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07 अगस्त 2017

माँग और आपूर्ति के सिद्धांत पर आधारित फ्रेंड्स विद बेनिफिट्स

किस आसानी से कह दिया जाता है दोस्त और उतनी ही आसानी से कह दिया जाता है कि अब दोस्ती समाप्त। ये वर्तमान का चलन है। इसे हम यदि संस्कृति, सभ्यता के चलन के रूप में न देखकर एक सामाजिक अवधारणा के रूप में स्वीकारें तो शायद ऐसे रिश्तों का आकलन करना आसान हो जायेगा। फ्रेंड्स विद वेनिफिट्स भले ही इन अंग्रेजी शब्दों के अर्थ सीधे-सीधे उस बात को नहीं साबित कर पा रहे हों जो इनके भीतर छुपा है पर यह तो स्पष्ट ही हो रहा है कि कुछ अनजाना सा अर्थ बड़े ही खूबसूरत शब्दों में छुपाकर सामने रखा गया है। इन शब्दों में छुपी पूरी बहस को लड़का अथवा लड़की के दायरे से बाहर आकर देखना पड़ेगा।


यहाँ तार्किक रूप से अवलोकन करने से पहले इस शब्द-विन्यास पर विचार करें तो और भी बेहतर होगा। पहला शब्द फ्रेंड्स यानि कि दोस्त, अब आइये और देखिये आसपास की दोस्ती की परिभाषा। दो विषमलिंगी आपस में मिलते हैं, कालेज के दिनों में अथवा अपने अन्य कामकाजी दिनों में। आपसी मुलाकातों का दौर बढ़ता है और प्यार जैसा शब्द जन्म लेता है। जन्म तो शायद उसने पहली मुलाकात में ही ले लिया था पर जुबान पर आया कुछ दिनों के बाद। प्यार परवान चढ़ा तो ठीक नहीं तो दोनों दोस्ती तो निभा ही सकते हैं जैसे वाक्य के साथ अपने रिश्तों का पटाक्षेप करते हैं। (पता नहीं रिश्तों का पटाक्षेप होता भी है या नहीं?) अब दोस्ती उस रूप में नहीं होती जो जन्म-जन्मान्तर की बातों पर विचार करे। इस हाथ ले उस हाथ दे वाली बात यहाँ भी लागू होती है। शारीरिक सम्बन्ध अब हौवा नहीं रह गये हैं। दो विपरीत लिंगियों में दोस्ती की कई बार शुरुआत सेक्स के आधार पर ही होती देखी गई है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्यों महानगरों के पार्क, चैराहे शाम ढलते ही जोड़ों की गरमी से रोशन होने लगते हैं? दोस्ती का ये नया संस्करण है।

अब शब्द आता है वेनिफिट्स क्या और कैसा? इसको बताने की आवश्यकता नहीं। महानगरों में चल रहे मेडीकल सेंटर में होते गर्भपात ही बता रहे हैं कि किस वेनिफिट्स की बात की जा रही है। ये बहुत ही साधारण सी बात है कि यदि हमारे रिश्तों की बुनियाद आपसी शर्तों के आधार पर काम कर रही है तो उसमें हम भावनाओं को कैसे सहेज सकते हैं? देखा जाये तो अभी इन शब्दों की संस्कृति का चलन कस्बों, छोटे शहरों आदि में नहीं हुआ है। यदि हुआ भी होगा तो उसका स्वरूप अभी वैसा नहीं है जो इन शब्दों का मूल है। महानगरों में जहाँ तन्हाई है, मकान मिलने की समस्या है, परिवहन की समस्या है, कामकाज के समय निर्धारण की समस्या है, कार्य के स्वरूप में दिन-रात का कोई फर्क नहीं है वहाँ इस तरह के सम्बन्ध बड़ी ही आसानी से बनते देखे जाते हैं। सहजता से कुछ भी कहीं भी मिल जाने की स्थिति ने इस प्रकार के रिश्तों को और भी तवज्जो दी है। किसी के सामने कोई जिम्मेवारी वाला भाव नहीं। माँग और आपूर्ति का सिद्धान्त यहाँ पूरी तरह से लागू होता है। अब इस तरह का निर्धारण कतई काम नहीं करता कि वो लड़का है या लड़की। दोनों की अपनी जरूरतें हैं, दोनों के अपने तर्क हैं, दोनों की अपनी शर्तें हैं जो पूरा करे वही फ्रेंड अन्यथा कोई दूसरा रिश्ता देखे।

अभी हमें इन रिश्तों की गहराई में जाना होगा और देखना होगा कि हम जिस समाज की कल्पना कर रहे हैं वह किस प्रकार के रिश्तों से बनता है? यह सार्वभौम सत्य है कि आज के युग में परिवारों के टूटने का चलन तेजी से बढ़ा है। लड़के और लड़कियों में कार्य करने की, घर से बाहर रह कर कुछ करने की इच्छा प्रबल हुई है ऐसे में अन्य जरूरतों के साथ-साथ शरीर ने भी अपनी जरूरत के अनुसार रिश्तों को स्वीकारना सीखा है। भारतीय संस्कृति के नाम की दुहाई देकर हम मात्र हल्ला मचाते रहते हैं पर मूल में जाने की कोशिश नहीं करते। बात हाथ से निकलती तब समझ में आती है जब हमारे सामने माननीय न्यायालय आकर खड़े हो जाते हैं, जैसा कि धारा 377 पर हुआ। फ्रेंड्स विद वेनिफिट्स को युवा वर्ग, वह वर्ग जिसकी ये जरूरत है स्वीकार चुका है क्योंकि समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग आज प्रत्येक कार्य के ऊपर सेक्स को महत्व दे रहा है।


5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बेहतरीन article लिखा है आपने। Share करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। :) :)

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस : भीष्म साहनी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. सबसे बड़ा संकट जीवन की सहजता पर है.

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  4. हर रिश्ता मांग और पूर्ति के आधार पर ही टिका होता है। यही कड़वी सच्चाई है। सुंदर प्रस्तुति।

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