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31 जुलाई 2017

राजनीति का शिकार हुए शिक्षामित्र

उच्चतम न्यायालय के बहुप्रतीक्षित निर्णय में लाखों शिक्षामित्रों का समायोजन निरस्त कर दिया गया है। समायोजन निरस्त किए जाने से शिक्षामित्रों में आक्रोश है और वे उपद्रव रूप में सड़कों पर दिखाई देने लगे हैं। ये अपने आपमें संवेदित करने वाली बात ही है कि एक निर्णय से लाखों परिवारों के जीवनयापन पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। इसी संदर्भ में समझने वाली बात यह भी है कि शिक्षामित्रों द्वारा किया जा रहा उपद्रव इस प्रश्नचिन्ह को दूर नहीं करेगा। नियुक्त किए जा रहे शिक्षकों को जान से मारने की धमकी, विद्यालय न खोलने देने की धमकी, उनकी समस्या पर विचार न करने पर इस्लाम कबूलने की धमकी उनके प्रति संवेदना को समाप्त कर रही है। इसमें दोराय नहीं कि किसी भी व्यक्ति की आजीविका पर संकट आता है तो वह बिना सोचे-विचारे कदम उठाने लगता है। ऐसी स्थिति में शिक्षामित्रों को समझना चाहिए कि उनके समायोजन को राजनैतिक लाभ के लिए किया गया था और इसे किसी सरकार ने नहीं वरन उच्चतम न्यायालय ने निरस्त किया है। ऐसी दशा में उनको विरोध का ऐसा रास्ता अपनाया जाना चाहिए था जो न केवल सरकार को बल्कि न्यायालय को भी उनकी स्थिति पर पुनर्विचार करने को प्रेरित करता।

ग्रामीण और शहरी स्तर की प्राथमिक शिक्षा को सुचारू रूप से संचालित करने की दृष्टि से शिक्षामित्रों का चयन किया गया था। इंटरमीडिएट योग्यता के आधार पर नियुक्त शिक्षामित्रों की संख्याबल को देख राजनैतिक दलों द्वारा उनको वोटबैंक के रूप में देखा जाने लगा। इस क्रम में उनके समायोजन के लिए अपेक्षित योग्यता के मानकों को पूरा करने के प्रयास किए जाने लगे। इसका आरम्भ भी बसपा सरकार द्वारा किया गया। उसकी ओर से दूरस्थ बीटीसी करवाये जाने की अनुमति भी ले ली गई किन्तु योजना के अमल में आने से पूर्व ही प्रदेश में सरकार परिवर्तन की स्थिति आ गई। अब प्रदेश में बसपा की जगह सपा की सरकार बनी जिसने शिक्षामित्र रूपी वोटबैंक को अपने पक्ष में मोड़ने का अवसर न गँवाया। उनकी शैक्षिक एवं अन्य योग्यताओं के आधार पर शिक्षामित्रों को नियमित शिक्षक के रूप में समायोजित किया गया। वोटबैंक के लालच में तत्कालीन सरकार यह गौर करना भूल गई कि शिक्षामित्रों के समायोजन के समय बहुत बड़ी संख्या में टीईटी पास व्यक्ति शिक्षक बनने की आस लगाए बैठे थे। सरकार के इस निर्णय को इन्हीं टीईटी उत्तीर्ण अभ्यर्थियों द्वारा अदालत में चुनौती दी गई। तमाम सारे पहलुओं और बिन्दुओं पर विचार करने के बाद पहले उच्च न्यायालय ने और बाद में उच्चतम न्यायालय ने शिक्षामित्रों के समायोजन को गलत ठहराते हुए उसे निरस्त कर दिया।

यकीनन इस समायोजन में यदि कमियाँ थी तो उनमें शिक्षामित्रों का कोई दोष नहीं था। उनके द्वारा समायोजन के लिए तत्कालीन सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों का ही पालन किया गया। इसमें भी जो शिक्षामित्र उस योग्यता को पूरा नहीं कर पा रहे थे वे समायोजन से बाहर ही रहे थे। यहाँ एक बात गौर करने योग्य है कि आखिर सरकार के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी थी जो टीईटी उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को नियुक्त करने की बजाय शिक्षामित्रों को समायोजित करने में लग गई? यदि सरकार का मन वाकई समायोजन करने का ही था तो क्यों नहीं मानकों के अनुरूप कदम उठाए गए? वोटबैंक की राजनीति के चलते राजनैतिक दलों, सरकारों ने हमेशा स्वार्थपरक कदम उठाए हैं। उनके द्वारा क्षणिक लाभ को देखा जाता है और दूरगामी लाभों को, नुकसान को नजरअंदाज कर दिया जाता है। तत्कालीन सपा सरकार की इसी अगम्भीरता ने लाखों परिवारों के सामने रोजीरोटी का संकट पैदा कर दिया है। अब जबकि शिक्षामित्रों के हाथ से सारी स्थिति निकल चुकी है तब उनके सामने सिर्फ सहानुभूति का, संवेदना का ही रास्ता बचता है। शांतिपूर्वक अपने विरोध को दर्शाते हुए वे उच्चतम न्यायालय से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने की अपील करें। उपद्रव, हिंसा, धमकी आदि उनके मामले को कमजोर बनाने के अलावा कुछ और न करेगा। इनके संगठनों और नेताओं को इस पर आक्रोशित हो राजनीति करने के बजाय शांतिपूर्ण ढंग से समाधान का रास्ता खोजने, बनाने का प्रयास करना होगा।

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