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12 अप्रैल 2020

जान की बाजी के द्वारा अनावश्यक भय का प्रसार

यदि लॉकडाउन 14 अप्रैल से आगे बढ़ा तो कुछ नए काम करने का विचार करना पड़ेगा. यह समय उनके लिए भले ही बहुत अच्छा है जिनको घर से बाहर रहने की, घूमने की आदत नहीं है; ऐसे लोगों के लिए भी उपयुक्त है जो अपने काम के अनावश्यक बोझ के चलते परिवार को समय नहीं दे पाते थे मगर ऐसे लोगों के लिए जो घूमने के शौक़ीन भी हैं और इसके साथ परिवार को भी समय देते हैं, बहुत ही समस्या उत्पन्न करने वाला समय है. व्यक्तिगत यदि हम अपनी बात करें तो लॉकडाउन के शुरू होने के बाद पहले हफ्ते ही पढ़ने, लिखने से मन भर सा गया. यद्यपि लॉकडाउन में जिस तरह की रियायत मिली हुई थी, उसके अनुसार दिन में बारह बजे तक तो किसी आवश्यक काम के बहाने से घर से बाहर निकल ही सकते थे. इसके अलावा मीडिया से संपर्क होने के कारण भी इसके लिए खुद को तत्पर करके घर से बाहर निकल आते. इसी तरह सामाजिक कार्यों में लम्बे समय से जुड़े होने के कारण भी सहजता से इसी कार्य हेतु घर से बाहर आ सकते थे. ऐसी सुलभ, सहज स्थितियों के बाद भी स्वयं विचार करके घर से बाहर न निकलने का मन बनाया था. आखिर महज शौक के लिए बाहर निकलना अथवा बोरियत मिटाने के लिए सड़कों पर टहलना हमें कतई सही नहीं लगा. रही बात मीडिया और सामाजिक कार्यों की तो उसके लिए बहुत से साथी अपनी जान की बाजी लगाकर इस तरफ लगे हुए थे तो सोचा कि काहे अपनी जान की बाजी लगाई जाये.


वैसे ये जान की बाजी लगा कर काम में जुटने का सन्दर्भ समझ नहीं आया. क्या कोरोना कहीं छिपा बैठा है जो मौका पाकर, घात लगाकर हमला कर देगा? क्या कोरोना कोई जीव-जंतु जैसा है जो हमला करके जान ले लेगा और कहीं गायब हो जायेगा? क्या कोरोना वायरस से संक्रमण वाकई इतनी गंभीर बीमारी है जो लगते ही मृत्यु दे देती है? क्या यह वायरस हवा में तैरता, उड़ता देश, प्रदेश की गलियों में लोगों को अपना शिकार बना रहा है? देखा जाये तो ऐसा कुछ भी नहीं है, फिर ये जान की बाजी लगा देना कहाँ से और कैसे उत्पन्न हुआ? क्या हम लोगों को किसी भी बात को गंभीरता से न लेने की आदत बनी हुई है? क्या हम किसी बात को जबरन ही भयावह बना देते हैं? क्या लोगों को डराना, भयाक्रांत करना हम सबके स्वभाव में शामिल है? आखिर ऐसा क्या है, जिसके चलते सामान्य से कदमों को भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाने लगता है?


क्या मीडिया ने किसी आइसोलेशन वार्ड में जाकर वहाँ के मरीजों से मिलने की कोशिश की? क्या किसी ने उस लैब में जाकर संक्रमित व्यक्ति का सैम्पल छूने का प्रयास किया है? क्या किसी समाजसेवी ने कोरोना वायरस प्रभावित व्यक्ति को सहायता दी है? क्या कोरोना संक्रमित की सेवा इनके द्वारा की जा रही है? यदि ऐसा है तब तो जान की बाजी लगाना समझ आता है. और यदि ऐसा नहीं है तो फिर वे सभी लोग जान की बाजी लगाये हैं जो सड़कों पर घूम रहे हैं, सब्जी अथवा आवश्यक सामान लेने के लिए बाजार में खड़े हैं. देखा जाये तो इस मामले में चिकित्सा सेवा से जुड़े हुए वे लोग जो इन लोगों की देखभाल में लगे हैं, इनके सैम्पल की टेस्टिंग में लगे हैं, इनकी सेवा-उपचार कर रहे हैं, इनकी तीमारदारी कर रहे हैं, ही वाकई में अपनी जान की बाजी लगाये हुए हैं. ये लोग सबसे ज्यादा ‘डेंजर जोन’ में हैं, बाकी लोग तो इस खतरे के कहीं शतांश हिस्से में खड़े हैं. माना कि सभी अपने-अपने अनुसार दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं मगर महज इसी के चलते खुद को सबसे ऊपर, सबसे विशिष्ट बनाने-बताने की मानसिकता का खतरा ये होता है कि इनके अलावा अन्य नागरिकों में एक तरह के भय का वातावरण बनता रहता है. कम से कम ऐसे समय में जबकि एक-एक व्यक्ति मोबाइल लिए खुद में चैनल बना, मीडिया बना घूम रहा है, वैश्विक मौतों की, भयावहता को पल-पल अपडेट कर रहा हो तब मीडिया को, सामाजिक क्षेत्र से जुड़े लोगों को बहुत ही संयमित रहने की आवश्यकता है. उनको ध्यान रखना होगा कि जब हर हाथ समाचार एजेंसी बना हुआ तब कुछ प्रतिष्ठित नामों पर लोग विश्वास करते हैं. ऐसे में जब वे ही अपनी जान की बाजी लगाते दिखेंगे तो अनावश्यक भय का माहौल समाज में बनेगा.

ये सही है कि कोरोना संक्रमण अब महामारी के रूप में दिख रहा है. इसके बाद भी वैश्विक रूप से जानकर लोगों द्वारा बार-बार बताया जा रहा है कि इसके द्वारा होने वाली मृत्यु दर अत्यंत कम है. इसकी भयावहता के कारक अलग हैं. इसकी दवा भले ही न उपलब्ध हो, इसका इलाज अभी दिखाई न दे रहा हो इसके बाद भी लोग स्वस्थ हो रहे हैं. यही बिंदु बताता है कि हम सबको धैर्य रखने की आवश्यकता है. चीनी वायरस कोरोना के संक्रमण से होने वाली मौतों के पीछे के कारणों-कारकों को भी जानना, समझना होगा. इस संक्रमण से होने वाली किसी भी मृत्यु को सिर्फ इसी वायरस से जोड़कर देखना समाज में भय पैदा करना ही है, जो वर्तमान परिस्थितियों में कतई भी उचित प्रतीत नहीं होता है.

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#हिन्दी_ब्लॉगिंग

6 टिप्‍पणियां:

  1. तिल का ताड़ बनाना इसी को कहते हैं शायद । यूं भी यहां अतिरेकता हमेशा से ही हावी रही लोगों पर ।

    सटीक और सामयिक आलेख ।

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  2. इस संक्रमण से होने वाली किसी भी मृत्यु को सिर्फ इसी वायरस से जोड़कर देखना समाज में भय पैदा करना ही है, जो वर्तमान परिस्थितियों में कतई भी उचित प्रतीत नहीं होता है।
    जी बिल्कुल सटीक कथन ...

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  3. बिलकुल सही विश्लेषण किया है । मीडिया वाले कभी अस्पतालों में झांककर देखते हैं क्या ?

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  4. हम सबको धैर्य रखने की आवश्यकता है.

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  5. बहुत सटीक विश्लेषण किया आपने

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