कार जैसी पत्रिकाओं के कारण छोटे-मोटे वैज्ञानिक बनने का प्रयास भी कर लेते थे. हालाँकि हर प्रयास में असफलता ही मिली किन्तु किसी न किसी दी सफलता मिलेगी, प्रयोग करते ही रहे. आगे के किसी प्रयोग में ये सब पार्ट्स काम आ सकते हैं, उठा लिए.


कुछ कदम और आगे बढ़े तो इसी तरह के दो-चार पार्ट्स और बिखरे दिखे. पहले सोचा कि पता नहीं किसने फेंके हैं, बेकार ही होंगे मगर फिर उनको भी उठा लिया. यहाँ अपने बाबा जी की एक बात याद आ गई कि सकल चीज संग्रह करे, काऊ दिन आबे काम. इसी सोच के साथ अभी उन दो-चार तत्त्वों को समेट कर जेब के हवाले कर भी न पाए थे कि आँखों के आगे कुछ और चीजें दिखाई दीं. अबकी दिखाई देने वाली चीजें कुछ परिचित सी समझ आईं. थोड़ा दिमाग दौड़ाया तो वे सब हिस्से अपने भाईसाहब के टेप रिकॉर्डर के समझ आये. जैसे ही उन सारे हिस्सों को देखा और कुछ बाहरी सा हिस्सा देखा तो साफ़ समझ आ गए कि ये टेप रिकॉर्डर ही है.

अब चाय का स्वाद गायब. दिमाग दौड़ने लगा टेप रिकॉर्डर की ऐसी दुर्गति के मूल में. इसके साथ ही आँखें तलाशने में लगी थीं बेचारे टेप रिकॉर्डर के अंग-प्रत्यंगों को. कुछ हिस्से सड़क किनारे लगे तारों के दूसरी तरफ बबूल के जंगल में नजर आये. तार कूद दूसरी तरफ जाकर लगभग पूरा का पूरा टेप रिकॉर्डर जरा-जरा से हिस्सों में बरामद कर लिया गया. ओढ़े हुए शाल में उसके बेजान हिस्सों को समेट कर बजाय चाय पीने के वापस हॉस्टल लौट सीधे भाईसाहब के कमरे में पहुँचे. तब तक इतनी सुबह हो चुकी थी कि वे सब लोग भी जाग चुके थे. नित्यक्रिया से निपटने के बाद चाय पीने की तैयारी में शेष पलटन भी लगी हुई थी. हमने बिना कुछ कहे पलंग पर शाल खोलकर सारे कल-पुर्जे बिखेर कर रख दिए. एक भाईसाहब को छोड़ सबकी आँखें खुली की खुली रह गईं.


कुछ घंटों पहले रात में जो कुछ हुआ, वो अब सबकी समझ आ गया था. असल में हम कुछ मित्र-मंडली हॉस्टल में एक कमरे में बैठे गपशप करने में लगे थे, सीनियर भाईसाहब को छोड़कर. वे ख़ामोशी से आँखों को आने हाथ से बंद किये लेते हुए थे. उनके ऐसे खामोश से लेते रहने का कारण हम दो दोस्तों को पता था. कॉलेज में जिस लड़की को वे पसंद करते थे, उससे कुछ अनबन हो गई थी. हम दोनों दोस्त कुछ देर पहले उन्हें इसी बात पर चिढ़ाते भी रहे थे, छेड़ते रहे थे. उनके चुप लेटने पर हम लोग अच्छा महसूस नहीं कर रहे थे. ऐसे में उनको सक्रिय करने के लिए, इस मनोदशा से बाहर लाने के लिए उनके पसंद की ग़ज़ल टेप रिकॉर्डर पर चला दी. गुलाम अली की आवाज़ में एक पगली मेरा नाम जो ले शरमाए भी, घबराए भी ग़ज़ल को हम लोग उसी लड़की से जोड़कर खूब सुनते थे.

अभी ग़ज़ल पूरी हो भी न पाई थी कि भाईसाहब ने उसी अवस्था में लेते-लेते आदेश दिया, टेप बंद करो. हम दोनों दोस्तों ने एक-दूसरे को देखा और मुस्कुरा कर टेप चलने दिया. कुछ देर में ग़ज़ल पूरी हुई तो हमने उसे रिवाइंड करके फिर शुरू कर दिया. टेप बंद करने का आदेश फिर हुआ. हम लोगों की वही प्रतिक्रिया रही. अबकी ग़ज़ल उसके आगे बढ़ न सकी थी कि भाईसाहब उठे और टेप बंद करके हम दोनों को गुस्से से घूरा और लेट गए. उनके गुस्से से हम सभी परिचित थे सो गुस्से का आदर भी करते थे, बचते भी थे. कुछ मिनट तक हम लोग भी चुप रहे फिर अपने-अपने काम में मगन हो गए.

ठण्ड खूब थी ही, सो रजाई में लिपटे आराम से लेते थे. तभी भाईसाहब का उठना हुआ और शाल लपेट कर एक झटके में बाहर निकल गए. यह सब इतनी तेजी से हुआ कि हम लोगों को कुछ समझ नहीं आया. उस रात ये अंदाजा हम में से किसी को नहीं था कि भाईसाहब झटके में टेप रिकॉर्डर को उठाकर बाहर निकल गए थे. बताने की आवश्यकता नहीं कि रात को उन्होंने हॉस्टल वाली सड़क पर गुम्मे के सहारे उस टेप रिकॉर्डर की, उस कैसेट की हत्या करके उसके अंग-प्रत्यंग सबूत मिटाने की दृष्टि से इधर-उधर बिखेर दिए. वही अंग सुबह हमारे हाथ लगे और एक मासूम की हत्या का राज़ खुला.

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ... क्या राज़ था इस केसेट का ...
    पर मज़ा आ गया इन यादों की डायरी का ...

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